कैसे सुलझेगा विकास और मानवाधिकार का गणित
१ अप्रैल २०२०विकास और मानव अस्तित्व की रक्षा का सवाल भारत में विरोधाभासी रहा है. इस मुद्दे पर अक्सर आंदोलन भी होते रहे हैं और लोगों की राय बंटी रही है. अब विकास और व्यापारिक गतिविधियों को पारदर्शी, टिकाऊ, जवाबदेह और मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील बनाने की दिशा में राष्ट्रीय कार्ययोजना पर काम अपने अंतिम चरण में है. हालांकि ये काम अकेले कॉरपोरेट मिनिस्ट्री के जिम्मे क्यों हैं, ये भी विरोधाभासी ही लगता है. बहरहाल, नेशनल एक्शन प्लैन ऑन बिजनेस ऐंड ह्युमन राइट्स का जीरो ड्राफ्ट सरकार के नुमायंदो और विशेषज्ञों के बीच चर्चा के लिए रखा गया है. व्यापारिक प्रतिष्ठानों के प्रतिनिधियों के अलावा मानवाधिकार, वन अधिकार और सिविल सोसायटी के नुमायंदे भी इसमें शामिल हैं.
जून 2011 में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद् ने व्यापार और मानवाधिकारों पर नीति निर्देशक सिद्धांत पारित किए थे. उन्हें स्वीकार करने वालों में भारत भी है. ये सिद्धांत तीन प्रमुख स्तंभों पर टिके हैं, सुरक्षा देने का राज्य का कर्तव्य, सम्मान की कॉरपोरेट जिम्मेदारी, और उपचार की उपलब्धता. नेशनल एक्शन प्लान (नैप) का काम है कि इन सिद्धांतों को अमल में लाकर इनसे जुड़ी कमियों और सुराखों को भरने के तरीकों के बारे में बताना. व्यापार और मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र के वर्किग ग्रुप ने एक निर्देशिका भी तैयार की है. नैप के लिए चार मापदंड निर्धारित किए गए हैं: उसे संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्वीकृत निर्देशों पर आधारित होना चाहिए, उसका संदर्भ विशेष स्पष्ट होना चाहिए कि वो देश के वास्तविक और संभावित व्यापारिक गतिविधियों से जुड़े मानवाधिकारों के हनन को देख सके, उसका समावेशी और पारदर्शी गठन होना चाहिए और उससे जुड़ी प्रक्रियाओं की नियमित समीक्षा होती रहनी चाहिए.
व्यापार और विकास में सामंजस्य की कोशिश
वर्षों की कवायद के बाद, भारत अपने यहां नैप के अंतिम ड्राफ्ट तक पहुंचा है. पूछा जा सकता है कि विकास परियोजनाओं से प्रभावित होने वाले लोगों के लिए और उनके मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए कानून पहले से ही हैं तो इस नैप में नया क्या है. संयुक्त राष्ट्र की देखरेख में तय किए गए नैप संरचना का मुख्य आधार यही है कि इसके जरिए सरकारें ऐसी सामंजस्यपूर्ण नीति बना सकती हैं जिसके तहत मानवाधिकारों का हनन किए बिना व्यापारिक गतिविधियों का सुचारू संचालन किया जा सके. नैप की मदद से तमाम स्टेकहोल्डरों के बीच एक मजबूत तालमेल, संवाद और विश्वास भी बना रह सकता है.
अब जबकि जीरो ड्राफ्ट तैयार है तो मानवाधिकारों, भूमि अधिकार आंदोलन से जुड़े संगठनों और पर्यावरणवादियों का कहना है कि जंगल में रहने वाले उन आदिवासियों के अधिकारों को भी आखिरी ड्राफ्ट में जगह मिलनी चाहिए जो खनन और सड़क निर्माण या बांध जैसे उद्योगों से प्रभावित हो रहे हैं. उनका कहना है कि निवेशकों और निगमों को पर्यावरण की हिफाजत और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों का सामना करने के लिए न सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर सहमत होना काफी है बल्कि आगे बढ़कर अपनी जवाबदेही मानते हुए उन्हें इसके लिए उपाय करने चाहिए. सरकार का मानना है कि वो इस दिशा में प्रोएक्टिव है और सीएसआर जैसे कानून इसकी मिसाल हैं. वैधानिक प्रावधान भी इस बारे में किए गए हैं जिनके तहत "जिम्मेदार व्यापारिक आचार के लिए राष्ट्रीय गाइडलाइन” बनाई गई है.
क्या पर्यावरण विरोधी है विकास
ये भी सच्चाई है कि नैप जैसी कोशिशों के समांतर और उससे पहले ही एक ऐसी अर्थव्यवस्था ने आकार ग्रहण कर लिया है जो जंगल और खेत से उनके मूल निवासियों को बेदखल करने पर आमादा जान पड़ती है. इस विकास मॉडल में किसान और आदिवासी के गुणगान की आड़ में जंगल नष्ट हो रहे हैं और खेती सिमट रही है. पलायन और विस्थापन जैसी विकटताओं के बीच कुपोषण, बीमारी और शिक्षा की कमी जैसी विडंबनाएं भी कम नहीं. इधर कोरोना वायरस के हमले ने तो इस पूरे विकास मॉडल को ही चुनौती दे डाली है और कामगारों को और अंधेरों में धकेल दिया है. सामाजिक समस्याओं के अलावा पर्यावरणीय और पारिस्थितकीय क्षति ने जीवन और दूभर किया है.
स्टेट ऑफ इंडिया एन्वायरन्मेंट (एसओई) की रिपोर्ट के मुताबिक 2018 में भारत वैश्विक पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक के तहत 180 देशों में 177वें स्थान पर है. ऊर्जा क्षेत्र को देखें, 2022 तक 175 गीगावॉट की अक्षय ऊर्जा की स्थापना का लक्ष्य सुस्ती का शिकार है. वन क्षेत्र में यूं तो करीब 0.2 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई है लेकिन ये वृद्धि दरअसल खुले जंगल की है जिसमें व्यावसायिक वृक्षारोपण शामिल है. सघन वन का दायरा सिकुड़ रहा है. निर्माण कार्यों के लिए जंगल काटने का सिलसिला बढ़ा है. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की आपत्तियों और फटकार के बावजूद ऐसे निर्माण जारी हैं. हाल का उदाहरण उत्तराखंड की चार धाम ऑल वेदर रोड परियोजना है. जलवायु परिवर्तन को लेकर विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2050 तक भारत को अपने सकल घरेलू उत्पाद, जीडीपी का करीब तीन फीसदी गंवाना पड़ सकता है.
कथनी और करनी में फर्क
नैप के ड्राफ्ट में भू अधिकारों का विशेष रूप से उल्लेख है. कहा गया है कि किसी औद्योगिक परियोजना के लिए जमीन अधिग्रहीत करने से पहले प्रभावित परिवारों को विश्वास में लिया जाएगा और उनकी शिकायतों और आशंकाओं और मांगों का निराकरण जनसुनवाइयों के जरिए होगा. ये बातें पहले से ही विभिन्न कानूनों में उल्लिखित हैं लेकिन जनसुनवाइयों को लेकर हाल के उदाहरण तसल्ली तो नहीं देते. भारत नेपाल सीमा पर निर्माणाधीन पंचेश्वर बांध परियोजना इसका एक उदाहरण है. टिहरी बांध पुनर्वास आज भी एक विवादास्पद मुद्दा बना हुआ है. अरुणाचल प्रदेश में प्रस्तावित नदी परियोजना विवादों में है और मध्यप्रदेश और ओडीशा के जंगलों में आदिवासियों के आंदोलन, खनन और बड़े पैमाने पर जंगलों की कटाई के बीच जारी ही हैं. उनकी आवाज़ें विकास की धड़धड़ाहटों में दबी रह गई हैं. दक्षिण भारत की प्राकृतिक संपदा के स्रोत पश्चिमी घाट के एक बड़े हिस्से पर निर्माणाधीन परियोजनाएं की मशीनें तैयार हैं. कहीं वन्यजीव संपदा तो कहीं आदिवासी संकट में हैं.
क्या नैप के जरिए ऐसी कोई मानवीय कोशिश की जाएगी कि आदिवासियों के घर न छूटे, पेड़ न कटे और जमीन न डूबे. या अपरिहार्य हालात में पुनर्वास एक कामयाब मरहम की तरह कारगर हो सके? नैप में इन संवेदनशीलताओं को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है. ड्राफ्ट में एनजीटी, सुप्रीम कोर्ट, श्रम अदालतों और विशेष आयोगों की जरूरत भी रेखांकित की गई है लेकिन इन संस्थाओं का सदुपयोग करने वाले विशेषज्ञों, अधिवक्ताओं और मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशील प्रशासनिक अधिकारियों का होना भी उतना ही जरूरी है. नैप को हकहकूक के अलावा और भी बहुत सारे मुद्दों को जगह देनी होगी. एक सुचिंतित मशीनरी उनके निदान के लिए भी बनानी होगी. पलायन, स्वास्थ्य, पोषण, चिकित्सा, बीमा, समान वेतन, पुनर्वास, रिहाइश जलवायु परिवर्तन, बेरोजगारी जैसे बहुत से मुद्दे हैं. जनपक्षधर राष्ट्रीय कार्ययोजना वही कहला सकती है जिसकी प्रक्रिया समावेशी हो.
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