तूतीकोरिन: किसकी पुलिस, किसकी जनता?
२३ मई २०१८44 साल पहले बिहार छात्र आंदोलन के दौरान मैंने पहली बार प्रदर्शनकारियों पर पुलिस फायरिंग और लोगों के मरने की बात सुनी थी. उस आंदोलन के बहुत से नेता आज प्रांतीय और राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय हैं. वे सत्ता में रहने के दौरान विरोध के लिए उदार वातावरण बना सकते थे, लेकिन उन्होंने सत्ता में आने के लिए तो बहुत कुछ किया है, समाज को बदलने के लिए कुछ करने का शायद उनके पास समय नहीं था.
पुलिस का काम राज्य व्यवस्था के प्रतिनिधि के रूप में कानून और व्यवस्था बनाए रखना है. लोकतंत्र में जनता व्यवस्था बनाने में हिस्सा लेती है, इसलिए पुलिस लोकतांत्रिक राज्य और उसकी जनता की है. उस जनता को सुरक्षा देना पुलिस का कर्तव्य और जिम्मेदारी है. लेकिन पुलिस जनता समझती किसे है? क्या पर्यावरण के लिए विरोध करने वाले या प्रदूषण को रोकने की मांग करने वाले राज्य के भविष्य की रक्षा के लिए नहीं लड़ रहे? फिर उनके साथ इतनी बेरहमी क्यों?
राज्य सत्ता निरंकुश होती है. वह शक्ति दिखाकर लोगों को कानून पालक बनाना चाहती है. ऐसा हर कहीं है. लेकिन लोकतंत्र का मतलब सिर्फ बहुमतवाद नहीं है, जिसमें बहुमत से सत्ता में आए लोग निरंकुश शासक सा व्यवहार करें या एक खास अवधि के लिए निर्वाचित तानाशाह हो जाएं. लोकतंत्र का मतलब फैसला लेने में लोगों की भागीदारी है. और उस भागीदारी को तथा फैसला लेने की प्रक्रिया को बातचीत के जरिए ही सुनिश्चित किया जा सकता है.
भारत में कई कारणों से आक्रोश और आक्रामकता बढ़ रही है. उन कारणों पर गौर किए जाने की जरूरत है. साथ ही पुलिस को गंभीरता से बल प्रयोग के बदले तनाव घटाने की नीति पर काम करना चाहिए. बल दिखाना आसान होता है, बातचीत के जरिए समझाना उतना आसान नहीं होता. लेकिन इस प्रक्रिया से नागरिकों को कानून पालक बनाने में भी आसानी होगी और वे पुलिस को अपनी पुलिस समझ पाएंगे. आंदोलनों को दबाने और कुचलने की ब्रिटिश नीति का 70 साल के युवा भारतीय लोकतंत्र को जल्द से जल्द परित्याग करना चाहिए और नागरिकों और प्रशासन को साझेदार बनाने की शुरुआत होनी चाहिए.
पिछले साल जर्मनी के हैम्बर्ग में जी-20 शिखर सम्मेलन के दौरान पुलिस ज्यादतियों की बड़ी आलोचना हुई है, लेकिन आंदोलनों के दौरान हिंसा और तनाव से निपटने में कई जर्मन प्रांतों की पुलिस बातचीत के जरिए तनाव कम करने की नीति का सहारा ले रही हैं. बर्लिन में सालों से हिंसा की गवाह बनने वाली मई दिवस की रैली में इस साल कोई हिंसा नहीं हुई. अंतरराष्ट्रीय संबंधों का पुराना सिद्धांत है कि जब तक बातचीत होती रहे, गोली नहीं चलती. घरेलू मोर्चे पर भी यही लागू होता है, जब तक बातचीत होती रहे, हिंसा नहीं भड़केगी. पुलिस को ऐसी टीमों को प्रशिक्षण देना होगा, जो प्रदर्शनकरियों से बात कर सकें और हिंसा को रोकने में उनका समर्थन हासिल कर सकें.
एक बात और. राजनीतिक विवादों का हल राजनैतिक स्तर पर ही निकालना होगा. जनता की चिंताओं को दूर करना या उन्हें समझाना कि उनकी चिंता गलत है, यह काम भी राजनीतिज्ञों का ही है. पुलिस का इस्तेमाल कर अपनी बात मनवाई जा सकती है, लोगों को आश्वस्त नहीं किया जा सकता है. आखिर ये वही लोग हैं जिनके नाम पर राजनीतिज्ञ शासन कर रहे हैं. पुलिस बदली जा सकती है लेकिन जनता तो कहीं और से नहीं लाई जा सकती.