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भारत के लिए अभी कूटनीति का रास्ता ही ठीक

राहुल मिश्र
२० जून २०२०

भारत और चीन के बीच मई 2020 से चल रहे सीमा विवाद ने बढ़ते-बढ़ते अचानक हिंसक झड़प का रूप ले लिया है. अगर तेजी से राजनीतिक और कूटनीतिक कदम नहीं उठाए गए तो इसे युद्ध जैसी स्थिति में बदलने में ज्यादा समय नहीं लगेगा.

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लद्दाख में सीमा की सुरक्षा करते जवानतस्वीर: Getty Images/AFP/T. Mustfa

भारत और चीन के बीच सीमा विवाद दशकों से रहा है, लेकिन 1975 के बाद कभी ऐसा भी नहीं हुआ कि दोनों देशों की सीमा पर तैनात इतने जवान आपसी लड़ाई में मारे गए हों. पिछली बार इस तरह की हिंसक झड़प 1967 में हुई थी. चिंताजनक बात यह भी है कि हाल में लद्दाख  के गलवान सेक्टर में हुई इस झड़प में चीनी सैनिकों ने हैरान कर देने वाली बर्बरता का परिचय दिया है. 15-16 जून को हुई घटना में भारत के एक कर्नल और 19 जवान शहीद हुए. चीन के 40 सैनिकों के भी मारे जाने की खबर है. दोनों तरफ से कोशिश हो रही है कि आगे ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न ना हों. साथ ही भारत सरकार ने यह भी संकेत दिया है कि अगर चीन आक्रामक बना रहता है तो भारत चीन को मुंहतोड़ जवाब देगा.

अलग अलग स्रोतों से टुकड़ों में आ रही बहुत सारी अफवाहों और कुछ समाचारों के बीच बातें उलझ सी गई हैं. फिलहाल साफ तौर पर विश्वसनीय तरीके से यह कहना मुश्किल है कि दरअसल चीन ने इन घटनाओं को कैसे अंजाम दिया या जमीनी  तौर पर भारतीय सेना क्या कदम उठा रही है? तो क्या भारत और चीन युद्ध की ओर बढ़ रहे हैं और क्या भारत को चीन को सबक  सिखाने की कोशिश करनी चाहिए, जैसा कि कुछ भारतीय मीडिया चैनल गुहार लगा रहे हैं?

युद्ध आखिरी विकल्प

विदेशनीति, अंतरराष्ट्रीय संबंध, और सामरिक नीतियों के जानकार मानते रहे हैं कि युद्ध किसी भी देश के लिए अपनी संप्रभुता और अखंडता बचाए रखने का आखिरी रास्ता होता है. दुश्मन कितना भी कमजोर हो, लड़ाई में नुकसान दोनों पक्षों का होता है. सेनाओं के बीच सीधे युद्ध ना हों और गैर-सैन्य तरीकों से मसलों को हल किया जाए, उसकी जिम्मेदारी राजनयिकों की होती है. इसीलिए विदेश मंत्रालयों और उनमें कार्यरत राजदूतों की आवश्यकता होती है. जहां तक भारत और चीन का सवाल है तो उनके बीच राजनयिक संबंधों और सीमा से जुड़े मुद्दों पर बहस और उन्हें सुलझाने के लिए कई स्तरों पर बातचीत के प्लेटफॉर्म भी हैं.

Luftbild vom Galwan Tal in Ladakh
गलवान घाटी का सैटेलाइट चित्रतस्वीर: Reuters/PLANET LABS INC

गलवान और सिक्किम में हुई घटनाओं के बाद सीमा पर तैनात अधिकारियों के बीच लेफ्टिनेंट जनरल और मेजर जनरल के स्तर पर हुई बैठकें नाकाम रही. बातचीत और सुलह समझौते का काम राजनयिकों का है और यह कमान उनके और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के जिम्मे सौंपना ही बेहतर है. यह काम हो भी रहा था. 5-6 मई को पैनगोंग-सो घटना के बाद विदेश सचिव हर्षवर्धन श्रृंगला ने भारत में चीन के राजदूत सुन वेइडांग से बातचीत की. खबरों की मानें तो राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल ने चीनी विदेश मंत्री यांग जेइची से भी बात की और इस हफ्ते विदेशमंत्री एस. जयशंकर ने भी विदेश मंत्री यांग जेइची से फोन पर बातचीत में में भारत का रुख स्पष्ट किया. हालांकि बातचीत के इस सिलसिले का कोई सकारात्मक नतीजा सामने आना बाकी है.

राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दों पर मीडिया के रोल को भी कम करके नहीं आंका जाना चाहिए. पिछले कुछ वर्षों में अपने प्राइम-टाईम कार्यक्रमों को सनसनीखेज बनाने की कवायद में भारतीय मीडिया ने राजनय आचार-व्यवहार के किसी मानदंड का कोई सम्मान नहीं किया है. वायरल वीडियो, अपुष्ट खबरों और निरर्थक वाद-विवाद से इसने सरकारों पर अनावश्यक दबाव ही बनाया है. इस बार भी ऐसा ही हो रहा है. मीडिया को इन घटनाओं की जानकारी जिम्मेदाराना तरीके से देनी चाहिए. चौतरफा आलोचना और दबाव ने भारत सरकार को इस दबाव में डाल दिया है कि सरकार जल्दी और प्रभावपूर्ण तरीके  से कोई बड़ा कदम उठाए. शुक्रवार की सर्वदलीय बैठक भी संभवतः इसी का नतीजा है.

Grenzkonflikt zwischen Indien und China
पैनगोंग-सो घाटीतस्वीर: picture-alliance/AP Photo/Manish

संयम की जरूरत

चीन नए-नए हथकंडे अपना कर भारत को परेशान करने में लगा हुआ है, लेकिन जब तक भारत चीन से हर मोर्चे पर दो-दो हाथ करने में सक्षम नहीं होता, तब तक उसके लिए चीन के साथ उलझना ठीक नहीं होगा. यह चीन ही है जिसकी वजह से नीतिनिर्धारक मानने लगे हैं कि भारत को अमेरिका, जापान, और आस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ सैन्य सहयोग बढ़ाना जरूरी है. हाल ही में हुआ भारत-आस्ट्रेलिया वर्चुअल शिखर सम्मेलन इसी का प्रमाण है. बैठक में सामरिक और सैन्य क्षेत्र से जुड़े कई मुद्दों पर सहयोग को मंजूरी दी गयी. अमेरिका, जापान, और आस्ट्रेलिया के साथ क्वाड्रिलैटरल सहयोग की मजबूती हो या चतुर्देशीय मालाबार युद्धाभ्यास – इन दोनों मुद्दों पर अब देश के नीति-निर्धारकों में आम राय बनती दिख रही है.

आर्थिक मोर्चे पर, खास तौर पर निवेश और 5G तकनीक के मुद्दे पर चीन का बहिष्कार प्रासंगिक है और संभवतः सार्थक भी. इसके लिए देश में बने उत्पादों और तकनीक को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक ले जाने की जरूरत होगी. दुनिया के तमाम देश आज ऐसे फैसले ले रहे हैं. जिस तरह चीन अपने आक्रामक रवैए से अमेरिका, ब्रिटेन, ताइवान, आस्ट्रेलिया, वियतनाम, और जापान जैसे देशों को दुश्मनी की ओर धकेल रहा है उससे साफ है कि चीन जल्द ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग-थलग पड़ने के करीब है. भारत के लिए यह जरूरी है कि अपनी सामरिक क्षमता को तेजी से बढ़ाए और चीन के काले कारनामों की ओर दुनिया का ध्यान व्यवस्थित ढंग से आकर्षित करे. सर्वदलीय बैठक के बाद इन मामलों पर देश की तमाम पार्टियों का एक मत बनना इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम होगा.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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