चीन और अमेरिका की अनबन में ताइवान की शामत
२५ सितम्बर २०२०ताइवान के विदेश मंत्रालय के अनुसार चीनी सेना पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के लड़ाकू विमानों ने पिछले नौ दिनों में 46 बार ताइवान की हवाई सीमा का उल्लंघन किया या उल्लंघन करने की धमकी दी. ताइवान ने इसे उकसाने और धमकाने की इस कार्रवाई बताते हुए दोनों देशों के बीच की सीमा निर्धारित करने वाली मीडियन लाइन का सम्मान करने की मांग की है तो वहीं चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इस रेखा की वैधता पर ही सवाल उठा दिए और कहा कि ऐसी किसी रेखा का कोई महत्व नहीं है क्योंकि ताइवान चीन का अभिन्न हिस्सा है.
चीन की आक्रामक कार्रवाइयों के बीच ताइवान ने 14 से 18 सितंबर के बीच अपने हान कुआंग युद्ध अभ्यास को जारी रखा और पिछले दिनों जमीन से हवा में मार करने वाली और एंटी शिप मिसाइलों के परीक्षण भी किए. अमेरिकी वायुसेना भी ताइवान के समर्थन में तैनात है.
ताइवान को लेकर चीन अमेरिका में अनबन
ताइवान और चीन के उतार-चढ़ाव भरे संबंधों के अलावा ताइवान को लेकर चीन और अमेरिका में हमेशा से ही अनबन रही है. जहां चीन ताइवान को अपना एक हिस्सा मानता है और उसे पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना में मिलाने की इच्छा रखता है तो वहीं अमेरिका ताइवान की स्वतंत्रता को बचाए रखना चाहता है.
ताइवान रिलेशंस एक्ट 1979 के तहत अमेरिका ताइवान (रिपब्लिक ऑफ चाइना) की सुरक्षा का जिम्मेदार है. ताइवान रिलेशंस एक्ट के पहले अमेरिका और ताइवान के बीच चीन-अमेरिका पारस्परिक सुरक्षा संधि अस्तित्व में थी जो मार्च 1955 से दिसंबर 1979 तक प्रभावी रही.
इस संधि के कई पहलुओं को ताइवान रिलेशंस एक्ट में भी शामिल किया गया है. हालांकि अमेरिका चीन की वन चाइना नीति को भी मानता है और यही वजह है कि वह ताइवान को चाह कर भी एक संप्रभु राष्ट्र का दर्जा नहीं दे सकता. पिछले कई दशकों में मोटे तौर पर दोनों देशों में इसे लेकर एक अनौपचारिक सहमति सी भी थी.
लेकिन पिछले कुछ वर्षों में चीन का ताइवान को लेकर रुख सख्त होता जा रहा है. यह स्थिति 2016 से ज्यादा तनावपूर्ण हुई है जब से साई इंग-वेन ताइवान की राष्ट्रपति बनी हैं. साई इंग-वेन और उनकी डेमोक्रैटिक प्रोग्रेसिव पार्टी को विपक्षी कुओमिंगतांग (केएमटी) के मुकाबले स्वायत्ततावादी और दक्षिणपंथी माना जाता है.
साई इंग-वेन के सत्ता में आने के बाद से यह नीति मुखर हो कर सामने भी आई है. जनवरी 2020 में साई इंग-वेन के भारी बहुमत से सत्ता में आने से चीन को तो झटका लगा ही, ताइवान में भी चीन के विरोध में स्वर मुखर हुए. अपने बयानों में साई इंग-वेन ना सिर्फ ताइवान के 70 सालों की गौरवशाली लोकतांत्रिक परंपरा की प्रशंसा करती रही हैं बल्कि वह यह कहने से भी नहीं चूकी हैं कि ताइवान चीन का हिस्सा नहीं है. कुछ ही वर्ष पहले ताइवान में यह बात कहना भी विवाद का विषय बन जाया करता था.
अमेरिका की बदलती ताइवान नीति
और इसमें रही सही कसर ताइवान को अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प के समर्थन ने पूरी कर दी है. अमेरिका के विदेश मंत्रालय के उपसचिव कीथ क्रेच की हाल की ताइवान यात्रा वैसे तो भूतपूर्व राष्ट्रपति ली तेंग-हुई को श्रद्धांजलि देने के लिए हुई थी, लेकिन उसने चीन को और भड़का दिया.
चीन के लिए भड़कने की वजह यह भी थी कि पिछले दो महीने के अंदर कीथ ताइवान की यात्रा करने वाले दूसरे अमेरिकी उच्चस्तरीय अधिकारी हैं. कीथ से पहले अमेरिकी स्वास्थ्य मंत्री एलेक्स अजार ताइवान के दौरे पर गए थे. 1979 में अमेरिका ने ताइवान से वन चाइना नीति के तहत औपचारिक राजनयिक संबंधों को खत्म कर दिया था.
ट्रंप ने चीन के साथ संबंधों में कोई ढील न देने की अपनी नीति को कायम रखा है और आगामी चुनावों के मद्देनजर इसको एजेंडे के तौर पर भुनाने की कोशिश भी कर रहे हैं. कहीं न कहीं ट्रंप की चीन संबंधी नीतियों ने डेमोक्रेट प्रत्याशी जो बाइडन पर दबाव भी बनाया है. सूत्रों की मानें तो चीन से आर्थिक डी-कपलिंग के बीच ताइवान के साथ व्यापार समझौते की बातें भी चल रही हैं. चुनाव से पहले ट्रंप अगर ऐसे किसी समझौते को अंजाम दे दें तो आश्चर्य की बात नहीं होगी.
चीन की आंखों में चुभता ताइवान
ताइवान के खिलाफ चीन की धमकी भरी कार्रवाइयों के पीछे उसका यह अहसास जरूर है कि साई इंग-वेन के नेतृत्व में ताइवान दुनिया का ध्यान अपनी ओर खींच रहा है. चीन के उलट कोविड महामारी से लड़ने में भी ताइवान ने पारदर्शिता, सूझबूझ, और स्वास्थ्य संबंधी नियमों का पालन करते हुए ना सिर्फ ताइवान के नागरिकों और वहां बसे दूसरे लोगों को कोविड के दुश्चक्र से छुड़ा लिया है बल्कि जरूरतमंद देशों की मदद भी की है. इसी हफ्ते जब इसी बात की चर्चा हैती और नाउरु जैसे देशों ने संयुक्त राष्ट्र में की तो चीन का बिफरना स्वाभाविक ही था. इन दोनों देशों के प्रतिनिधियों ने ताइवान को एक संप्रभु राष्ट्र का दर्जा देने की भी मांग संयुक्त राष्ट्र से की.
ताइवान अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते तनाव की चपेट में आ गया है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि चीन अपनी धमकियों को लेकर गंभीर है तो वहीं ताइवान भी अपनी सैन्य तैयारियों को लेकर सजग है. हालांकि अमेरिका के सैन्य सहयोग के बिना ताइवान के लिए अपनी सुरक्षा और संप्रभुता को बचाना कठिन है.
यह देखना दिलचस्प होगा कि अमेरिका ताइवान के समर्थन में किस हद तक आगे जा सकता है और दूसरी ओर क्या चीन भी ताइवान को लेकर अमेरिका से टकराव की ओर बढ़ेगा. स्थिति तनावपूर्ण है लेकिन बिगड़े ना, यही सभी पक्षों के हित में होगा.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं.)
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