अंधेर नगरी, चौपट सरकार
२ अगस्त २०१२भारतीय मीडिया ने तो देश के नेताओं को बिलकुल नहीं छोड़ा. इकोनॉमिक टाइम्स ने अपनी हेडलाइन में भारतीय विकास और प्रगति की खिल्ली उड़ाते हुए लिखा, "सुपरपावर इंडिया, रेस्ट इन पीस" और टाइम्स ऑफ इंडिया का कहना है कि देश के नेताओं के पास न तो कोई शक्ति है और न हीं कोई उपाय.
छवि को नुकसान
बिजली के गायब होने से भारत को कम से कम 500 करोड़ रुपये का नुकसान तो हुआ ही होगा. जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्री प्रवीण झा यह अंदाजा लगाते हैं और कहते हैं कि बिजली के नहीं रहने से ट्रेनें लेट हो गईं. नई दिल्ली में ट्रैफिक लाइट के काम न करने से कई घंटों तक लोग सड़कों पर ही फंसे रहे. इमरजेंसी सेवाओं के लिए अस्पतालों को जेनरेटरों पर निर्भर रहना पड़ा.
लेकिन इससे ज्यादा नुकसान भारत की सुपरपावर छवि को हो रहा है. झा कहते हैं, "पहले दिन जब होता है तो आप स्वीकार कर लेते हैं. लगातार दो दिन अगर ऐसी चीज हुई तो स्पष्ट है कि रुटीन मेंटनेंस या कोई रेगुलेशन या सिस्टम होना चाहिए, वह सब रहा होगा. तो कहीं न कहीं छवि को बहुत बड़ा धक्का लगा होगा."
झा कहते हैं इसमें कोई हैरानी वाली बात नहीं कि दुनिया भर में लोग भारत का मजाक उड़ाते हैं. भारत खुद अपने को सुपरपावर और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बताता है, "अगर भारत अपने आप को समृद्ध देशों की कतार में शामिल करना चाहता है, जो बहुत बुनियादी जरूरतें हैं, अगर उसको बहाल रखने में इतनी पेरशानी हो रही है, तो यह तो समृद्धि के लिए एक धब्बा ही नहीं, कालिख वाली बात है."
क्यों हुई बत्ती गुल
अब तक बिजली ग्रिड के ठप होने की वजह का पता नहीं चल पाया है. भारत सरकार ने इसके लिए एक जांच आयोग का गठन किया है. टाटा पावर डिस्ट्रिब्यूशन नई दिल्ली और आस पास के इलाकों में बिजली पहुंचाती है. कंपनी के अधिकारी अरूप घोष कहते हैं कि ऐसी परेशानियां अमेरिका जैसे देशों में भी हुई है. उनके मुताबिक, "ग्रिड में अस्थिरता इसका कारण होता है. ज्यादा बिजली निकालने से या उसकी फ्रीक्वेंसी के नियंत्रण में कुछ कमी आने से ऐसा हो जाता है. अगर फ्रीक्वेंसी बढ़ जाए या घट जाए, यानी जो सामान्य रूप से 50 हर्ट्ज है, उससे कम हो जाए, तो जनरेटिंग प्लांट्स की मशीनों में कुछ अस्थिरता आती है और मशीनों में अस्थिरता आने से समस्या हो जाती है." लेकिन रोजाना जांच में इस आसान परेशानी का पता क्यों नहीं चला, लोग बता नहीं पा रहे हैं.
कोयले पर निर्भर भारत
भारत की आधे से ज्यादा ऊर्जा जरूरतें कोयला पूरा करता है. 1.2 अरब की आबादी वाले देश को आर्थिक विकास के लिए और ऊर्जा की जरूरत पड़ रही हैं. अरूप घोष कहते हैं कि बिजली की मांग पूरी करने में मुश्किलें आ रही हैं. घोष पिछले 30 सालों से भारत में ऊर्जा सेक्टर पर नजर रख रहे हैं, कहते हैं, "10 से 15 प्रतिशत कमी, यानी ऊर्जा के उत्पादन में और मांग में अभाव तो भारत में है ही."
कई वर्षों से विश्लेषक कह रहे हैं कि भारत को कोयले पर अपनी निर्भरता कम करनी होगी और नए किस्म से पैदा होने वाली ऊर्जा पर ध्यान देना होगा, जैसे सौर ऊर्जा और वायु ऊर्जा पर. भारत इस वक्त नए परमाणु रिएक्टरों को बनाने पर ध्यान दे रहा है. लेकिन जापान के फुकुशिमा में सुनामी के बाद हुए परमाणु हादसे से लोग इसके खिलाफ हो गए हैं. घोष का ख्याल है कि अगले दस साल में भी कोयला भारत में ऊर्जा का प्रमुख स्रोत रहेगा. शायद नवीनीकृत ऊर्जा का हिस्सा कुछ बढ़ेगा. लेकिन नए स्रोतों से ऊर्जा पैदा करना काफी महंगा है. घोष के मुताबिक सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोयले से बाहर निकलने की कीमत भी बहुत ज्यादा होगी और इसलिए सरकार बाकी अहम फैसलों को स्थगित कर देगी.
सरकार पर दबाव
पूर्व ऊर्जा मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने सरकार की नाकामी को लेकर विवाद और तीखा कर दिया है. शिंदे ने एक इंटरव्यू में कहा कि भारत में लोगों को सरकारी प्राधिकरणों के काम के लिए शुक्रगुजार होना चाहिए. लेकिन अर्थशास्त्री प्रवीण झा का मानना है कि इससे आम लोगों और सरकार के बीच मतभेद और ज्यादा बढ़ेगा, "यह एक काफी ढुलमुल सरकार है जो बुनियादी जरूरतों को पूरी नहीं कर सकती है. ऐसे संदंर्भ में जब सरकार का ऐसा बयान हो जैसे शिंदे साहब ने दिया, तो निश्चित तौर पर आम जनता को यह भी लगता है कि वह सिर्फ ढुलमुल ही नहीं है, बल्कि इस तरह की चीज को न्यायोचित ठहराने का प्रयास कर रही है."
एक बात को साफ है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सत्ताधारी गठबंधन की मुख्य पार्टी कांग्रेस पर दबाव बढ़ रहा है. 2014 में आम चुनाव होने हैं. बीते दो साल से सरकार अपने मंत्रियों और उन पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से जूझ रही है. देश में महंगाई बनी हुई है और विकास दर गिर रही है. सरकार को अब देश के भीतर ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में अपनी छवि बचाने की जद्दोजेहद करनी है.
रिपोर्टः प्रिया एसेलबॉर्न/एमजी
संपादनः ओंकार सिंह जनौटी