आर्थिक संकट से निपटता जर्मनी
७ सितम्बर २०१३अंगेला मैर्केल ने इस साल जून में कारोबारियों को संबोधित करते हुए कहा, "उसके लिए धन्यवाद, आप जो हमारे देश के लिए कर रहे हैं. उसके लिए धन्यवाद, जो आप यूरोप के लिए कर रहे हैं." हमेशा की तरह जर्मन उद्योग दिवस के मौके पर मैनेजरों को संबोधित करने के लिए वह मौजूद थीं. आखिरकार इस बात में जर्मन उद्योग की बहुत बड़ी भूमिका है कि आर्थिक और वित्तीय संकट के दौर में जर्मनी की हालत अपेक्षाकृत अच्छी है. संसदीय चुनाव प्रचार के दौरान सरकार और विपक्ष दोनों ही इसका फायदा उठाना चाहते हैं.
जर्मनी के सकल आर्थिक उत्पाद का एक चौथाई हिस्सा उद्योग के खाते में जाता है. जर्मन उद्योग संघ बीडीआई के सदस्य उद्यमों में जर्मनी में 80 लाख लोग काम करते हैं. इसी के अनुरूप आत्मविश्वास से भरे बीडीआई प्रमुख ऊलरिष ग्रिलो अपनी शाखा को जॉब मशीन की संज्ञा देते हैं.
दुनिया भर में मांग
किसी और औद्योगिक देश में जर्मनी की तरह सफल पारिवारिक बिजनेस वाले मंझौले उद्यम नहीं हैं. जर्मनी में मझौले बिजनेस का मतलब ऐसी कंपनियां, जहां अधिकतम 500 लोग काम करते हैं. देश के औद्योगिक उद्यमों में 80 फीसदी पारिवारिक मिल्कियत हैं. इतना ही नहीं, जर्मनी में मोटरगाड़ियों, मशीनों और रसायन जैसी जिन चीजों का उत्पादन होता है, उनकी पूरी दुनिया में मांग है, खास कर तेज प्रगति करते विकासशील देशों में. जर्मन निर्यात का तीन चौथाई हिस्सा प्रोसेसिंग इंडस्ट्री से आता है, जो बहुत आधुनिक है. शोध और विकास पर होने वाले खर्च का 90 फीसदी औद्योगिक उद्यमों में खर्च होता है.
बीडीआई प्रमुख उलरिष ग्रिलो कहते हैं, "जर्मनी आज की जगह पर इसलिए पहुंचा है कि इस देश ने 150 साल पहले ही उद्योग के पक्ष में फैसला किया था. वह जर्मन अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण स्तंभ है और रहेगा." ग्रिलो का मानना है कि उद्योग के कमजोर होने का मतलब है ज्यादा बेरोजगारी और समाज की अस्थिरता. सचमुच जर्मनी में यूरोप की तुलना में उद्योग का क्षेत्र बहुत बड़ा है. और यूरोप में जहां उद्योग नहीं है, वह इलाका भी कमजोर और पिछड़ा है.
लुढ़के लेकिन तेजी से संभले
हाल में जब वित्तीय संकट आया तो जर्मनी में भी अर्थव्यवस्था में पांच फीसदी की गिरावट आई. लेकिन दो साल के अंदर उसे संभाल लिया गया और संकट के पहले की स्थिति हासिल कर ली गई. यह कोई स्वाभाविक बात नहीं थी, क्योंकि शताब्दी के शुरू में जर्मनी को यूरोप का बीमार देश समझा जाता था. 1998 में सोशल डेमोक्रैटिक पार्टी और ग्रीन पार्टी ने सत्ता संभाली और एजेंडा 2010 के नाम से सुधारों की पहल की. श्रम बाजार और सामाजिक सुरक्षा नीतियों में बड़े बदलाव किए गए. 2007 में एसपीडी और सीडीयू-सीएसयू महागठबंधन ने पेंशन की उम्र 65 से बढ़ाकर 67 कर दी. चांसलर मैर्केल कहती हैं, "आज हमारी हालत इसलिए भी अच्छी है कि हमने श्रम बाजार और सामाजिक कल्याण में सुधार किए."
वित्तीय और आर्थिक संकट के बाद जर्मनी में सुधारों में धीमापन आया है. नए सुधार करने के बदले संकट के सालों में ज्यादा ध्यान नुकसान को कम करने पर रहा है. लेकिन उसका फायदा यह हुआ कि जर्मनी को कोई ज्यादा नुकसान नहीं झेलना पड़ा. सरकारी कार्यक्रमों के जरिए अर्थव्यवस्था की मदद की गई और मुश्किल में पड़े उद्यमों को संभलने का मौका दिया गया. सामाजिक मामलों के विशेषज्ञ बैर्ट रूरुप का कहना है, "हमारे देश ने पिछले दस सालों में आर्थिक तौर पर नयापन लाया है."
भविष्य पर निगाहें
विपक्षी एसपीडी के चांसलर उम्मीदवार पेयर श्टाइनब्रुक इस पर जोर देते हैं कि उद्यमों को वित्तीय मदद देने के समय उनकी पार्टी सरकार में थी. स्थानीय निकायों में ढांचागत संरचना को नया करने के लिए निवेश कार्यक्रमों और बेरोजगारी को रोकने के लिए काम के समय घटाने की पहल भी एसपीडी ने ही की. आर्थिक दिक्कतों के कारण उद्यम कामगारों की छंटनी न करें, इसलिए रोजगार दफ्तर 18 महीने तक वित्तीय मदद देता रहा. बाद में जब फिर से ऑर्डर आने लगे तो उद्यमों में फौरन काम शुरू किया जा सका. प्रशिक्षित कामगारों के बिना यह संभव नहीं होता. लेकिन इसका श्रेय लोग चांसलर मैर्केल को ही दे रहे हैं.
लेकिन जर्मनी का भविष्य क्या है? इसका जवाब नजरिए पर निर्भर करता है. 90 के दशक में फौरी मुश्किलों के बारे में पूछे जाने पर उद्यम मजदूरी, टैक्स के बोझ और अफसरशाही का नाम लेते थे. 2013 में सिर्फ अफसरशाही की बात होती है. आज महंगी मजदूरी या टैक्स के बोझ की बात कोई नहीं करता, इसके बदले कुशल कामगारों की कमी और बिजली तथा कच्चे माल की कीमतें मुद्दा हैं. राजनीति के नजरिए से भी यही प्रमुख समस्याएं हैं.
सामाजिक न्याय की मांग
लोगों और मतदाताओं के लिए सामाजिक न्याय अहम मुद्दा है. वेतन और आय की खाई लगातार बढ़ रही है. करदाताओं को वित्तीय संकट के दौरान बैंकों को बचाने के लिए अरबों खर्च करना पड़ा. इसका नतीजा शहरों और गांवों में दिखता है, जहां सड़कें टूट रही हैं और स्कूल की इमारतें खस्ताहाल हैं. काम की जगह पर भी न्याय के मुद्दे पर शिकायतें बढ़ रही हैं. एक सर्वे के अनुसार इस बीच हर चौथा नौकरीशुदा कम आय वालों में शामिल है. उन्हें एक से ज्यादा नौकरी करनी पड़ रही है या सरकारी सहायता लेनी पड़ रही है.
बहुत से लोगों का मानना है कि उद्यमों को फुलटाइम काम के लिए इतना देना चाहिए कि कर्मचारी अपने परिवार का खर्च चला सकें. अर्थव्यवस्था इन चेतावनियों को स्वीकार कर रहा है, लेकिन बीडीआई प्रमुख ग्रिलो का कहना है कि आर्थिक कामयाबी के बिना ज्यादा न्याय संभव नहीं है. इसके लिए नए संरचनात्मक सुधार करने होंगे. वे कहते हैं कि यदि शिक्षा, संरचना और बिजली के नेटवर्क में भारी निवेश नहीं किया जाएगा तो आर्थिक विकास की दर कम होगी. "जर्मनी यूरोप का आदर्श है. और हम ऐसे तभी रह सकते हैं जब हमारे यहां भी सही फैसले किए जाएं."
रिपोर्टः सबीने किंकार्त्स/एमजे
संपादनः अनवर जे अशरफ