सूचना के अधिकार पर सियासत
२५ जून २०१३लगभग एक दशक के सामाजिक आन्दोलन के बाद भारत के लोगों को सूचना हासिल करने की आजादी वर्ष 2002 में मिली. इसके लिए भारतीय संसद में सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम पारित किया गया. कुछ समय बाद इस कानून को रद्द कर अक्टूबर 2005 में सूचना के अधिकार (आरटीआई) कानून में तब्दील कर संसद से नए रूप में पारित किया गया. बात अधिकार की हो या स्वतंत्रता की, दोनों में मिलने वाली वस्तु सूचना ही थी. लेकिन कानून के नाम और स्वरुप में बदलाव की यह दास्तान इसके साथ शुरू से ही जुड़ी सियासत की हकीकत को उजागर करती है.
लागू होने के एक दशक से लम्बे सफर के दौरान इस कानून ने न सिर्फ खुद को मजबूत बनाया है, बल्कि सत्ता तंत्र में गहरी जड़ें जमाये बैठे भ्रष्टाचार के खिलाफ जनता के लिए भी मजबूत हथियार भी साबित हुआ है. इसमें आरटीआई कार्यकर्ताओं के अलावा सबसे अहम भूमिका निभाई है सूचना आयोग ने. महज 30 धाराओं वाले इस छोटे से कानून को आयोग ने अपने तमाम अहम फैसलों के बलबूते उम्मीद से अधिक मजबूती प्रदान की. इन फैसलों के मार्फत कानून की सटीक व्याख्या कर इसके दायरे को निरंतर बढ़ाते जाना, आयोग की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है.
सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं को सूचना के अधिकार के दायरे में लाने तक की बात तो ठीक थी, लेकिन अब इसकी जद में सियासी दलों को भी शामिल करने का आयोग का हाल का फैसला उन्हीं राजनीतिक दलों के लिए गले की फांस बन गया है जिन्होंने अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकने के नाम पर ही सही, देर सबेर इस अधिकार को जनता के सुपुर्द किया था. दूसरों के काले कारनामों की ढकी परतें उघारने तक तो राजनीतिक पार्टियों को कोई गुरेज नहीं था लेकिन अब जब कि अपनी ही कलई खुलने का खतरा मंडराया है तो सब दल एकजुट होकर सूचना आयोग के इस फैसले का विरोध कर रहे है.
क्या है फैसला
आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चन्द्र अग्रवाल ने कांग्रेस और भाजपा सहित कुछ प्रमुख राजनीतिक दलों से आरटीआई के अंतर्गत इन्हें मिलने वाले चंदों का ब्यौरा मांगा था. जाहिर है सभी दलों ने खुद को आरटीआई कानून के दायरे से बाहर बता कर यह जानकारी देने से मना कर दिया. हालांकि आरटीआई कार्यकर्ता से हाल ही में राजनेता बने अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) ने सूचना आयोग के फैसले को सही बता कर खुद को सियासी जमात में औरों से अलग कर लिया. केजरीवाल ने आप के गठन के साथ ही पार्टी के फंड का ब्यौरा इसकी वेबसाइट पर चस्पा कर कांग्रेस और भाजपा को भी ऐसा करने की चुनौती दी थी.
राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों ने न तो केजरीवाल की चुनौती पर ध्यान दिया और न ही अग्रवाल की अर्जी को गंभीरता से लिया. उके इस रवैये के कारण अग्रवाल ने इस मामले को सामाजिक संगठन एडीआर की ओर से सूचना आयोग के समक्ष पेश किया. आयोग ने आरटीआई कानून के सभी पहलुओं पर गौर फरमाते हुए कहा कि राजनीतिक पार्टियां सरकार से रियायती दरों पर देश भर में जमीन, भवन और संचार जैसी तमाम सुविधाएँ वसूल रही हैं. इसलिए राजनीतिक शुचिता के तकाजे को देखते हुए सियासी दलों की न सिर्फ कानूनी बल्कि नैतिक जिम्मेदारी भी है कि वे अपने आय व्यय का ब्यौरा जनता को बताएं. आयोग ने 56 पेज के अपने फैसले में तमाम कानूनी दलीलों के साथ राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में बताया है.
सियासी दलों की दिक्कत
आयोग का फैसला आते ही सभी दल एक साथ इसके विरोध में उतर आये और इससे होने वाले नुकसान को राष्ट्रीय क्षति बताने से भी नहीं चूके. मजेदार बात तो ये है कि इस समय देश में काले धन के मुद्दे पर छिड़ी व्यापक बहस के बीच सभी दल एक दूसरे पर जमकर कीचड़ उछाल रहे हैं, जबकि पारदर्शिता से जुडी रिपोर्टें बताती हैं कि सियासी दलों में चंदे के नाम पर ही ब्लैक मनी को जमकर व्हाइट मनी में तब्दील किया जाता है. यही हकीकत आयोग के फैसले को स्वीकार करने में इन दलों की सबसे बड़ी दिक्कत बन गयी है.
याचिकाकर्ता अग्रवाल कहते हैं कि राजनीतिक दलों को आरटीआई के दायरे में आने से उनका हुक्का पानी बंद होने की चिंता है. सियासी दलों की दो मुख्य दलीलें हैं. पहली दलील है कि यह फैसला स्वीकार करने पर सभी दलों को देश भर में अपने सभी पार्टी कार्यालयों पर सूचना अधिकारी तैनात करने होंगे जो कि सीमित संसाधनों वाले दलों के लिए व्यावहारिक तौर पर मुमकिन नहीं होगा और दूसरी दलील है कि इसके लागू होते ही आरटीआई आवेदनों की बाढ़ आ जाएगी जिसे राजनीतिक दलों के लिए संभालना मुमकिन नहीं होगा.
हकीकत क्या है - अगर इन दलीलों पर गौर किया जाये तो पारदर्शिता के लम्बे चौड़े भाषण देने वाले सियासी दलों की मंशा साफ हो जाती है. कानूनविद सुभाष कश्यप कहते हैं कि अब तक किसी भी दल ने इस फैसले के कानूनी पहलू को चुनौती नहीं दी है, सिर्फ व्यवहारिक दिक्कतें गिनाई हैं. उनका कहना है कि हकीकत में फैसले में कानूनी नजरिये से कोई खोट है ही नहीं, इसलिए इसे अब तक नहीं उठाया गया है. जहां तक व्यावहारिक दिक्कतों की बात है तो इनका समाधान किया जा सकता है. इतना ही नहीं आरटीआई कानून में खुद इस बात का प्रावधान है कि किसी संस्था को महज परेशान करने के लिए आरटीआई का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.
फैसला आने के बाद दूसरी सबसे बड़ी हकीकत यह भी सामने आई है कि अब तक किसी भी राजनीतिक दल ने इसे किसी उच्च अदालत में चुनौती नहीं दी है. स्पष्ट है कि सभी दल इस हकीकत से वाकिफ हैं कि हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में आयोग के फैसले को चुनौती देने पर उन्हें मुंह की खानी पड़ेगी. सिर्फ याचिकाकर्ता एनजीओ एडीआर ने दिल्ली हाई कोर्ट में केविएट अर्जी दायर कर अदालत से मांग की है कि किसी भी सियासी दल की ओर से आयोग के फैसले को चुनौती देने पर कोई फैसला देने से पहले अदालत उसका पक्ष भी सुने.
सियासी दलों की सियासत
आगामी 3 जुलाई को सीआईसी का फैसला आये एक महीना पूरा हो जायेगा. इस दौरान सियासी दलों ने इस मुद्दे पर कानूनी लिहाज से अपनी कमजोरी को भांपते हुए चुप रहना ही बेहतर समझा. परिसीमन कानून के मुताबिक आयोग के फैसले को उच्च अदालत में चुनौती देने की मियाद निकलने के बाद आरटीआई कानून में धीरे से बदलाव कर इसे अपने मुफीद बनाने का विकल्प इनके पास मौजूद है. लेकिन बीते एक महीने में दूसरी बड़ी खबरों के सैलाब में ठंडे पड़ चुके इस मुद्दे को यहां उठाने का मकसद सिर्फ इतना है कि हाल ही में हाई कोर्ट ने एडीआर की केविएट अर्जी को स्वीकार कर लिया है.
इसके बाद अब किसी सियासी दल की ओर से आयोग के फैसले को चुनौती देने की संभावना अब लगभग खत्म हो गयी है. गौर करने वाली बात यह है कि सूचना की स्वतंत्रता को अधिकार का नाम देते समय भी सियासत इस कानून को अपने मुफीद बनाने और इसका श्रेय लूटने की थी. 2002 में भाजपा शासित सरकार ने सूचना की स्वतंत्रता दी थी, लेकिन कानून का नाम बदल कर उसे अधिकार में तब्दील करने का काम 2005 में कांग्रेस की सरकार ने किया और अब तक आरटीआई देने का श्रेय खुद ले रही है.
बेहद छोटे सियासी हित रखने वाले दलों को अपनी तकदीर बनाने की जिम्मेदारी देने वाली लाचार जनता के लिए अब देखने वाली बात यही बची है कि ईमान के मसले पर पूरी तरह से बेनकाब हो चुके सियासी दल एक बार फिर आरटीआई कानून में बदलाव की कवायद का मुहूर्त कब तय करते है.
ब्लॉग: निर्मल यादव
संपादन: महेश झा