अपनी समुद्री सीमाओं को लेकर अधिकार मांग रहे हैं द्वीप देश
१२ मार्च २०२१किरिबाती से तुवालु तक सभी देश, महासागर में यहां से वहां बिखरे हुए अपने दूरदराज के द्वीपों की मैपिंग कर रहे हैं. भविष्य में समुद्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी से बेपरवाह, वे 200 नॉटिकल मील यानी 370 किलोमीटर फैलाव वाले इस सामुद्रिक क्षेत्र पर अपने स्थायी विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र का दावा कर रहे हैं. वैश्विक तापमान पानी के स्तर को बढ़ा रहा है और प्रशांत देशों को डर है कि उनके द्वीप डूब सकते हैं. इससे उनके विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र का भूगोल सिकुड़ जाएगा और उनकी अपनी अपनी सीमाओं में जारी मछलीपालन या खनन जैसे उद्योग सिमट जाएंगे. इसीलिए वे अपने मौजूदा आर्थिक क्षेत्रों का नक्शा बनाने में जुटे हैं.
फिजी स्थित द पैसिफिक कम्युनिटी नामक संगठन में ओशन एंड मैरीटाइम प्रोग्राम के निदेशक येंस क्रुगर कहते हैं, "एक आपात स्थिति आ गयी है. समुद्री जलस्तर में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन जैसे खतरे हमारे द्वीपों को तबाह कर सकते हैं.” क्रुगर के मुताबिक प्रशांत देशों का मानना है कि संयुक्त राष्ट्र के नियमों के आधार पर एकबारगी द्वीपों और आर्थिक क्षेत्रों के नक्शे तैयार हो गए तो उसके बाद उन्हें समुद्री जलस्तर में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के नाम पर "चुनौती नहीं दी जा सकती या घटाया नहीं जा सकता है.”
समुद्री कानूनों पर आपसी सहमति की 1982 की संयुक्त राष्ट्र संधि के मुताबिक अपने तटों से 200 समुद्री मील दूर तक चिन्हित आर्थिक क्षेत्रों पर उन्हीं देशों का हक होगा. लेकिन धरती का तापमान बढ़ने से अंटार्कटिका और ग्रीनलैंड की बर्फ पिघल रही है और ये समुद्रों का जलस्तर बढ़ा रही है. तो इसके डर से लोग निचले द्वीपों को छोड़ देने पर विवश हो सकते हैं. इस वजह से, संयुक्त राष्ट्र की शब्दावली में वे "रॉक्स” यानी "चट्टानों” के दोयम दर्जे में खिसक जाएंगी. यूएन संधि कहती है कि मनुष्यों की रिहाइश या उनकी आर्थिक जिंदगी को चलाए रखने में असमर्थ चट्टानें किसी सूरत में विशिष्ट आर्थिक जोन नहीं कहला सकतीं.
भविष्य केंद्रित विकास
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल, आईपीसीसी ने आगाह किया है कि इस सदी में समुद्रों का जलस्तर एक मीटर तक ऊंचा हो सकता है. वैश्विक तापमान जितना घटेगा बढ़ेगा उस आधार पर ये स्तर भी ऊपर नीचे हो सकता है. प्रशांत देशों को चिंता है कि तूफानों की आमद, बाढ़, तटीय धंसाव और समुद्रों से नमकीन पानी का रिसाव उनकी जमीनों को पहले ही नुकसान पहुंचा रहा है, उनके घर और खेत और दूसरी बहुत सी संपत्तियां नष्ट हो रही हैं.
ये भी बात है कि दुनिया में कई देशों से उनके बहुत अहम आर्थिक हित भी जुड़े हैं. खासतौर पर उन लाइसेंसों को ही लें जो वे जापान, दक्षिण कोरिया और अमेरिका के जहाजों को टूना मछली पकड़ने के लिए जारी करते हैं. स्वीडन की वर्ल्ड मैरीटाइम यूनिवर्सिटी के ग्लोबल ओशन इन्स्टीट्यूट में शोध प्रमुख क्लाइव शोफील्ड कहते हैं कि "विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र, प्रशांत महासागर के छोटे द्वीप देशों और वहां के बड़े देशों के लिए खासतौर पर बहुत महत्त्वपूर्ण हैं.”
क्लाइव शोफील्ड कहते हैं कि "इस विचार का समर्थन बढ़ रहा है कि ये राज्य जो जलवायु परिवर्तन के लिए जरा भी जिम्मेदार नहीं हैं, उन्हें इस तरह दंडित न किया जाए.” उनके मुताबिक "हम समुद्री संसाधनों पर अधिकारों की बात कर रहे हैं जो उनके भविष्य का आधार हैं." द वेस्टर्न और सेंट्रल पैसिफिक फिशरीज कमीशन ने कहा है कि 2019 में इस क्षेत्र में करीब तीस लाख टन टूना मछली पकड़ी गयी, जिसकी कीमत थी करीब छह अरब डॉलर यानी टूना के विश्व व्यापार का 55 प्रतिशत हिस्सा तो यहीं से बनता है.
डर ये है कि अगर द्वीप गायब हो गए तो विदेशी जहाज टूना के भंडार को झपटने पर आमादा हो सकते हैं. वे दलील दे सकते हैं कि उक्त जलक्षेत्र किसी तटीय देश या द्वीप देश का विशेष आर्थिक क्षेत्र नहीं है, बल्कि सबके लिए खुला है. संयुक्त राष्ट्र के एक डाटा के मुताबिक फिजी, किरिबाती, टोंगा और तुवालु समेत 10 प्रशांत सागरीय द्वीप देशों की करीब 20 लाख की आबादी 62 हजार वर्ग किलोमीटर यानी अमेरिका के फ्लोरिडा राज्य जितने आकार वाले भूभाग में बसर करती है.
संयुक्त राष्ट्र संधि पर उठती बहस
उनका मिलाजुला आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) चार करोड़ वर्ग किलोमीटर का है. जो चंद्रमा की तीन करोड़ 80 लाख वर्ग किलोमीटर की सतह से बड़ा है या समूचे अफ्रीका महाद्वीप के तीन करोड़ वर्ग किलोमीटर क्षेत्र से बड़ा है. बहुत से विधि विशेषज्ञ संयुक्त राष्ट्र संधि की समीक्षा के विचार को खारिज करते हैं. उसे तैयार करने में दशकों लग गए लेकिन औपचारिक रूप से अभी अमेरिका ने उसकी पुष्टि नहीं की है.
सिडनी यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर और उसके मैरीन स्टडीज इंस्टीट्यूट में निदेशक इलाइन बेकर कहती हैं, "इस संधि को बदलना दुःस्वप्न की तरह होगा.” वो कहती हैं कि एक ज्वालामुखी के फटने से कोई द्वीप उभर आए तो उस अतिरिक्त जमीन पर दावों की होड़ लग जाती है, लेकिन ऐसे उदाहरण नहीं मिलते कि द्वीप गायब हुए तो उनके स्वामित्व वाले देशों को समुद्री सीमाओं से भी हाथ धोना पड़ेगा. बेकर नॉर्वे स्थिति ग्रिड-आरेन्डल पर्यावरण संचार समूह के लिए भी काम करती हैं. वो कहती हैं, "लोग जमीन के प्रकट हो जाने का तो जश्न मना लेते हैं लेकिन उसके गायब हो जाने का नहीं.”
द पैसिफिक कम्युनिटी का कहना है कि किरिबाती, द मार्शल आईलैंड्स, नियुई, समोआ, तुवालु, ऑस्ट्रेलिया और दूसरे देशों ने या तो वे कानून बदल दिए हैं या उन्हें बदलने की प्रक्रिया में हैं जो उन्हें पारम्परिक समुद्री नक्शों के बजाय अपने विशिष्ट आर्थिक क्षेत्रों को परिभाषित करने वाले भौगोलिक कॉर्डिनेटों का इस्तेमाल करने की इजाजत देते हैं. द जॉर्ज वाशिंगटन यूनिवर्सिटी लॉ स्कूल में प्रोफेसर डेविड फ्रीस्टोन कहते हैं कि प्रशांत देश अगर औपचारिक रूप से अपने आर्थिक क्षेत्र तय कर लें लेकिन भविष्य में नौपरिवहन के लिए अपने नक्शों को अपडेट करने में नाकाम रह जाएं तो समस्या आ सकती है. पुराने पड़ चुके नक्शों की वजह से जहाज रास्ता भटक सकते हैं.
डेविड फ्रीस्टोन कहते हैं, "अमेरिका जैसे विस्तृत समुद्री हितों वाले अन्य देश कहते है कि अगर प्रशांत देश अपने नक्शों को अपडेट नहीं करेंगे तो ये समुद्र में जोखिम मोल लेने जैसा होगा.” प्रशांत द्वीप देशों की सरकारें एक दूसरे की मौजूदा समुद्री सीमाओं को मान्यता देने पर सहमत हैं, लेकिन इतना शायद काफी न हो. फ्रीस्टोन के अनुसार, "उन्हें आपस में एक दूसरे की मान्यता नहीं चाहिए, उन्हें बाकी सारे लोगों की मान्यता चाहिए.” वो कहते हैं कि, अगर द्वीप गायब हुए तो "जापान और चीन कह सकते हैं, 'ये तो अब विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र नहीं रहा'," और ऐसा बोलकर उस जलक्षेत्र में मछली पकड़ना या वहां खनन शुरू कर सकते हैं."
समुद्री सीमाओं को लेकर दावा
दुनिया भर के विद्वानों को जोड़ने वाले द इंटरनेशनल लॉ एसोसिएशन ने इन असहाय द्वीपों का समर्थन किया है. 2018 में उसने ये प्रस्ताव पास किया कि "समुद्र का जलस्तर बढ़कर तटीय रेखा की भौगौलिक स्थिति को भले बदल दे लेकिन संयुक्त राष्ट्र की संधि के दायरे में आने वाले किसी भी समुद्री क्षेत्र को दोबारा मापने की जरूरत नहीं होनी चाहिए.” उदाहरण के लिए माइक्रोनेशिया ने संयुक्त राष्ट्र में अपने विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र के बाहरी विस्तार का ब्यौरा देते हुए सैकड़ों पृष्ठ वाला दस्तावेज जमा कराया है. ताकि उसके जरिए विदेशी बेड़ों के साथ विवाद की स्थिति में जोन का मालिकाना हक स्थापित किया जा सके.
माइक्रोनेशिया ने संयुक्त राष्ट्र को पिछले साल भेजे एक पत्र में लिखा था कि "जलवायु परिवर्तन से होने वाली जलस्तर वृद्धि की आशंका के बावजूद वो अपनी समुद्री सीमाओं का प्रबंध करते रहना चाहता है.” तुवालु के विदेश मंत्री साइमन कोफे ने पिछले साल एक सम्मेलन में कहा कि उनका देश, दूसरे देशों के साथ अपने राजनयिक संबंधों के मद्देनजर इस बात पर जोर देता है कि वे उनके "देश के राज्यत्व को स्थायी माने और समुद्री जलस्तर में उभार का प्रभाव हो या न हो, उसकी मौजूदा समुद्री सीमाओं को सुदृढ़ और स्थापित माने.”
प्रशांत के छोटे द्वीप देश समुद्री सीमाओं के निर्धारण के जरिए उन्हें महफूज करने की शुरुआत बेशक कर रहे हैं लेकिन समुद्रों का जलस्तर पूरी दुनिया में उलटपलट मचाने मे सक्षम है यानी एक छोर पर बांग्लादेश से दूसरे छोर पर मियामी तक, मौजूदा तटीय रेखाओं को मिटाकर नयी रेखाएं खींच सकता है. आईपीसीसी के मुताबिक करीब 68 करोड़ लोग समुद्र के जलस्तर के दस मीटर के दायरे में रहते हैं. ग्लोबल ओशन इंस्टीट्यूट के शोफील्ड कहते हैं, "ये मुद्दा छोटे विकासशील द्वीप देशों का ही नहीं हैं बल्कि ये विश्व के समस्त तटीय समुदाय का मुद्दा है.”
एसजे/एमजे (थॉमस रॉयटर्स फाउंडेशन)