कोरोना: क्या भारत को वैक्सीन की आस में रहना चाहिए?
१९ जून २०२०भारत में अब तक 3.67 लाख मामले सामने आ चुके हैं और भारत अब दुनिया में अमेरिका, ब्राजील और रूस के बाद चौथे नंबर पर है. हालांकि भारत में इस बीमारी से मरने वालों की संख्या यूनाइटेड किंगडम, स्पेन, फ्रांस, इटली और मेक्सिको जैसे कई देशों से कम है. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से राजधानी दिल्ली के अलावा, महाराष्ट्र, गुजरात और तमिलनाडु जैसे राज्यों की हालत सबसे खराब है हालांकि कई राज्यों में टेस्टिंग न होने से मरीजों की सही संख्या पता नहीं लग रही है.
कब मिलेगी कोई दवा या वैक्सीन?
तेजी से बढ़ते संक्रमण के बीच भारत में भी इस बीमारी की दवा या टीके का बेसब्री से इंतजार है. जहां भारत में आयुर्वेदिक उत्पाद बनाने वाली कंपनी पतंजलि ने दावा किया कि उनकी कंपनी ने कोरोना की दवा खोज ली है और वहीं यूनाइटेड किंगडम की ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने डेक्सामेथासोन के रूप में "जीवन रक्षक दवा” मिल जाने का दावा किया. डेक्सामेथाजोन एक सस्ती और प्रभावी दवा है वह लेकिन कोराना का सम्पूर्ण इलाज नहीं है. इसलिए दावों के बावजूद असल राहत अभी दूर है.
सवाल है कि जिस तरह से यह बीमारी फैलती जा रही है उसे देखते हुए क्या दुनिया को किसी दवा या वैक्सीन के सहारे बैठना चाहिए या इसके साथ जीने की सच्चाई को स्वीकार कर लेना चाहिए. यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि संक्रमण रोकने के लिए लगे लॉकडाउन ने तमाम काम धंधे चौपट कर दिए हैं और लाखों लोग बेरोजगार हो गए हैं. एमएसएमई सेक्टर - यानी सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्योग - जो कि इंडस्ट्री की रीढ़ है, उन पर सबसे अधिक चोट लगी है. इस खतरे से उपजी छटपटाहट ही है कि सरकार अब फिल्मी सितारों के जरिए विज्ञापन देकर कह रही है कि लोग काम धंधों पर निकलें.
कहां तक पहुंचा है वैक्सीन का सफर?
इस वक्त पूरी दुनिया में 125 से ज्यादा कोरोना वैक्सीन प्रोजेक्ट चल रहे हैं. किसी भी बीमारी का टीका तैयार करना एक कठिन लम्बी प्रक्रिया है जिसमें 10 से 15 साल तक का वक्त लगता है. जानकार कहते हैं कि किसी भी बीमारी का टीका विकसित करने में शायद ही कभी 5 साल से कम का वक्त लगा हो फिर कोरोना की संक्रामकता तो देखते हुए चिकित्सा विज्ञानी अभी एक तुरत-फुरत सुरक्षित इंतजाम करना चाहते हैं. इस पर इस साल जनवरी से काम चल रहा है और माना जा रहा है कि 12 से 18 महीने के रिकॉर्ड टाइम में इसका टीका बन जाएगा.
तैयार होने के बाद किसी वैक्सीन को परीक्षण के चार महत्वपूर्ण चरणों में कामयाबी हासिल करनी होती है. पहले चरण में टीके का परीक्षण जानवरों पर होता है जिसे प्रीक्लिनिकल स्टेज टेस्टिंग कहा जाता है. दूसरे चरण में कुछ ही इंसानों पर इसके असर को परखा जाता है. उसके बाद तीसरे चरण में सैकड़ों और फिर चौथे चरण में हजारों लोगों पर टीके की जांच होती है. तब जाकर पांचवें चरण में इसे नियमों के हिसाब से अप्रूवल मिलता है.
महत्वपूर्ण है कि अभी केवल दो ही वैक्सीन चौथे चरण तक पहुंच पाए हैं. हालांकि ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने दावा किया है कि इस साल के अंत तक सभी ब्रिटिश नागरिकों को कोरोना का टीका लग जाएगा. इस बीच भारत में भी कोरोना का टीका विकसित करने की कोशिश हो रही है.
क्या टीके के भरोसे बैठे भारत?
कोरोना वायरस का टीका आने से पहले ही अमीर देशों ने करोड़ों डॉलर खर्च कर इसकी एडवांस बुकिंग कर ली है ताकि टीका बने तो पहले उनके देश के नागरिकों को मिले. यह कर पाना गरीब और विकासशील देशों के लिए मुमकिन नहीं है. साफ है कि भारत के लिए टीका विकसित हो जाना टीका मिल जाना नहीं है. दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर इकोनोमिक स्टडीज और प्लानिंग में पढ़ा रहे प्रो विश्वजीत धर कई सालों से इन विषयों पर रिसर्च कर रहे हैं.
विश्व व्यापार संगठन (डब्लूटीओ) की बैठक में भारत सरकार का प्रतिनिधित्व कर चुके प्रोफेसर धर कहते हैं, "सबसे बड़ी बात है कि जो टीका बनेगा उसकी कीमत कितनी होगी और कौन तय करेगा? क्योंकि सोचिए अगर वैक्सीन आ गया और उसकी कीमत दो लाख रुपये है तो वह टीका तो न होने के बराबर ही है. उसका कोई फायदा नहीं होगा. क्या इस दिशा में कोई वैश्विक पहल की जा सकती है जिससे उसकी कीमत को नीचे उतारा जाए? वह अभी नहीं दिख रहा है. जो भी पहल की जा रही है वह डब्ल्यूएचओ की ओर से की जा रही है लेकिन डब्ल्यूएचओ को अमेरिका ने अभी बिल्कुल दरकिनार किया हुआ है."
असल में भारत जैसे विशाल और कम संसाधनों वाले देश के लिए किसी भी बीमारी का टीका उपलब्ध होने और लोगों तक पहुंचने की राह हमेशा लम्बी रही है. मिसाल के तौर पर पोलियो का टीका पहली बार 1955 में बना और भारत में इसका टीकाकरण 1978 में शुरू हुआ और 1999 तक नवजात शिशुओं में इसकी 60% कवरेज हो पायी थी. स्वास्थ्य मंत्रालय को नीतिगत सलाह देने वाले नेशनल हेल्थ सिस्टम रिसोर्स सेंटर के पूर्व कार्यकारी निदेशक डॉ टी सुंदररमन कहते हैं कि टीके का उत्पादन करने की क्षमता तो भारत के पास है लेकिन अगर विदेशी कंपनी वैक्सीन ईजाद करती है तो वह क्या हमें टेक्नोलॉजी ट्रांसफर करेगी? यह भी कहा जा रहा है कि कोरोना की प्रभावी रोकथाम के लिए कम से कम दो-तिहाई आबादी को टीका देना ही पड़ेगा.
"वैक्सीन को बड़े स्केल पर जाना है. वयस्कों को देना है तो भी बड़ी संख्या में टीका चाहिए. फिर उसका वितरण एक बड़ा मुद्दा है. बनाने में तो कई महीने लगेंगे लेकिन लोगों तक पहुंचाने के लिए भी बहुत सारे लोग (हेल्थ वर्कर) और संसाधन चाहिए. उसे झुग्गी-झोपड़ियों तक कैसे ले जायेंगे. हमें कम से कम 60-70% लोगों को तो टीका देना ही होगा. मेरे हिसाब से वैक्सीन बन जाने और अप्रूव हो जाने के भी एक साल बाद भी ये काम हो जाए तो उसे बहुत चमत्कार ही माना जाएगा.” डॉ सुंदर रमन कहते हैं.
उधर डॉक्टर्स विदाउट बार्डर की दक्षिण एशिया प्रमुख और पेटेंट कानूनों की विशेषज्ञ लीना मेंघाने कहती हैं कि भारतीय कंपनियों और रिसर्चर ने कई बार दिखाया है कि वह लाइलाज बीमारियों की दवा और टीके खोजने की क्षमता रखते हैं. "नब्बे के दशक में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कैंसर की दवाओं के जरिए एचआईवी एड्स का इलाज ढूंढा और कुछ ही सालों में मैनेज किया और कुछ ही सालों में भारतीय कंपनियों ने भी इसे विकसित कर लिया. तो ऐसा नहीं है कि भारतीय कंपनियां कमजोर हैं रिसर्च एंड डेवलपमेंट के मामले में. हमारा अनुभव रहा है भारतीय कंपनियां बहुत सक्षम हैं उनके पास तकनीकी क्षमता है और वह इस काम को जानते हैं. हां इतना जरूर है कि उन्हें कभी-कभी इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स और पेटेंट का बैरियर फेस करना पड़ता है." मेंघाने कहती हैं.
स्वास्थ्य से जुड़ा मुद्दा भी है अहम
टीका को लेकर एक अहम मुद्दा स्वास्थ्य सुरक्षा से जुड़ा है. एक्सपर्ट कहते हैं कि जल्दी टीका बनाने के चक्कर में प्रक्रिया से समझौता नहीं किया जाना चाहिए. कोरोना के इलाज के लिए टीका जरूरी है लेकिन किसी भी वैक्सीन के पीछे बड़ी बड़ी कंपनियों का निवेश होता है और मुनाफा कमाने की नीयत भी. पब्लिक हेल्थ पर कई साल से काम कर रही बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. वंदना प्रसाद कहती हैं, "हमने देखा है कि किस तरह डायरिया जैसी बीमारी के टीके भी जबरदस्ती लाए गए जिसके लिए सरकार को साफ पानी जैसी बुनियादी जरूरत उपलब्ध करानी थी न कि टीका चाहिए था. यह दिखाता है कि किस तरह जनता के पैसे का टीके के नाम पर गलत इस्तेमाल भी हो सकता है. लेकिन कोरोना पर हालांकि यह बात लागू नहीं होती. हमें ये टीका चाहिए लेकिन यहां बड़ा मुद्दा है कि वैक्सीन बनाने की प्रक्रिया का सही-सही पालन हो.”
जिस बात की ओर डॉ. प्रसाद संकेत कर रही हैं वह वैक्सीन की अनैतिक टेस्टिंग का मामला है जहां गरीब देशों की जनता गिनी पिग की तरह इस्तेमाल की जाती है. वैक्सीन कई साल बाद भी और बहुत कम संख्या में भी लोगों पर दुष्परिणाम दिखा सकती हैं इसलिए प्रक्रिया में शॉर्टकट खतरनाक हो सकता है. "ऐसी दवाएं जिनके बारे में पहले से पता हो तो बात समझ में आती है लेकिन किसी भी नयी दवा या स्टेरॉइड को आप (इलाज के नाम पर) कम्युनिटी में नहीं फैला सकते. ये बहुत पेचीदा विषय है. बहुत तकनीकी और पॉलिटिकल मामला है. इसमें पैसे का भी बड़ा खेल है लेकिन कुछ चीजें बहुत आसानी से कही जा सकती हैं. बिल्कुल नई वैक्सीन को आप फास्ट ट्रैक नहीं कर सकते." डॉ. वंदना प्रसाद कहती हैं.
साफ है कि जब दूसरे देशों की तरह भारत में भी रिसर्च एजेंसियां और कंपनियां कोरोना का बचाव ढूंढने में लगी हैं तो यह कड़ी वास्तविकता स्वीकार करनी होगी की एक सुरक्षित टीका तुरंत नहीं मिल सकता. इसीलिए विकसित और अमीर देशों के जाने माने विशेषज्ञ भी दुनिया को सिर्फ कोरोना के टीके के भरोसे न रहने की सलाह दे रहे हैं.
__________________________
हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore