हिन्दी फिल्मों का देश प्रेम
१५ अगस्त २०१०यह जादू सिर्फ गांधीगीरी का है या लोगों के भेजे में कोई बात घुसाने के नायाब तरीके का. देशभक्ति और हिन्दी फिल्मों का रिश्ता भी कुछ ऐसा ही है. भारत के स्वतंत्रता दिवस के मौके पर बात उन फिल्मों की, जिसने देशप्रेम को नए मायने दिए. यह बताया कि खादी पहन कर नारा लगाए बगैर और सरहद पार से आई गोलियों की बौछार सीने पर झेले बिना भी बात हो सकती है.
फिल्मकार इस मुद्दे पर बहुत माथापच्ची के बाद भी समझ नहीं पाए कि लोगों को फिल्मों के जरिए देश प्रेम बताया जाए तो कैसे. आशुतोष गोवारिकर को ही लीजिए. लगान की सफलता से उन्हें लगा कि उन्हें नुस्खा कुछ कुछ समझ में आ रहा है. इसके बाद उन्होंने स्वदेश बनाई जो परदेसी भारतीयों को वतन वापसी का संदेश देती है. फिल्म फ्लॉप तो नहीं हुई लेकिन लोगों ने इस फिल्म से कुछ सीखना गवारा नहीं किया. हां, दुनिया भर में जब मंदी का प्रभाव बढ़ा तो जरूर लोगों को लगा कि आशुतोष शायद ठीक कह रहे थे.
थोड़ा पीछे जाएं तो 1942 ए लव स्टोरी का नरेंद्र अपने प्रेम और देश के बीच में झूलता अंत में कुर्बान तक हो जाता है पर देश के शहीदों में उसका कहीं नाम नहीं. न ही लोगों को याद है कि किसी ने उन्हें देश के बारे में कुछ बताया या नहीं. अगर याद है तो बस यह कि मनीषा कोइराला की खुबसूरती की तारीफ में उसने दुनिया की हर उस चीज का नाम लिया जिससे सुंदरता को जोड़ा जा सकता है.
सच पूछें तो पिछले कई सालों में इस जज़्बे का जो उफान एक गंवार की हठ से या मुंबई के एक टपोरी की करतूतों से उठा उसकी दूसरी मिसाल मुश्किल है. गंवार भुवन और टपोरी मुन्नाभाई. मुन्नाभाई ने सरकारी इमारतों और परंपराओं की दीवारों में सिमटे बापू और उनकी सीख को ज़िंदा कर दिया. और भुवन ने दिखाया कि क्रिकेट जैसा खेल भी जीत का जरिया साबित हो सकता है. नमस्ते लंदन में गंवार पंजाबी अर्जुन बल्लू सिंह ने यही काम रग्बी खेलकर किया. लोगों को बात असल मुद्दे पर आए बगैर दूसरी तरह से ही समझ में आई. सरफरोश का एसीपी अजय जान क़ुर्बान करने का जज़्बा रखता है लेकिन क्या आप उसे भुवन के जज़्बे से बड़ा कह सकते हैं.
इसी दौर में रंग दे बसंती के पांच बिगड़े युवा भी आए, जो न चाहते हुए भी देश के लिए कुछ कर गुजरने की ठान लेते हैं और उसे अंजाम देने में अपनी जान तक गंवा बैठते हैं. यह आधुनिक युवा भगत सिंह की उस पीढ़ी के नुमाइंदे थे, जिसने देश की आज़ादी के लिए सही गलत का फैसला किए बगैर अपने लक्ष्य तय किए और फिर उसे पूरा करने की होड़ में अपनी जान दी. बात चाहे जितनी पुरानी हो, तरीका नया था शायद इसलिए लोगों ने इसे भी सर आंखों पर बिठाया क्योंकि असली भगत सिंह पर बनी आधा दर्जन फिल्में तो बॉक्स आफिस पर पानी भी नहीं मांग सकीं.
राष्ट्रीय छुट्टी के दिनों में एक फिल्म टीवी पर अकसर दिख जाती है, तिरंगा. दमदार ब्रिगेडियर सूर्यदेव सिंह और सनकी इंस्पेक्टर शिवाजीराव वागले दोनों मिलकर प्रलयनाथ गुंडास्वामी को उसके इरादों सहित नेस्तानाबूद तो कर देते हैं लेकिन लोगों के दिल में जज़्बात नहीं उभरते. लोग फिल्म को किसी नायक और खलनयाक की लड़ाई की तरह ही देखते हैं और फिल्म खत्म होने के बाद याद रहते हैं तो बस राजकुमार के डॉयलॉग
देश के दुश्मनों को सन्नी देओल की चीख बहुत डराती है. ढाई किलो के मजबूत मुक्के उतना नहीं डराते जितना की दूर से आती हाई पिच आवाज़ में हाई वोल्टेज चेतावनी. दर्शकों ने इस आवाज़ के डर का बहुत मजा लिया है. गदर के ट्रक ड्राइवर तारा सिंह से लेकर, हीरो का मेजर अरुण खन्ना, मां तुझे सलाम का मेजर प्रताप सिंह, ज़ोर का पत्रकार अर्जुन सिंह, और फर्ज़ के डीसीपी करन सिंह तक सन्नी अपनी दमदार आवाज़ और मजबूत बाज़ुओं से वतन के दुश्मनों को डराते रहे. कई बार तो दो किरदारों के बीच फर्क करना भी मुश्किल हो गया.
बॉक्स ऑफिस के आंकड़े गवाह हैं कि बॉर्डर के मेजर कुलदीप सिंह और ट्रक ड्राइवर तारा सिंह की गरजती आवाज के अलावा बाकी सभी आवाजों ने दुश्मनों के साथ दर्शकों को भी डरा दिया. आज भी सबको यह तो याद है कि सन्नी ने बड़े बड़ों को नेस्तनाबूद किया पर यह पूछा जाए कि किस फिल्म में उन्होंने क्या किया तो याद करने के लिए बहुत सिर खुजलाना पड़ेगा. अजय देवगन की आंखों की बेचैन उदासी ने भी कइयों को बहुत परेशान किया. कितनी गोलियां बर्बाद हुई, कितनी गाड़ियां और टैंक तबाह हुए और न जाने कितनों का खून बहा पर लोगों को यह बात समझ में नहीं आई कि अजय देवगन देश से प्रेम करना सिखा रहे थे.
ऐसा नहीं कि यह सिर्फ इसी दौर की बात है. गुजरे जमाने में भी कुछ सालों तक भारत कुमार के रुप में मनोज कुमार ने ख्याति जरूर बटोरी. पर ज्यादातर फिल्मों में वह किसी सैनिक की जगह आम आदमी बनकर देसी विदेशी सरकारों या विचारों से लड़े. मुगल ए आजम जैसी ऐतिहासिक फिल्में तो सबके जेहन में ताज़ा हैं लेकिन उपकार, शहीद, हक़ीकत, जागृति,नया दौर को सब भूल गए. मुगल ए आजम की जंग में देश कहीं नहीं था अगर थी तो बस मुहब्बत. और बाकी फिल्मों की अब अगर कुछ याद है तो इनके गाने जो 26 जनवरी और 15 अगस्त या ऐसे ही किसी मौके पर सुनाई दे जाते हैं.
हक़ीक़त और बॉर्डर, इन दो फिल्मों को छोड़ दें तो भारत में विशुद्ध जंग पर बनी कोई फिल्म लोगों को लुभाने में कामयाब रही हो, ऐसा याद नहीं आता. वहीं दुनिया के बाकी देशों में जंग पर बनी फिल्मों ने खूब नाम कमाया है. यह एक अजीब विरोधाभास है कि एक ही विषय पर बनी दूसरे देश की फिल्म लोगों को पागल कर देती है और अपने देश में बने तो इतनी बुरी तरह पिटती है कि बनाने वाला पागल हो जाए. गांधी पर बनी रिचर्ड एटेनबरो की फिल्म ने दुनिया भर में नाम कमाया और ऑस्कर तक ले उड़ी लेकिन देश में बनी गांधी पर किसी फिल्म को दर्शक नहीं मिले. उससे ज्यादा दर्शक तो उस हे राम को मिल गए जो गांधी के हत्यारा नाथूराम गोडसे पर बनी थी. सरदार पटेल, सुभाष चंद्र बोस, बाबा साहब अंबेडकर सबका यही हाल हुआ.
जाहिर है कि लोगों को देशभक्ति का पाठ पढ़ाना इतना आसान नहीं. आप गोली चलाइए बम फोड़िए, जहाज़ और टैंक उड़ाइए, क्रिकेट और रग्बी भी खेलिए, लेकिन बात लोगों की समझ में आ जाएगी इसका दावा कभी मत कीजिए.