किरण नागरकर: पूरी दुनिया को मैर्केल की जरूरत
२१ सितम्बर २०१७चूंकि जर्मनी के आम चुनाव सामने हैं, ये समझना मुफीद होगा कि भारतीयों की कई पीढ़ियों के लिए जर्मनी के क्या मायने रहे हैं. जर्मनी का मतलब है क्वालिटी. ऐसा फोल्क्सवागेन के डीजल स्कैंडल और दूसरे जर्मन कार निर्माताओं के भी इस छलावे में शामिल होने की खबरों के बावजूद है.
कुछ महीने पहले जब भारतीय प्रधानमंत्री गले लगाने के ट्रांस कॉन्टिनेंटल दौरे पर थे, तब उनसे मिलीं चांसलर अंगेला मैर्केल भी हमारे टीवी चैनलों पर खबरों में थीं. लेकिन भारतवासियों से आने वाले जर्मन चुनावों के बारे में पूछिए तो 99.99 फीसदी भारतीय हतप्रभ दिखेंगे.
मैर्केल एक जीती जागती विरोधाभास हैं. चांसलर के पूरे कार्यकाल में वे स्थिरता और समझदारी की समर्थक रही हैं. उनके कार्यकाल की सबसे बेहतरीन घड़ी वह थी, जब उन्होंने तय किया कि जर्मनी लाखों शरणार्थियों को देश में पनाह देगा. (अफसोस कि इससे धुर दक्षिणपंथी एएफडी को अपना भाग्य फिर से चमकाने और सत्तारूढ़ गठबंधन को खतरे में डालने में मदद मिली.) लेकिन हममें से बहुत से लोगों को, जो उनकी सियासी सूझबूझ, अत्यंत जटिल समस्याओं का सामना करने की उनकी क्षमता और उनकी सोची समझी प्रतिक्रिया के कायल हैं, ग्रीस के आर्थिक संकट में उनकी कठोरता से निराशा हुई.
राजकोषीय अनुशासन बेशक जरूरी है, लेकिन ग्रीस, इटली, स्पेन और पुर्तगाल में जो लोग सबसे ज्यादा तकलीफ झेल रहे हैं, वे आर्थिक संकट पैदा करने वाले स्थानीय भ्रष्ट लोग नहीं बल्कि गरीब और मध्यवर्गीय लोग थे. याद कीजिए कैसे अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने साबित किया था कि खाई में गिरी अर्थव्यवस्था को भी धन लगाकर देखभाल और मॉनिटरिंग के जरिये पुनर्जीवित किया जा सकता है.
एक ओर मैर्केल की सरकार का परमाणु बिजलीघरों को बंद करने का फैसला असाधारण और पर्यावरण सम्मत था, तो वहीं जर्मनी का कोयले के इस्तेमाल को जारी रखना और उसका निर्यात भी करना खनिज ईंधन के लिहाज से विनाशकारी है.
चुने जाने पर अंगेला मैर्केल को कुछ बहुत मुश्किल समस्याओं के हल में मदद करनी होगी. पोलैंड, हंगरी और पूर्वी यूरोप के कुछ दूसरे देश भूल गये हैं कि यूरोपीय संघ ने सदस्य बनने के बाद से उनके खजानों में कितने करोड़ डाले गये हैं. अब वे न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खत्म कर रहे हैं और अत्यंत पीछे की ओर ले जाने वाले राष्ट्रवादी अजेंडा को गले लगा रहे हैं. जर्मन-तुर्की रिश्तों का भविष्य बहुत बड़ा सरदर्द है. मैर्केल को फ्रांस के राष्ट्रपति माक्रों और दूसरों के साथ मिलकर एक तथ्य पर ध्यान देना होगा जिस पर शायद ही कभी बात की जाती है.
यूरोपीय संघ की सबसे बड़ी ताकत और प्रामाणिकता ये है कि वह अमेरिका का संतुलन है, वैसा संतुलन नहीं जैसा सोवियत संघ था, बल्कि समझदारी, मानवीयता, आर्थिक आत्मनिर्भरता, गरीबों और वंचितों को मदद और सम्मान देने वाले और उन सब आदर्शों के गढ़ के रूप में, जिसे दुनिया भर के बुद्धिजीवी संजोना और जीना चाहते हैं.
फिलहाल तो जर्मनी के चुनावी नतीजे लगभग तय लग रहे हैं. ज्यादा संभावना है कि मैर्केल और उनकी क्रिश्चियन डेमोक्रैटिक पार्टी देश का नेतृत्व करती रहेगी. नियम के अनुसार मैं उस सियासी समझ का हमेशा समर्थन करूंगा जो बताती है:
1. लोकतंत्र को मजबूत और साफ बोलने वाला विपक्ष चाहिए ताकि वह सत्ता पक्ष को व्यस्त रख सके और उनके वादों को अमली जामा पहनाने के लिए दबाव डाल सके.
और 2. निर्वाचित सरकार प्रमुख कितना भी अच्छा और लोकप्रिय क्यों न हो, उसे दो कार्यकालों के बाद कुर्सी छोड़ देनी चाहिए क्योंकि लोकतंत्र को नये विचारों, जीवंत राजनीतिक संस्कृति और विकल्पों की जरूरत होती है. जरा सोचिए, यदि चुनी जाती हैं तो ये चांसलर मैर्केल का चौथा कार्यकाल होगा. हम सबको थोड़ा रुककर सोचना चाहिए.
लेकिन जरा मौजूदा विश्व परिदृश्य को देखिए: एक बावला अहंकारी बड़बोला दुनिया की एकमात्र महाशक्ति अमेरिका पर राज कर रहा है, ब्रेक्जिट का फैसला कर चुका ब्रिटेन, जो बता नहीं सकता कि उसका हित क्या है, ईयू के कई पूर्वी देश जो अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को त्यागने के लिए तैयार हैं, और मेरा अपना देश भारत, जो खास हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद पर फिदा है. निश्चित तौर पर आपको मेरा झुकाव पता चल गया है.
तो फिलहाल मैं अपने शब्दों पर लगाम लगाऊंगा और चाहूंगा कि सिर्फ जर्मनी ही नहीं पूरी दुनिया मैर्केल को अपना चांसलर चुनेगी.
किरण नागरकर आधुनिक काल के प्रमुख भारतीय लेखकों में शामिल हैं. 2012 में उन्हें जर्मनी के सबसे बड़े नागरिक सम्मान फेडरल क्रॉस ऑफ मेरिट (बुंडेसफर्डिंस्टक्रॉयत्स) से सम्मानित किया गया.