ब्रेक्जिट की आफत से बढ़ी है ब्रिटेन की दोस्त बनाने की चाहत
१७ दिसम्बर २०२०कभी सॉफ्ट ब्रेक्जिट तो कभी हार्ड ब्रेक्जिट, कभी डील तो कभी नो–डील, ब्रेक्जिट ने एक अजब सी असमंजस और निराशा की स्थिति पैदा कर दी है. खास तौर पर इसका शिकार ब्रिटेन ही हुआ है जो यूरोपीय संघ से बाहर निकल तो रहा है लेकिन कैसे, यह किसी को पता नहीं है. आए दिन हो रही ब्रिटेन और यूरोपीय संघ की बैठकों से फिलहाल तो यही लगता है कि आखिरकार यह मामला कड़वाहट के साथ ही खतम होगा. पिछले कुछ महीनों में जैसे-जैसे ब्रेक्जिट आगे खिसक रहा है और साथ ही यूरोपीय संघ ब्रिटेन के लिए अपने दरवाजे बंद कर रहा है, ब्रिटेन की राजनीति, खास तौर से विदेश नीति पर इसका असर साफ दिखा है. मिसाल के तौर पर ब्रिटेन और सिंगापुर के बीच द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौते को ही ले लीजिए. 10 दिसम्बर को हुए इस समझौते से लगभग 225 अरब डॉलर के व्यापार पर असर पड़ेगा.
यूरोपीय संघ का असर इस समझौते पर साफ झलकता है क्योंकि इस समझौते का बड़ा हिस्सा यूरोपीय संघ और सिंगापुर के बीच हुए मुक्त व्यापार समझौते पर ही आधारित है. ऊर्जा क्षेत्र हो या दवाएं और अन्य चिकित्सकीय सुविधाएं, इलेक्ट्रॉनिक्स हो या मोटरकारें और उनके कलपुर्जे, वस्तु व्यापार संबंधी बातें हों या सर्विसेज सेक्टर, सभी पर यूरोपीय संघ और सिंगापुर समझौते की ही छवि दिखती है. 1 जनवरी 2021 से यह समझौता जमीनी हकीकत में बदल भी जाएगा. दोनों देशों के बीच डिजिटल इकोनॉमी और वित्त संबंधी समझौते के मसौदे की बातचीत भी चल रही है और अगर उस पर सहमति हो जाती है तो वह किसी भी यूरोपीय देश द्वारा किया गया अपनी तरह का पहला समझौता होगा.
दूसरे देशों के साथ समझौतों की जरूरत
यहां सवाल यह उठता है कि इस समझौते की जरूरत क्यों आन पड़ी? ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि ब्रेक्जिट समझौते के तहत ब्रिटेन ब्रेक्जिट के बाद दूसरे देशों के साथ यूरोपीय संघ के समझौतों का हिस्सेदार नहीं होगा. यूरोपीय संघ और सिंगापुर के बीच पहले से ही मुक्त व्यापार समझौता किया जा चुका है और 2019 से ही यह अमल में भी है. सिंगापुर के बाद 11 दिसंबर 2020 को ब्रिटेन ने वियतनाम से भी यूरोपीय संघ–वियतनाम मुक्त व्यापार समझौते की तर्ज पर ही एक द्विपक्षीय व्यापार समझौता किया है. यही नहीं, दो महीने पहले 23 अक्टूबर को जापान के साथ भी ब्रिटेन ने यूरोपीय संघ–जापान समझौते जैसा ही एक समझौता किया था. जाहिर है अब ब्रिटेन हर उस समझौते को दोहराने की कोशिश कर रहा है जिसके फायदे उसे यूरोपीय संघ का सदस्य होने के नाते मिले थे.
लेकिन क्या इतने से ही ब्रिटेन की चिंताएं समाप्त हो जाएंगी? नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है. यूरोपीय संघ से निकलने के बाद ब्रिटेन की विश्व व्यापार में पकड़ कमजोर होगी. और इसकी भरपाई के लिए संभवतः ब्रिटेन कॉम्प्रेहेंसिव एंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप की ओर भी भागेगा. इसकी भरपाई के लिये ब्रिटेन को अमेरिका या चीन जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ साथ भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ओर भी रुख करना होगा. आर्थिक मोर्चे के साथ साथ राजनय और सामरिक स्तर पर भी ब्रिटेन को काफी काम करना पड़ेगा. पुराने रिश्तों में नई जान भी डालनी होगी और नए रिश्ते भी बनाने होंगे. उम्मीद की जा सकती है कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में अपनी मौजूदगी दर्ज कराने के लिए बोरिस जॉनसन सरकार जल्द ही कोई घोषणा करेगी. दक्षिणपूर्व एशिया के देशों के संगठन एसोशिएशन आफ साउथईस्ट एशियन नेशंस, आसियान के साथ भी ब्रिटेन डायलॉग पार्टनर समझौता कर सकता है. साथ ही ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, मलेशिया, और सिंगापुर के बीच हुए फाइव पावर डिफेंस एग्रीमेंट को भी मजबूत करने पर भी जोर दिया जा सकता है.
भावी रणनीति में भारत की खास जगह
ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को अगले साल होने वाले गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर आने के भारत के न्यौते को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए. यूरोपीय संघ से अलग हो रहे ब्रिटेन के लिए भारत के साथ दोस्ती बढ़ाने का यह बड़ा मौका है. भारत न सिर्फ दुनिया के सबसे बड़े बाजारों में से एक है बल्कि निवेश के स्तर पर भी यह एक बड़ा मौका देता है. रीजनल कॉम्प्रेहेंसिव इकोनॉमिक पार्ट्नरशिप, आरसीईपी से आखिरी मौके पर सामरिक और आर्थिक दोनों कारणों से दूर हुए भारत के लिए भी ब्रिटेन एक अच्छा व्यापारिक सहयोगी बन सकता है. भारत का बोरिस जॉनसन को बुलाना दोनों ही देशों को संबंधों में उछाल लाने का मौका है. वरना 1993 के बाद पहली बार किसी ब्रिटिश नेता को गणतंत्र दिवस समारोह में बुलाने की और क्या वजह हो सकती है.
कहते हैं, बुरे वक्त में पुरखों की बनाई पूंजी काम आती है. ब्रिटेन भी शायद उसी पूंजी का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी साख लौटाने में करे. 50 से अधिक सदस्यों वाला कॉमनवेल्थ इस आड़े वक्त में बहुत काम आ सकता है. भारत समेत दुनिया के कई महत्वपूर्ण देश इसके सदस्य हैं. इसी तरह का दूसरा सैन्य सहयोग का संगठन है एफपीडीए जिससे दक्षिणपूर्व में ब्रिटेन को अपनी जगह मजबूत करने का अच्छा अवसर मिल सकेगा. चीन की ओर से लगातार हमला झेल रहे आस्ट्रेलिया के लिए भी ब्रिटेन की इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में वापसी एक अच्छी खबर होगी. ब्रिटेन के सामने बड़ी चुनौतियां खड़ी हैं. यूरोपीय संघ से बाहर निकलने के बाद उसे उसकी वजह से होने वाले नुकसान की भरपाई करनी होगी और यह दूसरे देशों के साथ व्यापारिक निकटता से ही संभव है. यह तय है कि अगर ब्रिटेन ने कमर कस ली और राजनय की लम्बी छलांग का मंसूबा बांधा तो उसे रास्ते तो बहुत मिलेंगे और उन रास्तों पर पुराने दोस्त और नए साथी भी. बड़ा सवाल यह है कि ब्रिटेन में इस मंसूबे को पूरा करने का माद्दा कितना बचा है.
(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)
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