जलवायु परिवर्तन की ज्यादा मार झेलती हैं औरतें
३ जून २०२२समन्दर के किनारे पर रहने वाले मछुआरा समुदायों की जिंदगियों को तहस-नहस कर देने वाला चक्रवात हो या आसमान को अंगारों से सुर्ख लाल और धुएं से काला कर देने वाली जंगल की आग या फसलों को बरबाद कर देने वाला और अनाज की कीमतों में बेतहाशा वृद्धि ले आने वाला सूखा.
इन मौसमी ज्यादतियों में सिर्फ ये समानता नहीं है कि जीवाश्म ईंधनों को जलाने से वे और ताकतवर हो उठती हैं, बल्कि ये भी है कि आदमियों और औरतों पर उनकी मार अलग अलग ढंग से पड़ती है.
बांग्लादेश में 1991 में आए गोर्की चक्रवात में पुरुषों की तुलना में नौ गुना ज्यादा तादाद में औरतें मारी गई थीं. ऑस्ट्रेलिया में 2009 की जंगल की विनाशकारी आग के दौरान सुरक्षित ठिकानों में जाने के लिए, पुरुषों के मुकाबले दो गुना ज्यादा औरतों को पुनर्वास की दरकार थी. केन्या में 2016 के सूखे के दौरान 20 लाख से ज्यादा लोग भुखमरी का शिकार हो गए थे और उनमें जब भोजन बांटा गया तो औरतें, कतार में सबसे पीछे थीं.
दशकों से नीति निर्माता इस बारे में चेतावनियों को अनदेखा करते आए हैं कि सख्त लैंगिक असमानताएं लोगों को अतिशय मौसम के लिहाज से और असहाय बना देती हैं. अब जबकि जलवायु परिवर्तन उनके दरवाजे पीट रहा है तब जाकर वे ये सोचने को बाध्य हुए हैं कि इन असमानताओं को कम करने के तरीकों को कैसे अपनाएं.
जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के पैनल (आईपीसीसी) की फरवरी में प्रकाशित एक ऐतिहासिक रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु परिवर्तन सत्ताविहीन लोगों को दबाव में डालता है. "जब आप निर्णय करने वाले समूह से अलग रखे जाते हैं- जैसे कि कई देशों में अधिकांश औरतों के साथ हुआ है- तो आप उन संसाधनों के बारे में फैसला भी नहीं कर सकते हैं जिनकी आपको जरूरत है."
जलवायु परिवर्तन की ज्यादा मार औरतों पर
लैंगिक वजहों से हाशिए में धकेले गए लोग, जलवायु परिवर्तन के लिहाज से खुद को ढालने में कम समर्थ होते हैं या उसके प्रभावों से उबर नहीं पाते हैं. जलवायु प्रभाव और अनुकूलन पर अकादमिक लेखन की एक विस्तृत समीक्षा में वैज्ञानिकों ने ये नतीजा निकाला है. औरतों के पास आमतौर पर कम पैसा होता है, अवसर कम होते हैं, और नीति निर्माताओं की प्राथमिकता में वे नहीं होतीं क्योंकि वहां भी पुरुषों का ही बोलबाला होता है. इसके चलते वे आगे भी भेदभाव का और शिकार बनती जाती हैं.
सूखा पड़ने के दौरान, औरतों और लड़कियों को पानी लाने के लिए और दूर पैदल चलकर जाना पड़ता है. इस लिहाज से उन पर यौन हिंसा का खतरा बढ़ जाता है. लंबी दूरियों का मतलब ये भी है कि उन्हें कम चक्कर लगाने पड़ते हैं, इससे परिवार के लिए उपलब्ध पानी की मात्रा कम हो जाती है- इसका खामियाजा भी औरतों को ही भुगतना पड़ता है क्योंकि परिवार में पहला कौर और पहली घूंट पर पुरुषों का हक माना जाता है. पानी की कमी से औरतों में माहवारी से जुड़ी साफसफाई पर भी असर पड़ता है, लड़कियों का स्कूल जाना बंद हो जाता है.
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बहुत ज्यादा पानी से भी इसी किस्म के विनाशकारी प्रभाव होते हैं. लोगो को विस्थापित करने वाली, शौचालयों को नष्ट करने वाली और सैनिटेशन उत्पादों की किल्लत ले आने वाली बाढ़, माहवारी को लेकर सख्त वर्जनाओं वाले देशों में, अतिरिक्त बोझ ढो रही होती है.
2020 में फ्रंटियर्स इन वॉटर नाम के जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन की रिपोर्ट के मुताबिक, बांग्लादेश में फैक्ट्रियों में काम करने वाली दो तिहाई से ज्यादा औरतें हर महीने छह दिन काम का घाटा सहती हैं क्योंकि माहवारी के पैड बदलने या फेंकने के लिए उन्हें सुरक्षित, एकांत जगहें नहीं मिल पाती हैं.
फिर भी जेंडर पर अतिशय मौसम के तमाम प्रभाव एक ही दिशा में काम नहीं करते हैं. अमेरिका में गर्मी से जुड़ी बीमारियों से औरतों के मुकाबले पुरुषों के दोगुनी तादाद में मरने की आशंका रहती है. क्योंकि वे बाहर खेतों और निर्माण स्थलों पर काम करते हैं. ऑस्ट्रेलिया में जानलेवा "ब्लैक सैटरडे" दावानल के दौरान पुरुष अपने घरों को बचाने के लिए रुके रहे और इस वजह से ज्यादा संख्या में मारे गए. 2016 में जियोग्राफिकल रिसर्च नाम के जर्नल में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक सुरक्षित ठिकानों पर चले जाने की दोस्तों और परिवार की सलाह न मानने से ऐसा हुआ हो सकता है.
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वैज्ञानिकों ने ट्रांसजेंडरों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों पर ज्यादा रिसर्च नहीं की है. लेकिन इस बारे में जिन देशों में भी डाटा उपलब्ध है वहां उनके बेघर होने और स्वास्थ्य सेवाओं में भेदभाव झेलने की आशंका ज्यादा बताई गई है. इस वजह से वे गर्मी और तूफान से जुड़ी मौसमी ज्यादतियों के ज्यादा खतरे में घिर जाते हैं.
सरकारों का लैंगिक-उत्साही अनुकूलन का वादा
2015 में विश्व नेताओं ने पेरिस समझौते पर दस्तखत कर वैश्विक तापमान को पूर्व-औद्योगिक तापमानों से ऊपर डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने की शपथ ली थी. उन्होंने माना था कि जलवायु परिवर्तन के लिहाज से ढलने में उन्हें, विज्ञान आधारित एक जेंडर-रिस्पॉन्सिव यानी लैंगिक-उत्साही तरीका अपनाना होगा.
अनुकूलन पर अपनी रिपोर्ट में आईपीसीसी ने पाया कि असमानता को बढ़ाने वाली प्रणालियों को बदल कर और असमान शक्ति बंटवारे पर पुनर्विचार कर, नीति निर्माता ऐसा कर सकते हैं. इसका मतलब है संपत्ति और संसाधनों में बराबर की हिस्सेदारी देना और पर्यावरणीय निर्णयों में निष्पक्ष और साफ सुथरे प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करना. रिपोर्ट के लेखकों के मुताबिक, "ऐसे रूपांतरकारी बदलावों पर कोई अनुभवसिद्ध आंकड़े फिलहाल विरले ही है."
इसकी बजाय वैज्ञानिकों को क्रमिक बदलावों के उदाहरण ही मिले हैं. इनमें विशिष्ट अनुकूलन परियोजनाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने और राष्ट्रीय जलवायु नीतियों में जेंडर पर विशेष ध्यान देने जैसे बदलाव शामिल हैं.
आईपीसीसी रिपोर्ट की सह लेखक मार्टिना कैरेटा कहती हैं, "हमने जो लिखा वो कोई ब्रेकिंग न्यूज नहीं है. लेकिन वैज्ञानिक के रूप में हताशा की बात ये है कि महिलाओं को ना उचित प्रतिनिधित्व मिला है, ना ही निर्णय करने की शक्ति हासिल हो पाई है."
पुरुषों से कम प्रदूषण करती हैं औरतें
उचित और बेहतर प्रतिनिधित्व से जलवायु परिवर्तन की गति मंद पड़ सकती है. जलवायु समाधानों पर आईपीसीसी की, अप्रैल में प्रकाशित एक पृथक रिपोर्ट के मुताबिक पुरुषों की अपेक्षा औरतें कम उत्सर्जन की जिम्मेदार हैं क्योंकि वे मांस कम खाती हैं, गाड़ी कम चलाती हैं. जर्मनी और स्वीडन में औरतों की तुलना में पुरुष क्रमशः 8 फीसदी और 22 फीसदी ज्यादा ऊर्जा का दोहन करते हैं.
वरिष्ठ आईपीसीसी वैज्ञानिक मीनल पाठक कहती हैं, "औरतों में पर्यावरणीय लिहाज से ज्यादा संवेदनशील विकल्पों को चुनने के प्रति एक सामान्य प्रवृत्ति देखी गई है." इसकी एक आंशिक वजह वो ये बताती हैं कि औरतों के पास
उच्च प्रदूषण वाली जीवनशैली अपनाने की छूट नहीं होती, न उनके पास उतने संसाधन होते हैं. "कुछ हद तक ये मर्जी का मामला है कुछ हद तक नहीं."
वैज्ञानिकों ने ये भी पाया कि ढांचागत बदलावों में औरतें ज्यादा योगदान करती हैं. स्वीडन से लेकर यूगांडा तक, भारत से लेकर फिलीपींस तक- फ्राइडेज फॉर फ्यूचर नाम के जलवायु प्रतिरोध आंदोलन से जुड़े छात्र नेताओं में ज्यादातर औरतें और लड़कियां हैं. आईपीसीसी रिपोर्ट के मुताबिक उन देशों में कार्बन प्रदूषण कम है जहां आय पर नियंत्रण और दूसरे कारकों के बावजूद, औरतों के पास राजनीतिक आवाज है,
दुनिया में महिला नेतृत्व वाले देशों में ऐसे कई उदाहरण हैं जहां जलवायु नीतियों में अड़ंगा लगा है. जैसे जर्मनी की पूर्व चांसलर अंगेला मैर्केल ने यूरोपीय संघ के कार उद्योग में सुधारों पर रोक लगा दी थी.
वैज्ञानिक कहते हैं कि व्यापक रुझान यही है कि पुरुष नेतृत्व की अपेक्षा महिला नेतृत्व में देश कम प्रदूषण सहता है. रिपोर्ट के मुताबिक औरतें जलवायु परिवर्तन को उसी तरह प्राथमिकता देती हैं जिस ढंग से वे वोट देती हैं, काम करती हैं, खरीदारी करती हैं और अपने समुदायों में घुलती-मिलती हैं. पुरुषों की अपेक्षा उनमें, पर्यावरण कार्यकर्ता बनने की संभावना ज्यादा रहती है और जलवायु परिवर्तन को नकारने का भाव भी उनमें अपेक्षाकृत कम पाया जाता है.
आईपीसीसी वैज्ञानिक मीनल पाठक कहती हैं, "अगर आप महिलाओं को राजनीतिक पहुंच और भागीदारी हासिल कराते हैं, तो जलवायु कार्रवाई भी मजबूत होगी. जिन देशों में औरतों की आवाज बुलंद और मजबूत होती है- उनका राजनीतिक दखल ज्यादा होता है- उन देशों में जलवायु कार्रवाई की गति भी तेज हो जाती है."