ये वो इलाका है जहां कई पीढ़ियां गुजर गईं लॉकडाउन में
१४ मई २०२०दरअसल भारत और बांग्लादेश की सीमा पर ये गांव नो मैस लैंड पर हैं, अंतरराष्ट्रीय सीमा पर लगी कंटीले तारों की बाड़ के दूसरी ओर. यहां के लोग पहले तय समय पर ही बाड़ में बने गेट के जरिए आवाजाही कर सकते थे. लेकिन अब कोरोना की वजह से उनके बाहर निकलने पर पाबंदी है. बेहद इमरजेंसी में ही सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के लोग उनको बाहर आने की अनुमति देते हैं. ऐसा देश के विभाजन के समय सीमा के बंटवारे की वजह से हुआ है. बंगाल और बांग्लादेश की सीमा पर बसे ऐसे 254 गांवों के लगभग 70 हजार लोग साल के 365 दिन लॉकडाउन जैसी स्थिति में ही रहते हैं.
देश के विभाजन के समय रेडक्लिफ आयोग को सीमा तय करने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी. लेकिन इस आयोग के प्रमुख सर रेडक्लिफ पहले न तो कभी भारत आए थे, न ही उनको यहां के बारे में कुछ पता था. ऐसे में उन्होंने जिस अजीबोगरीब तरीके से सीमाओं का बंटवारा किया उसका खामियाजा आज तक लोगों को भरना पड़ रहा है. खासकर पश्चिम बंगाल और तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) की अंतरराष्ट्रीय सीमा पर तो सैकड़ों गांव ऐसे हैं जिनका आधा हिस्सा पूर्वी पाकिस्तान में चला गया और बाकी आधा भारत में रह गया. यहीं तक रहता तो भी गनीमत थी. सीमावर्ती इलाकों के गावों में तो कई घर ऐसे हैं जिनका एक कमरा अगर भारत में है तो दूसरा बांग्लादेश में.
दस जिलों में फैली है सीमा
भारत से लगी बांग्लादेश की 4,096 किमी लंबी सीमा में से 2,216 किमी अकेले बंगाल के उत्तर से दक्षिण तक फैले दस जिलों से लगी है. सीमा पर कंटीले तारों की बाड़ लगाए जाने के बाद कोई 254 गांवों के 70 हजार लोग बाड़ के दूसरी ओर ही रह गए. बाड़ में लगे गेट भी उनके लिए निश्चित समय के लिए ही खुलते हैं. ऐसे में सात दशकों से हजारों लोग लॉकडाउन जैसी हालत में जिंदगी गुजार रहे हैं. जलपाईगुड़ी जिले के हल्दीबाड़ी इलाके में तो कई कुएं ऐसे हैं जिनका आधा हिस्सा बांग्लादेश में है. सड़कों का भी यही हाल है. टमाटर की पैदावार के लिए मशहूर इस इलाके में ज्यादातर घर ऐसे ही हैं जिनका मुख्यद्वार भारत में खुलता है तो पिछला दरवाजा बांग्लादेश में. कोलकाता से सटे उत्तर 24-परगना जिले से लेकर दक्षिण दिनाजपुर औऱ कूचबिहार तक ऐसे गांव भरे पड़े हैं.
नियमों के मुताबिक नो मैंस लैंड में कोई आबादी नहीं होनी चाहिए. लेकिन इलाके के लोग रेडक्लिफ आयोग की गलती का खामियाजा भुगतने पर मजबूर हैं. इस सीमा पर नौ मैंस लैंड में सैकड़ों घर बसे हैं. रहन-सहन, बोली औऱ संस्कृति में काफी हद तक समानता की वजह से यह पता लगाना मुश्किल है कि कौन भारतीय है और कौन बांग्लादेशी. इन लोगों में सीमा पार से शादी-ब्याह भी सामान्य है. भौगोलिक स्थिति की वजह से इस मामले में न तो सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के जवान कोई हस्तक्षेप कर पाते हैं और न ही बार्डर गार्ड्स बांग्लादेश (बीजीबी) के लोग. इन गांवों में रहने वाले लोग सीमा के दोनों तरफ स्थित बाजारों में आसानी से आवाजाही करते हैं. लेकिन इनकी स्थिति कैदियों की तरह ही है. बीएसएफ के एक अधिकारी नाम नहीं छापने की शर्त पर बताते हैं, "मानवीयता के नाते हम नो मैंस लैंड में रहने वालों की गतिविधियों पर अंकुश नहीं लगा सकते. सरकारी नियम के मुताबिक यह लोग तय समय पर ही भारतीय सीमा में प्रवेश कर सकते हैं. इसके मुकाबले बांग्लादेशी इलाके में जाना उनके लिए आसान है.”
कंटीले तारों के पीछे की जिंदगी
भारतीय सीमा में कंटीले तारों की बाड़ में बना गेट तय समय के लिए ही खुलता है. इन लोगों को उसी के भीतर अपना काम निपटा कर लौटना होता है. लेकिन अब कोरोना की वजह से जारी लॉकडाउन में उनको यह सुविधा भी नहीं मिल रही है. ऐसे ही एक गांव में रहने वाले जैनुल अबेदिन कहते हैं, "जीरो लाइन पर रहना तलवार की धार पर रहने की तरह है. हमें कोई सरकारी सहायता नहीं मिलती. दूसरी ओर, अक्सर बांग्लादेशी अपराधी भी हमें परेशान करते रहते हैं. हमें हमेशा संदेह की निगाहों से देखा जाता है.” वह बताते हैं कि बेहद जरूरी होने पर भी कई बार हमें गेट पार कर भारतीय सीमा में नहीं घुसने दिया जाता. ऐसे में बांग्लादेश के बाजारों और अस्पतालों में जाना हमारी मजबूरी बन जाती है.
नदिया जिले का झोरपाड़ा ऐसा ही एक गांव है. लगभग साढ़े तीन सौ लोगों की आबादी वाले इस गांव के बीचोबीच इच्छामती नदी बहती है. गांव के अनिरुल शेख बताते हैं, "हमारे लिए क्या लॉकडाउन और क्या खुला, सब समान है. हमारी तो कई पीढ़ियां लॉकडाउन में ही गुजर गईं.”
पांच साल पर पहले थल सीमा समझौते के समय भी इन गावों को स्थानांतरित करने का मुद्दा उठा था. लेकिन इसमें कई समस्याएं होने की वजह से यह मुद्दा ठंढे बस्ते में डाल दिया गया. लोग नो मैंस लेंड में स्थित अपने घरों और खेतों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं. अनिरुल कहते हैं, "यहां तो हम खेती से गुजर-बसर कर लेते हैं. लेकिन मुआवजा नहीं मिलने पर हम पुरखों की यह जगह छोड़ कर कहीं और कैसे जा सकते हैं?”
मदरसा भी बांग्लादेश में
दक्षिण दिनाजपुर जिले का हिली कस्बा ठीक सीमा पर बसा है. इसका आधा हिस्सा बांग्लादेश के दिनाजपुर जिले में है. आजादी से पहले कोलकाता से दार्जिलिंग जिले के बीच चलने वाली ट्रेनें इसी रूट से गुजरती थीं और इस यात्रा में काफी कम समय लगता था. इस जिले से सटे नो मैंस लैंड पर बसे गांवों में 11 हजार से ज्यादा लोग रहते हैं. इलाके के पूर्व गोविंदपुर गांव में बना एकमात्र प्राइमरी स्कूल जब कुछ साल पहले बंद हो गया तो स्थानीय लड़के-लड़कियां पढ़ने के लिए बांग्लादेश के दाउदपुर स्थित मदरसे में जाने लगे.
इन गावों में सीमा पार की सैकड़ों प्रेम कहानियां मिल जाएंगी. ज्यादातर घरों में एकाध लोग ऐसे जरूर मिल जाएंगे जिनकी शादी बांग्लादेशी युवतियों के साथ हुई हैं. लोग पानी जैसी मौलिक जरूरतों के लिए भी बांग्लादेशी बस्तियों में जाते रहे हैं. जिले के ऐसे ही एक गांव हरिपुकुर के मोहम्मद अली बताते हैं, "हम जुम्मे के दिन नमाज पढ़ने के लिए बांग्लादेशी मस्जिद में जाते हैं.” नदिया के मोहम्मद इलिया बताते हैं, "हमारे जीवन में कई समस्याएं हैं. लेकिन अब हमने इनके साथ ही जीना सीख लिया है. हां, बाहरी लोगों की आवाजाही नहीं होने की वजह से हम कोरोना जैसी महामारी से बचे हुए हैं.” यह शायद आजादी के बाद से ही लॉकडाउन में रहने का ही नतीजा है.
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