एनआरसी पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले से जगी उम्मीद
२० सितम्बर २०१८अदालत ने इन 40 लाख व्यक्तियों के दावे और आपत्तियां स्वीकार करने का काम शुरू करने का आदेश दिया है. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक यह प्रक्रिया 25 सितंबर से शुरू होकर 60 दिनों तक चलेगी. इसके तहत अपनी नागरिकता साबित करने के लिए लोग पहले सूचीबद्ध 15 में से 10 दस्तावेजों को दिखा सकते हैं.
अदालत ने एनआरसी के संयोजक पर मसौदे से संबंधित जानकारियां केंद्र से साझा करने पर भी फिलहाल रोक लगा दी है. इस मामले की अगली सुनवाई 23 अक्तूबर को होगी. ध्यान रहे कि एनआरसी के अंतिम मसौदे की विश्वसनीयता को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं. इनमें दशकों से असम में रहने वाले लाखों हिंदीभाषी लोगों के नाम भी शामिल नहीं हैं.
क्या है ताजा फैसला?
सुप्रीम कोर्ट के जज रंजन गोगोई और न्यामूर्ति आरएफ नरीमन की एक खंडपीठ ने बुधवार को इस मामले की सुनवाई के बाद एनआरसी के अंतिम मसौदे से बाहर रखे गए 40 लाख लोगों के दावों और आपत्तियों की प्रक्रिया 25 सितंबर से शुरू करने का निर्देश दिया. अदालत ने कहा है कि एनआरसी मुद्दे की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए उन लोगों को दूसरा मौका देना जरूरी है जिनके नाम इसके मसौदे से बाहर हैं.
इससे पहले पांच सितंबर को इस मामले की सुनवाई के दौरान अदालत ने एनआरसी के संयोजक प्रतीक हाजेला से पूरी कवायद पर विस्तृत गोपनीय रिपोर्ट मांगी थी. केंद्र व राज्य सरकारों की दलील थी कि नागरिकता साबित करने के लिए 15 में से किसी एक दस्तावेज को दाखिल करने की अनुमति दी जानी चाहिए. लेकिन खंडपीठ ने इनमें से पांच दस्तावेजों पर यह कहते हुए रोक लगा दी थी कि इनकी पुष्टि में दिक्कत है. हालांकि बाकी दस दस्तावेज समुचित प्राधिकरण की ओर से बनाए गए हैं जिनकी पुष्टि की जा सकती है.
सुनवाई के दौरान एडवोटेकट जनरल केके वेणुगोपाल ने दलील दी कि इन पांच दस्तावेजों को बाहर करने से निरक्षर लोगों की बड़ी आबादी को भारी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा. असम के अतिरिक्त सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता ने भी कहा कि राज्य सरकार अंतिम एनआरसी में एक भी अवैध आप्रवासी का नाम नहीं चाहती. लेकिन साथ ही यह भी नहीं चाहती कि समुचित कागजात के अभाव में किसी वैध नागरिक का नाम इस सूची से बाहर हो जाए.
वेणुगोपाल ने सवाल किया कि आखिर अदालत पांच दस्तावेजों को सूची से बाहर रखने पर जोर क्यों दे रही है. इस पर खंडपीठ ने कहा कि गोपनीय रिपोर्ट में कुछ बातें ऐसी हैं जिनको जनहित में सार्वजनिक करना उचित नहीं होगा. अदालत ने कहा है कि वह 30 दिनों के बाद राज्य की जमीनी स्थिति की समीक्षा के बाद इस सवाल पर फैसला करेगी कि उन पांचों दस्तावेजों को दाखिल करने की अनुमति दी जाए या नहीं.
एनआरसी की कवायद
असम में सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर और उसकी निगरानी में 2015 में एनआरसी को अपडेट करने का काम शुरू हुआ था. दो साल से भी लंबे समय तक चली जटिल कवायद के बाद बीते साल 31 दिसंबर को एनआरसी के मसविदे का प्रारूप प्रकाशित किया गया था, जिसमें 3.29 करोड़ में से 1.90 करोड़ नाम ही शामिल थे.
एनआरसी के तहत 25 मार्च 1971 से पहले बांग्लादेश से यहां आने वाले लोगों को स्थानीय नागरिक माना जा रहा है. देश के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले अवैध आप्रवासियों की पहचान के लिए राज्य में 1951 में पहली बार एनआरसी को अपडेट किया गया था. उसके बाद भी बांग्लादेश से होने वाली घुसपैठ लगातार जारी रही. खासकर 1971 के बाद यहां इतनी भारी तादाद में शरणार्थी पहुंचे की राज्य में आबादी का स्वरूप ही बदलने लगा.
उसी वजह से अखिल असम छात्र संघ (आसू) ने अस्सी के दशक की शुरुआत में असम आंदोलन शुरू किया था. लगभग छह साल तक चले इस आंदोलन के बाद 1985 में असम समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे. उस समझौते में अवैध आप्रवासियों की पहचान के लिए एनआरसी को अपडेट करने का प्रावधान था. लेकिन किसी न किसी वजह से यह मामला लटका रहा.
एनआरसी के संयोजक प्रतीक हाजेला ने जुलाई में अंतिम मसौदा जारी करते हुए कहा था कि एनआरसी के तहत 2 करोड़ 89 लाख 677 लोगों को भारतीय नागरिक पाया गया है. इनके नाम मसविदे में शामिल हैं. उन्होंने कहा था कि जिन लगभग 40 लाख लोगों के नाम इस सूची में शामिल नहीं हैं, उनको भी अपने दावे और आपत्तियां पेश करने का पर्याप्त मौका दिया जाएगा. अब अदालती फैसले ने सूची से बाहर रहे 40 लाख लोगों के मन में उम्मीद की एक नई किरण पैदा कर दी है.
फैसले का स्वागत
असम के विभिन्न राजनीतिक दलों ने एनआरसी के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का तो स्वागत किया है लेकिन साथ ही कहा है कि नागरिकता साबित करने के लिए जरूरी 15 दस्तावेजों की सूची में से पांच के नाम नहीं हटाए जाने चाहिए. फिलहाल शीर्ष अदालत ने जिन 10 दस्तावेजों के सहारे दावे व आपत्तियां जमा करने और नागरिकता साबित करने को मंजूरी दी है, उनमें जमीन से संबंधित दस्तावेज, स्थानीय आवास प्रमाणपत्र, भारतीय जीवन बीमा निगम की पॉलिसी, पासपोर्ट, सरकारी लाइसेंस, केंद्र या राज्य सरकार के उपक्रमों में नौकरी का प्रमाणपत्र, बैंक या पोस्ट ऑफिस के खातों का ब्योरा, समुचित अधिकारियों की ओर से जारी जन्म प्रमाणपत्र, बोर्ड या विश्वविद्यालय की ओर से जारी शैक्षणिक प्रमाणपत्र और न्यायिक या राजस्व अदालतों में किसी मामले की कार्यवाही का ब्योरा शामिल है. लेकिन यह तमाम दस्तावेज 24 मार्च 1971 के पहले के होने चाहिए.
सुप्रीम कोर्ट ने नागरिकता साबित करने के लिए 1951 के एनआरसी, 1971 के पहले की मतदाता सूची, नागरिकता प्रमाणपत्र, शरणार्थी पंजीकरण प्रमाणपत्र और राशनकार्ड जैसे बाकी पांच दस्तावेजों के इस्तेमाल पर फिलहाल रोक लगा दी है. अखिल असम अल्पसंख्यक छात्र संघ (आम्सू) ने उम्मीद जताई है कि अगली सुनवाई में अदालत बाकी पांच दस्तावेजों के इस्तेमाल की भी अनुमति दे देगी. आम्सू के अध्यक्ष अजीजुर रहमान कहते हैं, "हमें अदालत और न्याय प्रक्रिया पर पूरा भरोसा है. उम्मीद है कि अगली सुनवाई में दावों व आपत्तियों के लिए बाकी पांच दस्तावेजों के इस्तेमाल की भी अनुमति मिल जाएगी."
राज्य में सत्तारूढ़ बीजेपी और विपक्षी कांग्रेस ने भी इन पांचों दस्तावेजों के इस्तेमाल की अनुमति देने का समर्थन किया है. बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष रंजीत दास कहते हैं, "लाखों लोगों ने इन दस्तावेजों के जरिए एनआरसी में अपने नाम शामिल करने का आवेदन दिया है. उम्मीद है कि इनके इस्तेमाल की अनुमति मिल जाएगी." दास का सवाल है कि जब पहले इन दस्तावेजों को स्वीकार किया गया था, तो बाद में अचानक इन पर रोक क्यों लगा दी गई.
विधानसभा में कांग्रेस विधायक दल के नेता देबब्रत सैकिया कहते हैं, "एनआरसी के लिए पहले योग्यता के जो मानक तय किए गए थे, उनमें 1951 की एनआरसी और 1971 से पहले की मतदाता सूची को भी जरूरी दस्तावेजों की सूची में शामिल किया गया था. उम्मीद है कि इनके इस्तेमाल पर लगी रोक स्थायी नहीं होगी."
बावजूद इसके एनआरसी से बाहर रहे लोगों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से काफी प्रसन्नता है. सिलचर में तीन पीढ़ियों से रहने वाले पवन चंद्र दास कहते हैं, "हमें इस बात की खुशी है कि अदालत ने हमारी दिक्कत को समझा है. उम्मीद है कि अब हमारे परिवार के तमाम लोगों के नाम भी एनआरसी में शामिल हो जाएंगे."