1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

चारधाम यात्रा मार्ग पर सुप्रीम कोर्ट की कमेटी में दोराय

हृदयेश जोशी
२१ जुलाई २०२०

उत्तराखंड के बहुचर्चित चारधाम यात्रा मार्ग पर बनी कमेटी के अध्यक्ष पर्यावरणविद रवि चोपड़ा का कहना है कि अब सुप्रीम कोर्ट ही सड़क की चौड़ाई को लेकर आखिरी फैसला करे.

https://p.dw.com/p/3fe9a
Indien Dharmsala Himalaya ohne Luftverschmutzung
तस्वीर: picture-alliance/dpa/AP/A. Bhatia

उत्तराखंड में निर्माणाधीन चारधाम यात्रा मार्ग प्रोजेक्ट की समीक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट की बनाई उच्च स्तरीय कमेटी (हाइ पावर्ड कमेटी - एचपीसी) इस बात को लेकर एक मत नहीं है कि इस यात्रा मार्ग की चौड़ाई कितनी हो. महत्वपूर्ण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर 2016 में इस 900 किलोमीटर लंबे यात्रा मार्ग का शिलान्यास किया था, जो 12,000 करोड़ रुपये की लागत से बन रहा है. पर्यावरण के लिहाज से अति संवेदशील हिमालयी क्षेत्र में होने का कारण लगातार विवादों में रहा है. कई भूविज्ञानी, पर्यावरणविद और वन्य जीव विज्ञानी प्रोजेक्ट के वर्तमान स्वरूप से सहमत नहीं हैं और कह चुके हैं कि यात्रा मार्ग को बनाने के लिए बहुत एहतियात से काम करना होगा.

उच्च स्तरीय कमेटी में क्या है मतभेद?

सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित उच्च स्तरीय कमेटी के अध्यक्ष जाने माने पर्यावरणविद रवि चोपड़ा हैं जिनकी अगुवाई में उच्चतम न्यायालय पहले भी विशेषज्ञ कमेटियां गठित करता रहा है. कमेटी की इस रिपोर्ट के अधिकतर हिस्से में सभी सदस्यों की लगभग एक ही राय है और इस बात को माना गया है कि सड़क के चौड़ीकरण के लिए अब तक हुए काम में पर्यावरण की परवाह नहीं की गई. लेकिन सड़क मार्ग की चौड़ाई कितनी हो, इस पर कमेटी बंट गई.

खुद अध्यक्ष रवि चोपड़ा और कमेटी के तीन विशेषज्ञों ने सड़क को इंडियन रोड कांग्रेस (आईआरसी) द्वारा निर्धारित ‘इंटरमीडिएट' मानक के तहत बनाने की बात कही है. इस मानक के अनुसार सड़क की चौड़ाई 5.5 मीटर हो सकती है, जिसमें पैदल यात्रियों के चलने की व्यवस्था भी होनी चाहिए. दूसरी ओर कमेटी के बाकी सदस्य सड़क मार्ग को ‘डबल-लेन, पेव्ड-शोल्डर' (डीएल-पीएस) मानक के तहत बनाने के पक्ष में हैं, जिसमें सड़क की चौड़ाई 12 मीटर हो जाती है. सारा विवाद इसी अतिरिक्त चौड़ाई को लेकर है क्योंकि पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील हिमालय में सड़क बनाने के लिए कितने पहाड़ और जंगल काटे जाएं, यह शुरू से बहस का विषय रहा है.

कमेटी के सदस्य हेमंत ध्यानी का कहना है, "जिस हिमालयी क्षेत्र में ये सड़क बन रही है, वहां खड़ी पहाड़ियां हैं जिनकी ढलान 60 डिग्री तक है. ऐसे में डीएल-पीएस मानक के तहत 12 मीटर चौड़ी सड़क बनाने का मतलब है कि कुल 24 मीटर तक जगह बनानी पड़ सकती है, जिससे पहाड़ को बहुत गहराई तक काटना पड़ेगा. इससे अधिक जंगलों का कटान होगा, वहीं ढेर सारा मलबा भी निकलेगा जो अक्सर नदी में फेंक दिया जाता है और जो पर्यावरण को अपूर्णीय क्षति करता है. हमने इन्हीं बातों का खयाल रखते हुए सड़क को इंटरमीडियट मानक के तहत बनाने को कहा है, जिसमें पर्याप्त चौड़ाई भी मिलेगी और क्षति भी कम से कम होगी.” 

हिम के बिना कैसा हिमालय?

क्या मिटिगेशन से होगा बचाव? 

अब स्थिति यह है कि कमेटी के चार सदस्य – अध्यक्ष रवि चोपड़ा, भूविज्ञानी नवीन जुयाल, भारतीय वन्य संस्थान के वैज्ञानिक डॉक्टर सत्यकुमार और सामाजिक कार्यकर्ता हेमंत ध्यानी – एक ओर हैं. जबकि सड़क की चौड़ाई पर इस समूह से असहमत ग्रुप में सीमा सड़क संगठन के इंजीनियर आरएस राव, उत्तराखंड सरकार के वरिष्ठ नौकरशाह अरविंद सिंह ह्यांकी और पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारी सर्वेश चंद्र कटियार के अलावा अल्मोड़ा स्थित हिमालयी पर्यावरण और विकास के लिए बने गोविंद पंत संस्थान में पर्यावरण आकलन और जलवायु परिवर्तन विशेषज्ञ जेसी कुनियाल प्रमुख सदस्य हैं. इन सदस्यों के पास बहुमत है जिसने डबल लेन सड़क की सिफारिश की है.

कुनियाल का तर्क है कि चारधाम परियोजना पेशेवर इंजीनियरों द्वारा तय की गई, जिन्होंने तय किया कि सड़क की चौड़ाई कितनी हो. वह कहते हैं कि अपनी ‘मनमर्जी' से सड़क की चौड़ाई को यहां-वहां नहीं बदला जा सकता, "हमें दुर्घटना और इस क्षेत्र में ट्रैफिक के दबाव जैसे विषयों को ध्यान में रखना होगा. इस तरह की योजना 4-5 साल के लिए नहीं, बल्कि 40-50 साल की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं, तभी वह सस्टेनबल हो सकती है.”

सड़क बने या नहीं?

कुनियाल के मुताबिक इतनी बड़ी योजना ‘सिस्टम में दखल' दिए बिना लागू नहीं हो सकती लेकिन ‘वैज्ञानिक इनपुट' इसमें अहम भूमिका निभा सकता है, "हमें यह सोचना चाहिए कि हम क्या मिटिगेटिंग कदम उठा सकते हैं. सवाल सड़क को थोड़ा कम या ज्यादा काटने का नहीं है, बल्कि नुकसान से बचने के लिए सही और पर्याप्त कदम उठाने का है. हम (निर्माण के बाद) वहां उस क्षेत्र में उगने वाले पेड़ लगाकर और सड़क के किनारे खंभे और रेलिंग बना कर कटाव को रोकने की व्यवस्था कर सकते हैं. ऐसी टेक्नॉलोजी उपलब्ध है जिसका प्रयोग होना चाहिए. जिन इलाकों में भी संभव है, वहां पेड़ न काटकर यातायात के लिए सुरंग भी बनाई जा सकती है.”

कुनियाल का कहना है कि कमेटी के अधिकतर सदस्यों को इस बात का एहसास है कि हिमालय टोपोलॉजी के हिसाब से बहुत कमजोर और पर्यावरण के लिहाज से बहुत संवेदनशील है. कुनियाल के मुताबिक "समस्या का हल विरोध करना और प्रोजक्ट में अडंगा खड़ा करना नहीं है, बल्कि यह हमारी वैज्ञानिक सोच और काबिलियत पर निर्भर है कि हम इसमें कैसे काम करते हैं” लेकिन कमेटी के दूसरे सदस्य और भूविज्ञानी नवीन जुयाल कहते हैं कि सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय ने इस संवेदनशील इलाके में सड़क बनाने से पहले भूगर्भशास्त्र के हिसाब से कोई गंभीर अध्ययन या सर्वे नहीं कराया है, "जिस हिमालयी क्षेत्र में यह सड़क बनाई जा रही है, वहां एक समान चौड़ाई की सड़क बनाई ही नहीं जा सकती क्योंकि यहां हर किलोमीटर के बाद चट्टानों का स्वरूप बदल जाता है, ढलानों का स्वरूप बदल जाता है और जंगलों का स्वरूप बदल जाता है. यहां पर जिस तरह पूरे पहाड़ पर डबल लेन सड़क बनाने की सलाह दी गई है, वह कतई बुद्धिमत्तापूर्ण बात नहीं है.”

अहमदाबाद स्थित फिजकल रिसर्च लेबोरेट्री में भूविज्ञानी रह चुके नवीन जुयाल सिर्फ चौड़ी सड़क को अच्छी रोड नहीं मानते. वह कहते हैं कि उत्तराखंड के कई इलाकों में इंटरमीडिएट मानकों की सड़क है लेकिन यातायात में कोई बाधा नहीं आती. जुयाल कहते हैं कि इस पर विचार होना चाहिए कि कम से कम छेड़छाड़ कर कैसे उन इलाकों को ठीक किया जा सकता है, जहां पर यातायात में कोई अवरोध आता है. 

क्या कमेटी को अंधेरे में रखा गया?

सड़क की चौड़ाई कितनी हो इस पर कमेटी में 12 जून को वोटिंग कराई गई थी. बहुमत ने साल 2012 के सर्कुलर में तय डबल लेन के पक्ष में वोट दिया. इसके कुछ दिन बाद सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय का 23 मार्च 2018 को जारी सर्कुलर सामने आ गया जिसके बारे में कमेटी में पहले कभी चर्चा नहीं हुई थी. यह सर्कुलर बड़े पैमाने पर तोड़फोड़ और जंगल कटान से खतरे का हवाला देते हुए कहता है कि पहाड़ी क्षेत्र में इंटरमीडियेट मानक के आधार पर ही सड़क बनाई जाए.

उच्च स्तरीय कमेटी के अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने 19 जून को उत्तराखंड सरकार के सचिव और कमेटी के सभी सदस्यों को ईमेल भेजा और इस सर्कुलर का जिक्र करते हुए लिखा, "यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि 2018 के इस सर्कुलर को मीटिंग के दौरान कभी कमेटी के संज्ञान में नहीं लाया गया. अगर ऐसा किया गया होता तो पर्यावरण के हित में सड़क की चौड़ाई निर्धारित करने के लिए हो रही बहस पर इसका असर पड़ सकता था.”

चोपड़ा ने लिखा है कि मंत्रालय के अधिकारियों और प्रोजेक्ट को लागू करने वाले अधिकारियों ने कमेटी को ठीक से ‘गाइड' नहीं किया. रवि चोपड़ा ने इस ईमेल में डबल लेन के पक्ष में वोट डालने वाले कमेटी सदस्यों से इस सर्कुलर को अपनी राय बदलने को भी कहा. लेकिन रवि चोपड़ा की ईमेल के बाद मंत्रालय की ओर से 24 जून को जारी स्पष्टीकरण में कहा गया है कि चारधाम यात्रामार्ग के काम को 2017 में ही अनुमति मिल गई थी और यात्रामार्ग पर मार्च 2018 का सर्कुलर लागू नहीं होता.

सड़क निर्माण के जानकार एक कमेटी सदस्य ने कहा, "कमेटी में बहुमत स्पष्ट रूप से और डबल लेन रोड के पक्ष में है. जो लोग डबल लेन हाइवे नहीं चाहते उनका रुख ‘अड़ियल और पक्षपातपूर्ण' है. जब हम लेह-लद्दाख और अरुणाचल में इस तरह की सड़क बना सकते हैं, तो फिर उत्तराखंड में क्यों नहीं बना सकते? उन राज्यों में भी (उत्तराखंड की तरह ही) पहाड़ हैं, नदियां हैं, जंगल हैं, लोग रहते हैं.”

इस बीच फाइनल रिपोर्ट में रवि चोपड़ा ने अपने अध्यक्षीय नोट में लिखा है कि "सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार नाज़ुक पहाड़ी रास्तों और सड़क चौड़ीकरण से हिमालयी इकोलॉजी पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव को ध्यान में रखने पर जोर दिया है. हिमालय के पहाड़ी ढलानों को किसी तरह का नुकसान यहां एक स्थायी प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है जिससे बचा जाना चाहिए.” चोपड़ा ने 2018 में जारी मंत्रालय के सर्कुलर का हवाला देते हुए कहा है कि बेहतर होगा कि सुप्रीम कोर्ट ही इस पर आखिरी फैसला करे.   

__________________________

हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore