मां के दूध में भेद
१७ फ़रवरी २०१४हार्वर्ड विश्वविद्यालय की क्रमिक विकास जीवविज्ञानी केटी हिन्डे बताती हैं, "मांएं बेटों और बेटियों के लिए अलग अलग तरह की जैविक रेसिपी पैदा करती हैं." इंसानों, बंदरों और कई अन्य स्तनधारियों पर किए गए अध्ययन में इस बात का पता चला. नर और मादा शिशुओं को मिलने वाले मां के दूध में कई पदार्थों और उनकी मात्रा में अलग अलग थी. शोध में पाया गया कि नर शिशु को मिलने वाले दूध में अक्सर वसा या प्रोटीन ज्यादा होता है जिससे उनमें अधिक ऊर्जा होती है. वहीं मादा शिशुओं को अधिक मात्रा में दूध मिलता है.
ऐसे अंतर के पीछे बहुत से मत हैं. अमेरिकन एसोसिएशन फॉर दि एडवांसमेंट ऑफ साइंस की सालाना बैठक में हिन्डे ने रिसस बंदर का उदाहरण देते हुए बताया कि मादा शिशु को पिलाये जाने वाले दूध में कैल्शियम की मात्रा ज्यादा पाई गई. इसका कारण यह हो सकता है कि उनकी प्रजाति में मादाएं ही अपनी मां के सामाजिक रुतबे को आगे बढ़ाने वाली होती हैं. हिन्डे कहती है, "यह एक तरह का अनुकूलन हो सकता है जिसमें मां बेटी के विकास को तेज करने और उन्हें कम उम्र में ही बच्चे पैदा करने के लिए तैयार कर सके." दूसरी ओर नरों को मादा की तरह जल्दी यौन परिपक्वता तक पहुंचने की जरूरत नहीं होती. नर कितने बच्चों के पिता बनते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि वे कितनी मादाओं को रिझा पाते हैं.
इसके अलावा मादा शिशु को नर के मुकाबले ज्यादा समय तक मां की देखभाल मिलती है. नर बहुत जल्दी खेलकूद शुरू कर देते हैं जिसके कारण उन्हें ज्यादा ऊर्जा देने वाले दूध की जरूरत होती है. अभी यह साफ नहीं कि इंसानी बच्चों के लिए मां के दूध में ऐसा फर्क क्यों दिखता है. लेकिन हिन्डे बताती हैं कि इतना साफ है कि इस अंतर की नींव तभी पड़ जाती है जब बच्चा मां के गर्भ में होता है.
हिन्डे ने इसी साल प्रकाशित हुई अपनी स्टडी में बताया कि गाय के गर्भ में पल रहे शिशु का लिंग मां में दूध के उत्पादन को प्रभावित करता है. बछड़ा पैदा होने बाद कुछ ही घंटों में अलग कर दिया जाता है. हिन्डे ने पाया कि अलग होने के बाद भी गाय के दूध में वह अंतर दिखता है जिसका आधार गर्भ में ही तैयार हो गया था. इस अंतर को मापने के लिए 14,90,000 गायों पर शोध हुआ. पता यह चला कि जब उन्होंने बछिया को जन्म दिया तो उन्होंने औसतन 445 किलो ज्यादा दूध दिया. हालांकि गाय के मामले में बछड़े या बछिया के लिए निकलने वाले दूध में प्रोटीन या वसा की मात्रा में कोई भेद नहीं था.
हिन्डे कहती हैं कि इंसानों में मां के दूध में जिस तरह का अंतर दिखाई देता है उससे नवजात बच्चों के विकास पर किस तरह का असर पड़ता है इस बारे में अभी बहुत कुछ जानना बाकी है. अगर इस विषय पर और जानकारी मिलती है तो ऐसी माताओं को काफी मदद पहुंचाई जा सकेगी जो बच्चों को अपना दूध नहीं पिला सकतीं और बाजार में मिलने वाले बेबी मिल्क पर निर्भर होती हैं. हिन्डे कहती है, "बाजार में मिलने वाले दूध में भूख मिटाने का फार्मूला तो कुछ हद तक अपनाया जा सकता है लेकिन मां के दूध की रोगप्रतिरोधी क्षमता, दवा और हार्मोनों के लिए सिग्नल के जैसे काम करने वाले गुण नहीं लाए जा सकते." अगर दूध के इन चमत्कारी गुणों का फार्मूला पता चल जाए तो इससे अस्पतालों में भर्ती बीमार और समय से पहले पैदा हुए बच्चों को दिए जाने वाले बाहर के दूध को भी जरूरत के हिसाब से चुना जा सकेगा.
आरआर/ओएसजे (एएफपी)