जब पेड़ लगाने से फायदा कम और नुकसान ज्यादा हुआ
२ अप्रैल २०२१1980 के दशक में जब 'प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा' प्रोजेक्ट को केन्या के बिंगो काउंटी में पेश किया गया था, तब कहा गया गया था कि इससे क्षेत्र के स्थानीय समुदायों को काफी फायदा होगा. इसके तहत केन्याई सरकार और संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने शुष्क भूमि में हरियाली लाने और उसे इस्तेमाल लायक बनाने के लिए वुडी वीड्स को बढ़ावा दिया. वुडी वीड्स एक तरह का झाड़ीदार पौधा है. यह मूल रूप से मध्य और दक्षिण अमेरिका में शुष्क भूमि में पाया जाता है. इसे स्थानीय भाषा में माथेंगे कहा जाता है.
बिंगो काउंटी में केन्या फॉरेस्ट्री रिसर्च इंस्टीट्यूट के शोधकर्ता साइमन चोगे ने कहा कि शुरुआती दौर में मासेंगे ने धूल के तूफान को रोकने में मदद की, खाना पकाने और निर्माण के लिए पर्याप्त लकड़ी की आपूर्ति की और पशुओं के लिए चारा उपलब्ध कराया. हालांकि, 1997 में अल नीनो बारिश के बाद चीजें पूरी तरह बदल गई. मासेंगे के बीज चारों ओर फैल गए.
पशु भी इस विदेशी पेड़ को चारे के रूप में नहीं अपना सके और नतीजा यह हुआ कि यह चारों ओर काफी तेजी से फैल गया. चारागाह के क्षेत्र कम हो गए और जल स्त्रोत कम होने लगे. इसके कांटे से पशुओं के खुर छील गए. काफी ज्यादा मीठा होने की वजह से इसे खाने वाले जानवर पोषण की कमी की वजह से भूखमरी का शिकार हुए. चोगे कहते हैं, "अब लोगों के पास आजीविका का कोई साधन नहीं है."
पेड़ लगाने से फायदा कम और नुकसान ज्यादा
बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण कार्यक्रमों को वातावरण से कार्बन डाय ऑक्साइड को सोखने का प्रभावी तरीका बताया जाता है. फिर भी, बिंगो के घास के मैदानों को बदल देने वाले पेड़-पौधे चेतावनी देते हैं कि कभी-कभी पेड़ लगाने से फायदा कम और नुकसान ज्यादा हो सकता है.
औपनिवेशिक काल से शुष्क क्षेत्रों के बारे में गलत धारणाएं और स्थानीय जानकारी को नजरअंदाज करके कभी-कभी ऐसे पेड़ उन जगहों पर लगाए गए हैं जहां वे स्वाभाविक रूप से मौजूद नहीं होते हैं. ये पेड़ स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र और आजीविका को नष्ट कर देते हैं. कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु संकट से निपटने के लिए कम तकनीकी तरीके से पेड़ लगाने के जोर के साथ इन गलतियों को दोहराया जाएगा.
पृथ्वी की करीब 40 प्रतिशत भूमि शुष्क है जो ज्यादातर अफ्रीका और एशिया में हैं. इनमें सवाना, घास के मैदान, झाड़ी और रेगिस्तानी बायोम शामिल हैं. इनमें कहीं पानी की कमी है, तो कहीं काफी ज्यादा बारिश होती है. हालांकि, इनके बावजूद कई तरह के पेड़-पौधों और जानवरों के लिए यह अनुकूल है.
आज यहां 2.3 अरब लोगों के घर हैं और दुनिया के आधे पशुधन हैं. दुनिया की खेती योग्य भूमि का लगभग आधा हिस्सा शुष्क क्षेत्रों में है और 30% खेती वहां की मूल प्रजातियां की होती है. हजारों सालों से लोग शुष्क क्षेत्रों में रह रहे हैं और वहां की परिस्थितियों के अनुसार ढल चुके हैं.
पर्यावरण से तालमेल
लंदन स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एनवायरनमेंट एंड डेवलपमेंट में शुष्क क्षेत्रों की आजीविका के विशेषज्ञ सीड हेसे ने बताया, "यहां रहने वाले लोगों ने परिस्थितियों से निपटने और वहां रहने के तरीके के बारे में सीखा." हेसे कहते हैं, "यहां के लोगों ने अपने फायदे के लिए प्रकृति के साथ तालमेल बैठाया है, ताकि वे अपने लिए पर्याप्त भोजन उगा सकें और वैसे जानवरों को रख सकें जो इन स्थितियों में भी प्रजनन कर सकें."
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में इतिहास के एसोसिएट प्रोफेसर डायना के डेविस ने 'द अरिड लैंड्स: हिस्ट्री, पावर एंड नॉलेज' नाम से एक किताब लिखी है. वे इस किताब के जरिये तर्क देते हैं कि औपनिवेशिक युग की धारणा के कारण इस जानकारी को ऐतिहासिक रूप से तवज्जो नहीं दी गई. औपनिवेशिक युग की धारणा यह थी कि स्थानीय लोगों ने वनों की कटाई की और बड़े स्तर पर इसे चारागाह के तौर पर इस्तेमाल किया, जिसकी वजह से शुष्क भूमि बंजर हुई और यहां पेड़-पौधे नहीं रहे.
डेविस ने बताया कि इस तरह की धारणाएं फ्रांसीसी और ब्रिटिश उपनिवेशों, माघरेब से दक्षिणी अफ्रीका और मध्य पूर्व से भारत तक आम थीं. इसका इस्तेमाल उन कार्यक्रमों और नीतियों को सही ठहराने के लिए किया गया, जो काफी संख्या में स्थानीय लोगों और मूल निवासियों को हाशिये पर डाल देते थे.
भूमि के इस्तेमाल की कीमत
दक्षिण अफ्रीका के रोड्स विश्वविद्यालय में प्लांट इकोलॉजी की असोसिएट प्रोफेसर सुजैन वेटर कहती हैं कि इसी समय इन धारणाओं की वजह से शुष्क भूमि का इस्तेमाल फसल उगाने और दूसरे कामों के लिए करने का फैसला लिया गया. इसका संदर्भ यह था कि विदेशी प्रजातियों वाले पेड़ लगाने से शुष्क भूमि की कथित समस्याओं का हल हो सकेगा.
सामाजिक विरासत की तरह भूमि के इस्तेमाल को बदलने की पर्यावरणीय कीमत अधिक थी. जैसे, जमीन का कटाव, लवणीकरण, उत्पादकता और जैव विविधता का नुकसान, आक्रामक प्रजातियों का प्रसार और पानी के स्रोतों में कमी.
हेसे कहते हैं, "हम दशकों से भूमि भूविज्ञान के क्षेत्र में प्रगति कर रहे हैं. इसके बावजूद, शुष्क क्षेत्रों के बारे में गलत धारणाओं को नीति निर्माताओं, मीडिया और शिक्षा पाठ्यक्रमों के जरिये बदलना काफी मुश्किल साबित हो रहा है. शुष्क क्षेत्रों की कई ऐसी समस्याओं को बदलने की कोशिश हो रही है जो हैं ही नहीं. इसके लिए काफी ज्यादा पूंजी निवेश और तकनीक का इस्तेमाल किया जा रहा है."
वेटर को आशंका है कि पिछले दशक में बड़े स्तर पर शुरू की गई वृक्षारोपण की पहल एक बड़ा खतरा साबित हो सकती है. उनमें बॉन चैलेंज और अफ्रीकी फॉरेस्ट लैंडस्केप रेस्टोरेशन इनिशिएटिव (एएफआर100) अफ्रीका शामिल हैं. इनके तहत, एशिया और दक्षिण अमेरिका के ऐसे देशों को टारगेट किया गया है जहां बड़े पैमाने पर सवाना और घास के मैदान हैं.
सही जगह पर सही प्रजातियों के पेड़-पौधे
सीएबीआई यूरोप-स्विट्जरलैंड में इको सिस्टम मैनेजमेंट के प्रमुख उर्स शाफनर चोगे के साथ वुडी वीड्स प्रोजेक्ट से बिंगो में मासंगे के बढ़ते प्रभाव का प्रबंधन करने के लिए काम करते हैं. वे कहते हैं, "अफ्रीका में फिर से वन लगाने की जरूरत है. हालांकि, कई बातें इस पर निर्भर करती हैं कि यह कैसे किया जाता है. पेड़ लगाने की संख्या से ज्यादा जरूरी यह है कि सही जगह पर सही प्रजातियों के पेड़-पौधे लगाए जाएं."
वेटर और शाफनर के लिए विशेष चिंता ऐसे पेड़ों को उन जगहों पर लगाने से जुड़ी है जहां पहले उनकी प्रजाति नहीं थीं. उनका कहना है कि ऐसा होने पर पूरा क्षेत्र तबाह हो सकता है, जैसा कि बिंगो में हुआ. शाफनर कहते हैं, "जलवायु परिवर्तन को कम करने में शुष्क भूमि की समस्या को कम करके आंका गया है. घास के स्वस्थ मैदान जंगल के बराबर कार्बन को सोख सकते हैं." वेटर का कहना है कि यह जल्द ही पता चल जाएगा कि इन नए पेड़ लगाने की पहल का क्या असर होगा. लेकिन अपने अनुभव से वह चिंतित हैं कि "यह पहल गलत साबित हो सकती है."
आईयूसीएन के वन संरक्षक कार्यक्रम के निदेशक क्रिस बुश का कहना है, "बॉन चैलेंज की पहल फॉरेस्ट लैंडस्केप रेस्टोरेशन से प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र में किसी तरह का बदलाव नहीं होगा. घास के मैदान या सवाना को पेड़ लगाकर कवर करना, फॉरेस्ट लैंडस्केप रेस्टोरेशन के बराबर कारगर नहीं होगा." बुश कहते हैं कि इस प्रोजेक्ट में प्रकृति, खेती और सिल्विकल्चर, तीनों में सुधार शामिल है. इससे पेड़-पौधों के विकास और उनके फैलाव को नियंत्रित किया जाता है.
मासेंगे को पूरी तरह हटाने की पहल
बिंगो के निवासियों के लिए यह एक स्थायी नुकसान है. 2006 में वे केन्याई सरकार को अदालत में ले गए और मासेंगे से हुए नुकसान की भरपाई के लिए मुआवजे की मांग की. इसके बाद केन्याई सरकार ने कुछ सार्थक बदलाव किए हैं.
चोगे कहते हैं, "जिन समुदायों को मासेंगे से सबसे ज्यादा नुकसान हुआ है, वे इसके प्रसार को धीमा करने और इसको हटाने में सहायता करने के लिए काम कर रहे हैं. इसके स्थान पर वे इस क्षेत्र के घास के मैदानों को पुनर्स्थापित करने के लिए स्वदेशी प्रजातियों को लगा रहे हैं."
चोगे को उम्मीद है कि इस बदलाव से स्थानीय लोगों को फिर से अपनी आजीविका मिलेगी और स्थानीय प्रजातियों के पौधे लगाने से जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में भी मदद मिलेगी. चोगे कहते हैं कि उन्हें उम्मीद है कि अगले 20 सालों में मासेंगे को पूरी तरह से हटा दिया जाएगा. हालांकि, यह काफी बड़ी चुनौती है. इसे हटाना आसान नहीं होगा.