असम में 120 साल बाद पहुंचा मंदारिन बत्तख
१६ फ़रवरी २०२१यह बत्तख चीन, जापान, कोरिया और रूस के कुछ हिस्सों में भी पाया जाता है. फिलहाल विशेषज्ञ पता लगा रहे हैं कि यह पक्षी इतने लंबे अंतराल के बाद कैसे और क्यों असम तक पहुंचा है. असम ही नहीं बल्कि मुंबई, कोलकाता, दिल्ली और पुणे जैसे दूरदराज के इलाकों से भी पक्षी प्रेमी इस बत्तख को देखने के लिए बीते एक सप्ताह के दौरान तिनसुकिया जिले का दौरा कर चुके हैं. इलाके में सर्वेक्षण करने वाली वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया की एक टीम भी इस बत्तख को देख चुकी है.
ऊपरी असम के तिनसुकिया जिले में स्थित डिब्रू-साईखोवा नेशनल पार्क के भीतर मागुरी झील में बीते एक सप्ताह से इस दुर्लभ व सुंदर बत्तख को देखने के लिए भारी भीड़ उमड़ रही है. स्थानीय लोगों ने इसे जीवन में पहली बार देखा है. जिले के एक टूर गाइड और पक्षी प्रेमी माधव गोगोई ने इसे पहली बार देखा था. गोगोई बताते हैं, "मैंने इसे पहली बार आठ फरवरी को देखा था. इसे देख कर मैं हैरत में रह गया. इस पक्षी को आखिरी बार 1902 में यहां देखा गया था.” उनका कहना है कि यह बत्तख पूर्वी एशिया में पाए जाते हैं. 18वीं सदी में इनको इंग्लैंड भी ले जाया गया था. पहले चीन बड़े पैमाने पर इस पक्षी का निर्यात करता था. लेकिन 1975 में इसके निर्यात पर पाबंदी लगा दी गई थी. वैसे, 1918 में इन बत्तखों को न्यूयॉर्क के सेंट्रल पार्क में भी देखा जा चुका है. उस समय स्थानीय लोगों और पक्षी प्रेमियों को काफी हैरत हुई थी.
विशेषज्ञ फिलहाल पता लगा रहे हैं कि इतने लंबे अरसे के बाद इस पक्षी ने आखिर असम का रुख कैसे किया है. माधव गोगोई कहते हैं, "भारत आम तौर पर बत्तखों की आवाजाही के मार्ग में नहीं पड़ता. इससे एक संभावना बनती है कि शायद यह पक्षी रास्ता भटक कर असम पहुंच गया हो. हालांकि दुर्लभ होने के बावजूद इसको विलुप्तप्राय प्रजाति का जीव नहीं माना जाता.”
तिनसुकिया जिले के एक अन्य पक्षी प्रेमी बी. हाथीबूड़ो बताते हैं, "माधव ने जब इस पक्षी को देखने का दावा किया तो पहले मुझे उसकी बात पर भरोसा नहीं हुआ था. लेकिन जब मैंने अपनी आंखों से उसे देखा तो मुझे भी हैरत हुई. इनको 1902 के बाद यहां नहीं देखा गया था.” वह बताते हैं कि यह बत्तख बेहद सुंदर होते हैं. खासकर नर बत्तख को तो उसकी सुंदरता के चलते दूर से ही पहचाना जा सकता है. नर बत्तख मादा की तुलना में अधिक रंगीन होते हैं.
गोगोई बताते हैं, "आवाजाही के रास्ते में नहीं होने की वजह से यह पक्षी भारत में बहुत कम नजर आते हैं. इसे आखिरी बार तिनसुकिया जिले में रांगागोरा इलाके में डिब्रू नदी के तय पर देखा गया था. इसके बाद 2013 में इनको मणिपुर की लोकटक झील के अलावा कुछ और इलाकों में भी देखा गया था.” पक्षी विज्ञानी और वन विभाग के पूर्व संयुक्त सचिव डॉ. अइनवरुद्दीन चौधरी कहते हैं, "यह विलुप्तप्राय प्रजाति का जीव नहीं है. लेकिन इसका पाया जाना महत्वपूर्ण है. इसकी वजह यह है कि आम तौर पर यह इस इलाके में देखने को नहीं मिलता. अब यह बताना मुश्किल है कि इसके बाद यह बत्तख दोबारा कब आएगा." चौधुरी भी मानते हैं कि शायद यह पक्षी रास्ता भटक कर यहां आ गया है. उनका कहना है कि पक्षियों का रास्ता भटकना असामान्य नहीं है. शायद यह मंदारिन बत्तख अपने झुंड से बिछड़ कर यहां पहुंचा है.
नेशनल पार्क से सटा मागुरी मोटापांग वेटलैंड का पूरा पारिस्थितिकी तंत्र इस लिहाज से काफी अहम है. यहां पक्षियों की तीन सौ से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं. इनमें कई दुर्लभ और विलुप्तप्राय प्रजाति के पक्षी भी शामिल हैं. बीते साल मई में ऑयल इंडिया के तेल के एक कुंए में लगी आग की वजह से इस इलाके को भारी नुकसान पहुंचा था. इससे कई किस्म की मछलियों, सांप और गंगा में पाई जाने वाली डॉल्फिन मछलियों की मौत हो गई थी. गोगोई बताते हैं, "बीते साल की आग के बाद इलाके में आने वाली कई दौर की बाढ़ ने जमीन पर पसरे तेल को काफी हद तक साफ कर दिया है. पहले सितंबर से प्रवासी पक्षियों के आने का सिलसिला शुरू हो जाता था. लेकिन आग और उसकी वजह से हुए नुकसान के कारण बीते साल नवंबर के आखिर में कई पक्षी इलाके में आए थे. इस बत्तख का आना एक सकारात्मक संकेत है."
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