शिक्षकों की भर्ती में आरक्षण से आईआईटी को परहेज क्यों
२८ जनवरी २०२१केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की ओर से गठित कमेटी की अध्यक्षता आईआईटी दिल्ली के निदेशक वी रामगोपाल राव ने की. और बतौर सदस्य इसमें आईआईटी कानपुर के निदेशक, आईआईटी बंबई और आईआईटी मद्रास के रजिस्ट्रार, सामाजिक न्याय और सशक्तिकरण मंत्रालय, आदिवासी मामलों के मंत्रालय, कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग और शारीरिक विकलांगता विभाग के प्रतिनिधि भी शामिल थे. पिछले साल जून में सरकार को ये रिपोर्ट सौंप दी गयी लेकिन पिछले महीने ही आरटीआई के जरिए ये सार्वजनिक हुई है. रिपोर्ट मे कमेटी ने कहा है कि आईआईटी को आरक्षण से छूट मिलनी चाहिए क्योंकि वे राष्ट्रीय महत्त्व के संस्थान हैं और शोधकार्य में शामिल हैं. उसके मुताबिक वैश्विक स्तर पर एक्सीलेंस, आउटपुट, शोध और शिक्षण जैसे मामलों में टॉप संस्थानों से प्रतिस्पर्धा के लिए जरूरी है कि आरक्षण पर ध्यान देने के बजाय ऐसे उपाय किए जाएं जिनसे निर्धारित लक्ष्यों को पूरा किया जा सके.
आरक्षण की व्यवस्था को सुचारू रूप से लागू करने की सिफारिशें देने के लिए कमेटी बनायी गयी थी. लेकिन उसकी सिफारिशों का लब्बोलुआब उल्टा ही था कि आरक्षण हटाओ क्योंकि एक तो दलित वर्गों से योग्य उम्मीदवार नहीं मिलते दूसरे अकादमिक एक्सीलेंस के लिहाज से भी ये ठीक नहीं. दलित बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों के बीच लंबे समय से अकादमिक ढांचे में कथित सवर्णवादी रवैये की तीखी आलोचना होती रही है. ऊंची जातियां अक्सर मेरिट का सवाल उठाती हैं लेकिन सदियों से समाज में चले आ रहे उस सिस्टेमेटिक भेदभाव को संज्ञान में नहीं लिया जाता जिसकी वजह से दलित पिछड़े रह जाते हैं. और तो और उच्च शिक्षा में दाखिले और उच्च पदों पर नियुक्तियों में उनकी संख्या के आंकड़े भी अपनी कहानी कह देते हैं. क्या आरक्षण की वजह से एक्सीलेंस प्रभावित होती है, ये सवाल तो खूब पूछा जाता है लेकिन इसमें अंतर्निहित विडंबना को शायद ही गंभीरता से लिया जाता है.
आरक्षण और प्रतिभा का सवाल
केंद्रीय शिक्षण संस्थान अधिनियम के चौथे पैराग्राफ के मुताबिक उत्कृष्टता वाले संस्थानों, शोध संस्थानों और राष्ट्रीय और सामरिक महत्त्व के संस्थानों को शिक्षकों की नियुक्ति में जाति आधारित आरक्षण लागू करने से छूट मिली हुई है. ऐसे अभी आठ संस्थान हैं. अब देश के 23 आईआईटी को भी इस दायरे में लाने की मांग की जा रही है. फिलहाल इन संस्थानों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी विषयों के लिए असिस्टेंट प्रोफेसर स्तर पर भर्ती में आरक्षण की व्यवस्था है. एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर जैसे वरिष्ठ पदों पर आरक्षण का कोटा लागू नहीं किया जाता है. एंट्री लेवल यानी असिस्टेंट प्रोफेसर लेवल पर भी अगर आरक्षित वर्गों के योग्य उम्मीदवार नहीं आते हैं तो एक साल के बाद उन सीटों को आरक्षण मुक्त किया जा सकता है. 2008 के एक सरकारी आदेश के बाद से ये व्यवस्था लागू है. इन्ही संस्थानों के मानविकी और प्रबंधन पाठ्यक्रमों के लिए तीनों पदों पर आरक्षण की व्यवस्था लागू है. इस सिस्टम की वजह से आईआईटी में शिक्षकों के बीच विविधता में गिरावट भी आई है. 2018 में शिक्षा मंत्रालय ने संसद में जो आंकड़े पेश किए थे उनके मुताबिक 23 आईआईटी के 8856 शिक्षण पदों में से 6043 पर नियुक्तियां हो चुकी थी जबकि 2813 खाली थे. शिक्षकों के छह हजार से अधिक पद भरे जा चुके हैं लेकिन इनमें से सिर्फ 149 एससी और 21 एसटी श्रेणी से हैं. यानी सिर्फ तीन प्रतिशत.
जेएनयू के सेंटर फॉर पॉलिटिक्ल स्टडीज में असिस्टेंट प्रोफेसर हरीश एस वानखेड़े का कहना है कि कमेटी की ये रिपोर्ट सूक्ष्म स्तर पर ये जतलाने की कोशिश करती है कि आरक्षण के जरिए आने वाले उम्मीदवार मेरिटविहीन होंगे और इस तरह "योग्यता” के मापदंड के साथ समझौता हो सकता है. द वायर में एक लेख में वानखेड़े कहते हैं कि नयी आर्थिक नीतियों में उच्च शिक्षा में सामाजिक न्याय को लागू करने के प्रति एक हिचक दिखायी देती है. "ऐतिहासिक गल्तियों को ठीक किए बिना इन संस्थानों के लिए कोई भी नीति निर्देश बेअसर ही रहेगा. इस बात की सख्त जरूरत है कि दोनों मोर्चों पर काम हो, ‘मेरिटोक्रेटिक' यानी योग्यता के आधार पर फैसले करने वाली फैकल्टी को अपनी ओर खींचा जाए और उसे सामाजिक रूप से अधिक समावेशी भी बनाया जाए.”
कैसे मिलेगा एससी एसटी छात्रों को प्रोत्साहन
अब सवाल ये है कि अगर एससी एसटी के शिक्षक निर्धारित संख्या में पहले ही कम हैं तो फिर किस आधार पर पैनल ये मान बैठा है कि आरक्षण लागू करने से अकादमिक गुणवत्ता से समझौता हो रहा है. क्वालिटी बनी रहनी चाहिए थी क्योंकि उच्च वर्गों के प्रतिनिधि तो अपने अपने पदों पर आसीन हैं ही तो फिर रैंकिंग में भी पीछे नहीं रहना चाहिए था. कमेटी की दलील के आधार पर थोड़ी देर के लिए मान लें कि आरक्षण की वजह से कथित योग्य उम्मीदवार न मिलने से सीटें खाली रह जाती हैं तो ये दलील भी दमदार नजर नहीं आती क्योंकि सरकार ने उस नियम में भी एक छूट दी हुई है. शिक्षा मंत्रालय ने वरिष्ठ फैकल्टी पदों पर भी आरक्षण लागू करने का आदेश दिया था. अब सवाल ये है कि क्या केंद्र सरकार इन संस्थानों की दलील को मानते हुए आरक्षण हटा लेगी या ऐसी व्यवस्था के लिए संस्थानों को प्रेरित करेगी कि एससी एसटी समुदायों से भी छात्र पीएचडी और शोध कर पाएं और आगे चलकर फैकल्टी के रूप में अपनी सेवाएं दे सकें.
आंकड़ों के मुताबिक सभी आईआईटी में 2015 से 2019 के दौरान औसतन करीब नौ प्रतिशत एससी छात्र और दो प्रतिशत एसटी छात्र ही पीएचडी में दाखिला ले पाए थे. उच्च शिक्षा में ये विभाजन साफ दिख रहा है और दलितों की पहुंच उस सीढ़ी तक हो ही नहीं पा रही है जिसके बाद उन्हें अध्ययन से अध्यापन की ओर बढ़ जाना चाहिए था. शिक्षकों की कमी का एक पहलू ऊंची पढ़ाई के लिए विदेश चले जाने वाले छात्रों से भी जुड़ा है. जाहिर है इस मामले में भी अगड़ी जातियों के छात्रों के पास कहीं ज्यादा अवसर और संसाधन हैं. वे ऊंची पढ़ाई कर विदेशी संस्थानों में ही या तो उच्च स्तर के शोध कार्य से जुड़ जाते हैं या वहीं किसी शैक्षणिक या अन्य अकादमिक गतिविधि का हिस्सा बन जाते हैं. उन्हें लगता है कि विदेशी संस्थानों और विदेशी विश्वविद्यालायों में संभावनाएं, अवसर, आकर्षण और अकादमिक माहौल देश के संस्थानों की अपेक्षा बेहतर है. उन्हें लौटा लाने के कोई सुझाव या सिफारिश ऐसे पैनलों की ओर से नहीं देखी गयी है. अगर की गयी है तो ऐसा कोई तंत्र नहीं है कि जिसके जरिए ये कोशिश सार्वजनिक हो सके और उच्च शिक्षा से जुड़े अन्य आकांक्षियों का मनोबल बढ़ाया जा सके. ऐसे समय में जब प्रतिभाएं विदेशों में जा रही हैं और अक्सर लौटकर वापस नहीं आ रही हैं तो क्या भारत के शिक्षा संस्थानों को योग्य उम्मीदवार न मिलने की एक वजह ये भी है?
समाज में भेदभाव का असर शिक्षा संस्थानों पर
अब उस सवाल पर लौटें कि आखिर पीएचडी सीटों में दलित वर्गों के छात्र कम क्यों हैं. एक वजह तो वही संस्थागत भेदभाव है जो किसी अकादमिक परिसर या राजनीतिक गलियारों में ही नहीं हैं बल्कि सदियों से समाज, परिवार, विचार, रूढ़ि और संस्कृति में धंसा हुआ है. पीएचडी तो बहुत दूर और बहुत ऊपर की बात हो जाती है जब हम पाते हैं कि दलितों के समक्ष सबसे पहले रोजी रोटी का संकट कितना सघन और पेचीदा रहा है. आंकड़ों के मुताबिक अखिल भारतीय सालाना औसत आय एक घर के एक लाख 13 हजार रुपये से कुछ अधिक बतायी जाती है. एससी और एसटी घरों की आय इसका दशमलव आठ और दशमलव सात गुना कम है. नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 4 में 50 प्रतिशत एससी घरों और 71 प्रतिशत एसटी घरों को अन्य वर्गों की अपेक्षा निर्धनतम पाया गया है.
संस्थानों में दाखिला लेने के बाद भी इन वर्गों के छात्रों को किस किस्म के सामाजिक भेदभाव और अन्य दुश्वारियों का सामना करना पड़ता है ये भी किसी से छिपा नहीं हैं. एम्स दिल्ली में ऐसी शिकायतों के बाद सुखदेव थोराट कमेटी की रिपोर्ट इस बार में बताती हैं. राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग की रिपोर्टो में दलित वर्गों के छात्रों और शिक्षकों के साथ होने वाले भेदभाव की घटनाओं को उजागर किया जाता रहा है. उच्च शिक्षा के दायरे में भेदभाव के मुद्दे पर बहुत सी न्यायिक आदेश, कमेटियां और विधायी व्यवस्थाएं भी हैं. उच्च शैक्षणिक और प्रशिक्षण संस्थानों में समान अवसर प्रकोष्ठ को लेकर दिशानिर्देश बनाने को लेकर भी कोताही दिखती है.
समावेशी शिक्षा का माहौल बनाकर ही शिक्षण संस्थानों की स्थिति सुधारी जा सकती है. जर्मनी में छात्रवृत्ति और लोन के मिश्रित सरकारी पहल से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के छात्रों को उच्च शिक्षा में लाने में सफलता मिली है. शिक्षा संस्थानों में प्रतिस्पर्धी माहौल बनाने और उन्हें विश्वस्तर का बनाने के लिए बुनियादी ढांचे को बेहतर बनाना होगा और इसके लिए शिक्षा में पर्याप्त निवेश जरूरी है. उच्च शिक्षित भारतीयों के लिए विदेशों में रोजगार ढूंढने के बदले देश में नए अवसर बनाने की जरूरत है. जब सबके लिए नौकरी होगी तो आरक्षण की बहस खत्म हो जाएगी.
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