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जहरीले कारोबार की अनदेखी

१२ अगस्त २०१४

एक महंगे होटल के कॉन्फ्रेंस हॉल में कई कारोबारी बढ़िया बिस्कुटों के साथ चाय की चुस्की लेते हैं. वो चर्चा करते हैं कि कारोबार कैसे बढ़ाया जाए, भले ही उनका धंधा आम लोगों के लिए जानलेवा क्यों न हो.

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तस्वीर: picture alliance / Pressefoto Ulmer

नई दिल्ली में कॉन्फ्रेंस करने वाले ये कारोबारी एसबेस्टस का व्यापार करते हैं. विकसित देशों में इसका इस्तेमाल बिल्कुल बंद हो चुका है, लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में आज भी एसबेस्टस का बड़ा बाजार है. भारत एसबेस्टस का सबसे बड़ा खरीदार है. देश में यह कारोबार दो अरब डॉलर का है. तीन लाख लोगों को इससे रोजगार मिलता है.

अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन और 50 से ज्यादा देशों के स्वास्थ्य विशेषज्ञ एसबेस्ट्स के इस्तेमाल पर पूरी तरह पाबंदी लगाने की वकालत करते हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक एसबेस्टस उद्योग में नौकरी करने वाले एक लाख लोग हर साल मारे जाते हैं.

एसबेस्टस के बारीक रेशे सांस के साथ फेफड़ों तक जाते हैं और कई बीमारियां पनपनाते हैं. आम तौर पर इसके शिकार लोगों में सांस तेज चलने, फेफड़ों में कैंसर, छाती में दर्द या पेट की बीमारियां देखी जाती हैं. सिर्फ माइक्रोस्कोप में दिखने वाला एसबेस्टस का रेशा एक बार शरीर में घुसने के बाद लंबे समय तक वहां बना रहता है. मेडिकल रिसर्च में साफ हुआ है कि एसबेस्टस का गले, किडनी, दिमाग, ब्लाडर और कंठ कैंसर से भी संबंध है.

Symbolbild - Asbest
बारीक रेशों वाला एसबेस्टसतस्वीर: Getty Images

लेकिन दुनिया भर में फैले एसबेस्टस कारोबारियों की तरह भारतीय व्यापारियों की राय भी अलग है. उन्हें लगता है कि एसबेस्टस के खतरों को बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जा रहा है. इंडिया एसबेस्टस सीमेंट प्रोडक्ट्स निर्माता संघ के निदेशक अभय शंकर इस कारोबार को जनकल्याण बताते हैं, "हम यहां सिर्फ अपना कारोबार करने के लिए ही नहीं हैं, बल्कि देश की सेवा करने के लिए भी है." कारोबारियों का तर्क है कि एसबेस्टस की वजह से झोपड़ियों में रहने वाले भारतीय भी पक्का घर बनाने का सपना देखते हैं.

पटना में एसबेस्टस की चादरें बेचने वाले उमेश कुमार के मुताबिक, "यह गरीबों का देश है और कम पैसे में उन्हें छत मिल सकती है." उमेश 10 गुना 3 की एसबेस्टस शीट 600 रुपये में बेचते हैं. इसका इस्तेमाल छत के लिए होता है. फाइबर ग्लास या टिन की बनी शीट का दाम 800 रुपये है. फाइबर ग्लास और टिन गर्मियों में गर्म और सर्दियों में ठंडा भी होता है.

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फेफड़े को खराब करते एसबेस्टस के रेशेतस्वीर: picture-alliance /OKAPIA

लेकिन कारोबारियों का यह दावा पूरी तरह सच नहीं है. बिहार के वैशाली जिले में एसबेस्टस की फैक्ट्री बनाने का स्थानीय लोग विरोध कर रहे हैं. फैक्ट्री निर्माण पहले टाला गया लेकिन दिसंबर 2012 में परमिट को रिन्यू कर दिया गया. इसके विरोध में सैकड़ों लोग सड़कों पर उतरे. निर्माण स्थल पर तोड़ फोड़ भी हुई. लोगों में आज भी गुस्सा है, ऊपर से उन्हें लूटपाट और तोड़फोड़ के आरोपों में अब कचहरी के चक्कर भी लगाने पड़ते हैं.

खूब टिकाऊ और गर्मी रोकने वाले एसबेस्टस का कभी पश्चिमी देशों में खूब इस्तेमाल हुआ. लेकिन जब 30-40 साल बाद फेफड़ों के कैंसर, मिसोथेलिओमा और एसबेस्टोसिस जैसी बीमारियां सामने आने लगीं, तो जोखिम का अंदाज हुआ. जापान, अर्जेंटीना और यूरोपीय संघ के सभी देशों में अब एसबेस्टस पर पूरी तरह पाबंदी है. अमेरिका में इसका इस्तेमाल चुनिंदा उद्योगों में बहुत ही कड़े नियमों के साथ होता है. दुनिया भर में एसबेस्टस की सबसे ज्यादा सप्लाई रूस करता है.

ओएसजे/एजेए (एपी)