पर्यावरण की सुध लिए बिना कैसा विकास
६ अगस्त २०२०भारत के पर्यावरण मंत्रालय ने कहा है कि रेलवे परियोजनाओं, 20 हजार वर्ग किलोमीटर के दायरे में होने वाले छोटे स्तर के निर्माण कार्यों और 25 मेगावॉट से कम क्षमता वाले पनबिजली संयत्रों के लिए पहले से स्वीकृति लेने की जरूरत नहीं होगी. ये राहत इको सेंसेटिव परिक्षेत्रों, राष्ट्रीय पार्कों और वन्यजीव अभ्यारण्यों पर भी लागू होगी. आरक्षित वनभूमि पर निर्माण के लिए राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड से अनुमति लेनी होती है. लेकिन नये आदेशों के बाद अनुमति की बाध्यता हटा ली गयी है. निर्माण कार्यों और विकास परियोजनाओं के लिए सरकार किस तरह धीरे धीरे रास्ता साफ कर रही है, और पर्यावरणीय सरोकारों से किस तरह किनारा किया जा रहा है, ये आदेश एक बानगी है. इस आदेश के समांतर पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन की विकटताओं और चुनौतियों से जुड़ी एक सच्चाई फॉसिल ईंधन पर निर्भरता में कटौती की है. इस बारे में हुए पेरिस समझौते के तहत 450 गीगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य हासिल करने में भारत कम से कम चार साल पिछड़ सकता है.
अब इन दोनों बातों को जोड़कर देखे जाने की जरूरत है, पर्यावरण मंत्रालय का फैसला और सौर ऊर्जा उत्पादन में कमी. जाहिर है कोविड महामारी से बिगड़ी अर्थव्यवस्था में जान फूंकने के लिए निर्माण कार्यों में बाधा दूर करने की कोशिश की जा रही है, और कोयला आधारित परियोजनाओं पर भी जोर आया है. लेकिन इन मुद्दों ने पर्यावरणीय नुकसान, जलवायु परिवर्तन और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन से जुड़ी न सिर्फ नयी चुनौतियां खड़ी कर दी हैं बल्कि पर्यावरण बनाम विकास की पुरानी बहस भी तीव्र हो उठी है. नये आदेशों में कहा गया है कि राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की स्वीकृति केवल उन्हीं परियोजनाओं को चाहिए होगी जिन्हें पर्यावरणीय क्लियरेन्स की जरूरत होती है या वे ऐसे इलाकों पर प्रस्तावित हैं जो एक संरक्षित क्षेत्र को दूसरे से जोड़ते हैं. हिंदुस्तान टाइम्स अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक पर्यावरण मंत्रालय ने हैंडबुक ऑफ फॉरेस्ट कनजर्वेशन ऐक्ट 1980 के प्रावधानों में भी संशोधन कर दिए हैं.
विकास की बाधाओं को दूर करने में तेजी
स्क्रॉल डॉट इन वेबसाइट की एक रिपोर्ट के मुताबिक वैसे पिछले साल ही पर्यावरण मंत्रालय 13 रेलवे प्रोजेक्टों को अनुमति की बाध्यता से मुक्त कर चुका है. 19,400 करोड़ रुपये की लागत और 800 हेक्टेयर क्षेत्र में फैली इन परियोजनाओं की चपेट में एक राष्ट्रीय पार्क, एक बाघ रिजर्व, एक बाघ कॉरीडोर और वन्य जीव अभ्यारण्य आ रहे हैं जो उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश, कर्नाटक और गोवा राज्यों में पड़ते हैं. डाटा पत्रकारिता की वेबसाइट इंडिया स्पेंड के आंकड़ों के मुताबिक इससे पहले जून 2014 से मई 2018 की अवधि के दरम्यान, राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड 500 से अधिक परियोजनाओं को संरक्षित क्षेत्रों और इको सेंसेटिव जोन मे मंजूरी दे चुका है. पूर्ववर्ती सरकार के दौर में 2009 से 2013 तक 260 परियोजनाओं को ही हरी झंडी दी गयी थी. सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायर्नमेंट संस्था के एक अध्ययन के मुताबिक यूपीए सरकार के दौरान करीब 12 प्रतिशत की दर से परियोजनाओं की मनाही हुई लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई में एनडीए सरकार का पहला कार्यकाल इस मामले में उदार रहा. एक प्रतिशत ही परियोजनाएं हर साल रिजेक्ट हुई हैं. पर्यावरण मंत्रालय के नये आदेशों में इस ‘उदारता' का विस्तार देखा जा सकता है.
देखा जा सकता है कि विभिन्न मंत्रालयों के बीच अब निर्माण परियोजनाओं की मंजूरी को लेकर न कोई अंतर्विरोध रह गया है, न कोई दुविधा न टकराव. अर्थव्यवस्था को नयी ऊंचाइयां दिलाने के दावे के साथ पर्यावरण, रेलवे, वित्त, सड़क परिवहन, जल संसाधन आदि सभी संबद्ध मंत्रालय एक सुर में बोलते दिखते हैं. लगता नहीं कि विशेषज्ञों की कोई परवाह रह गयी है या विशेषज्ञ भी बहुत अधिक टीका टिप्पणी करने की स्थिति में नहीं हैं. इस तरह विकास बनाम पर्यावरण की लंबे समय से चली आ रही बहस में मौजूदा सरकार का रुझान इस कथित विकास की ओर है. यानी पलड़ा परियोजनाओं और निर्माण कार्यों का भारी है.
समाज और सरकार पर जिम्मेदारी का बोझ
विकास परियोजनाओं के समर्थकों का कहना है कि पर्यावरण की दुहाई देकर अर्थव्यवस्था को चोट नहीं पहुंचाई जा सकती है, लेकिन पलटकर पर्यावरणवादी पूछते हैं कि विकास की दुहाई देकर पर्यावरण और कुदरत पर चोट क्यों? फिर बहस ये भी आती है कि किसके फायदे ज्यादा हैं और किसके नुकसान ज्यादा. जाहिर है इसका कोई सीधा और अकेला जवाब संभव नहीं. कोई समावेशी तरीका भी होना चाहिए जिसमें विकास कार्य भी चलते रहें और पर्यावरण भी बना रहे लेकिन इस पर क्रियान्वयन अभी दिखता नहीं. पूरी दुनिया में हरित विकास की अवधारणा जोर पकड़ रही है, संयुक्त राष्ट्र अपने पर्यावरणीय प्रयासों में हरित विकास का आह्वान कर रहा है. भारत भी इससे अलग नहीं रह सकता.
असल में बुनियादी बात राजनीतिक विवेक और इच्छाशक्ति की है. अंधाधुंध निर्माण, निवेश की मारामारी और कॉरपोरेट की होड़ शहरों से निकलकर जंगलों और देहातों का रुख कर चुकी है. नीति नियंताओं और अर्थव्यवस्था के नियोजकों के पास विकास परियोजनाएं स्थापित करने के लिए एक विशाल भूगोल है, निवेश के लिए तैयार बैठी कंपनियां हैं और आकर्षक ग्रोथ चार्ट भी है लेकिन वो स्पष्ट दूरदर्शिता भी रहनी चाहिए जो पर्यावरण से जुड़ी संभावित लाभ हानि का आकलन कर सके और आज की परियोजनाओं की लागत उसके आगामी फायदों और पर्यावरण को होने वाले किसी छोटे या बड़े नुकसान से जोड़कर तय कर सके.
ये निर्विवाद है कि अर्थव्यवस्थाएं आज के लिए नहीं बनाई जाती हैं, वे आने वाले कल के लिए आधारस्तंभ बनती है. जब जलवायु परिवर्तन और वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी के संकट प्रत्यक्ष और अवश्यंभावी हो चुके हैं, किसी आर्थिक गतिविधि या निवेश से पर्यावरणीय चिंताओं को दरकिनार कर देना, अपने पांव में कुल्हाड़ी मारने की तरह नहीं तो फिर क्या है? इसका खामियाजा सत्ताव्यवस्था, पूंजी और शासन तंत्र से पहले आम नागरिक भुगतते हैं. तमाम आपदाओं की चपेट में वे ही सबसे पहले आते हैं और वे ही सबसे पहले जल जंगल जमीन घरबार से उजड़कर, विस्थापित और निर्वासित होते हैं.
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