वो रात जिसने जर्मनी ही नहीं पूरी दुनिया बदल दी
१ जुलाई २०२०पहली जुलाई 1990 की रात पूर्वी जर्मनी में और रातों जैसी नहीं थी. ये रात एक नया सवेरा लेकर आने वाली थी, पश्चिम जर्मन मार्क वाला सवेरा. कम्युनिस्ट शासन वाला पूर्वी जर्मनी अपने ज्यादातर नागरिकों के लिए पिंजड़े जैसा था, जहां खाने पीने का तो सब इंतजाम था लेकिन बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं. इसलिए 1989 की गर्मियों में जब जीडीआर में लोकतंत्र के लिए आंदोलन शुरू हुआ तो सबसे प्रमुख मांग थी यात्रा की आजादी. पूरी गर्मियों में लाइपजिग और ड्रेसडेन जैसे शहरों में प्रदर्शन होते रहे, गर्मी की छुट्टियां बिताने के लिए पूर्वी यूरोप के देशों में जाने वाले लोग हंगरी के रास्ते भागने की कोशिश करते रहे. और जब नवंबर में अचानक बर्लिन की दीवार खुली तो उसके साथ ही सारी सीमाएं ढह गईं, सारे रास्ते खुल गए. अब जीडीआर यानी पूर्वी जर्मनी के लोग दुनिया में कहीं भी जा सकते थे .
और दुनिया की जानकारी उन्हें थी, किताबें वहां उपलब्ध थीं, लोगों ने सारी दुनिया के देशों के बारे में पढ़ और सुन रखा था. देश के प्रोफेसर, लेखक और दूसरे विशेषज्ञ किताबें लिखा करते, दूसरे देशों के बारे में रिसर्च भी करते थे और अपने देश के लोगों की जिज्ञासा को शांत रखने की कोशिश करते थे. हर घर में आपको दिलचस्पी के हिसाब से किताबें मिल जाती थीं. मैं खुद छोटे छोटे इलाकों में ऐसे लोगों से भी मिला जो अक्सर भारत के बारे में मुझसे भी ज्यादा जानते थे. एक बार दिलचस्पी जग गई तो फिर उन देशों या मुद्दों के बारे में किताबें या पिक्चरबुक जुटाने में पूरे जुनून से लग जाते. हालत ये थी कि यदि बाहर जाने का हक ना हो, सुविधा न हो तो जिज्ञासा को शांत करने के लिए किताबों, फिल्मों या उन इलाकों से आए लोगों से ही कुछ जानकारी हासिल क्यों न की जाए.
नवम्बर 1989 में बर्लिन दीवार खुलने के बाद यात्रा की आजादी का सपना तो पूरा हो गया, यात्रा की संभावना बस सैद्धांतिक हकीकत ही रही. जा तो दुनिया में कहीं भी सकते थे, सब बांहें फैलाकर स्वागत भी कर रहे थे, लेकिन इस सपने को पूरा करने के लिए जेब में पैसा कहां से आए. पूर्वी जर्मनी की मुद्रा मार्क थी, वह कनवर्टिबल नहीं थी, उसका इस्तेमाल कहीं और जाने के लिए, विदेशों में जाने के लिए नहीं किया जा सकता था. अब उस आजादी का क्या फायदा जिसका इस्तेमाल ही न हो सके. बस देश में पश्चिम जर्मन मुद्रा डी-मार्क लागू करने की मांग होने लगी. वो जमाना बहुत ही घटनाओं भरा था, राजनीतिक उतार चढ़ाव और तेज बदलाव के दिन थे. हर दिन हालात बदल रहे थे .
एक ओर राजनीतिक परिवर्तन, विपक्षी पार्टियों का बनना, लोकतांत्रिक चुनावों की तैयारी, विपक्षी पार्टियों और दशकों से एक पार्टी वाली सरकार चलाने वाली कम्युनिस्ट पार्टी की गोल मेज बैठक और दूसरी ओर इस सारी उथल पुथल के बीच जर्मनी के दोनों हिस्सों के बीच राजनीतिक और आर्थिक सामंजस्य बिठाने की कोशिश. पूर्वी जर्मनी की संसद के चुनाव उसी दौर में हुए. स्थानीय चुनाव भी इसी दौर में हुए. जीडीआर के बनने के बाद पहली बार सही मायने में लोकतांत्रिक चुनाव. अधिकारी पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी की स्थिति को सामान्य बनाने की बातचीत में लगे थे तो सड़कों पर उतरे लोग हर रोज नई नई मांगें कर रहे थे और राजनीतिज्ञों पर दबाव बढ़ रहा था.
पूर्वी जर्मनी में नई नई पार्टियां बन गई थीं. पश्चिम जर्मनी की स्थापित पार्टियां वहां की नई पार्टियों की मदद कर रही थीं. लोकतंत्र की उन्हें आदत नहीं थी, उसमें उन्हें ट्रेनिंग भी नहीं थी और संसदीय चुनावों से पहले पार्टियां जो मांगें कर रही थीं, जो वादे कर रही थीं, उसमें पश्चिम जर्मन मार्क को पूर्वी जर्मनी में भी लागू करने की बात भी शामिल थी.
मार्च में संसद के चुनाव हुए. इन्हीं वायदों का कमाल था कि चांसलर हेल्मुट कोल की सीडीयू पार्टी जिस मोर्चे का समर्थन कर रही थी, उसे लगभग 50 प्रतिशत वोट मिले. पूर्वी जर्मनी में नई सरकार बनते ही ये बहस छिड़ गई कि जीडीआर मार्क और पश्चिम जर्मन मार्क के बीच क्या संबंध हो, एक जीडीआर मार्क के लिए कितने डी-मार्क मिलें. इन्हीं सब बहसों के बीच जब मई में स्थानीय निकायों के चुनाव हुए तो सीडीयू पार्टी को संसदीय चुनावों के मुकाबले आठ लाख कम वोट मिले. जनता माफ करने को तैयार नहीं थी. राजनीतिज्ञों के लिए डी-मार्क को लागू करने के अलावा कोई चारा नहीं था. पश्चिम जर्मनी के संघीय बैंक के प्रमुख कार्ल ऑटो पोल चेतावनी दे रहे थे लेकिन चांसलर कोल ने राजनीतिक फैसला किया और डी-मार्क को पहली जुलाई से पूर्वी हिस्से में लागू करने का फैसला लिया.
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ये ऐसा फैसला था जो बाद में इतिहास को न सिर्फ प्रभावित करने वाला था, बल्कि इतिहास की धार को बदल देने वाला था. इस फैसले ने जर्मनी के एकीकरण की राह तो पक्की कर ही दी, साथ ही बहुत से ऐतिहासिक बदलावों की वजह बना. जर्मनी के एकीकरण का मतलब था शीत युद्ध का खत्म होना, पूरब और पश्चिम यूरोप के बीच दिवार का मिटना, पूरब के देशों में कम्युनिस्ट शासन का पतन, पूरब और पश्चिम यूरोप का भी एक साथ आना. अगले छह महीनों में ये सब बहुत तेजी से हुआ. चांसलर हेल्मुट कोल ने एक ऐसा फैसला लेकर राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया था जो आने वाले सालों में देश और दुनिया का भविष्य तय करने वाला था. लेकिन खुद जर्मनी में वही हुआ, आर्थिक जानकारों को जिसका डर था.
हार्ड करेंसी के लिए लालायित और दुनिया घूमने के इच्छुक लोगों ने 30 जून की रात को बैंकों के बाहर लाइन लगा रखी थी कि उन्हें जल्द से जल्द डी-मार्क मिले. तो पहली जुलाई को जब दुकानें खुली तो कुछ और ही नजारा था. सारे सुपर मार्केट्स में सेल्फ पर पश्चिम जर्मन सामान थे, पूर्वी जर्मनी में बना कोई भी सामान वहां नहीं मिल रहा था. न पूर्वी जर्मन पैसा रहा और न पूर्वी जर्मन सामान रहे. उस समय किसी ने नहीं सोचा था कि पश्चिम जर्मन करेंसी का मतलब ये होगा. यह भी नहीं कि अगर पूर्वी जर्मन सामान बाज़ारों में नहीं होंगे तो उसे बनाने वालों को काम कहां मिलेगा. जल्द ही लाखों लोग बेरोजगार हो गए थे और हजारों कंपनियां बंद हो गई थी. ये ऐसा धक्का था जिसे बर्दाश्त करने में पूर्वी जर्मनी और कुल मिलाकर एकीकृत जर्मनी को भी दसियों साल लग गए.
अब उथल-पुथल के उन दिनों को बीते तीस साल हो गए हैं. जिन लोगों ने उसे देखा है या खुद भोगा है, बैंक के सामने लंबी कतारों में खड़े होकर, वह सब उनकी यादों में कैद है. अपने बाहर के राजनैतिक पिंजड़े को तोड़ने वालों ने अपने दिमाग को ही इतिहास का पिंजड़ा बना लिया है. अब तीस साल बाद पूरब के दो तिहाई लोग मानते हैं कि उनकी हालत 1990 के मुकाबले बेहतर हुई है. लेकिन एक तिहाई देश के एकीकरण की राह पर पीछे छूट गया. पचास फीसदी लोगों की चिंता है कि समाज की एकजुटता टूट रही है, गरीबी बढ़ रही है. जिस डी-मार्क को पाने के लिए पूर्वी जर्मनी के बहुत सारे लोग सड़कों पर उतरे थे, वह जल्द ही यूरोपीय एकता की भेंट चढ़ गया. अब यूरो से बहुत लोगों को भले ही शिकायत हो कि उसकी वजह से जर्मनी कमजोर हुआ है, लेकिन जर्मनी का अनुभव ये तो दिखा ही गया कि राष्ट्रों के निर्माण में मुद्राओं की क्या भूमिका होती है.
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