14 साल में लक्षद्वीप के ज्यादातर द्वीपों के डूबने का खतरा
२४ जून २०२१इस अध्ययन की रिपोर्ट अंतरराष्ट्रीय पत्रिका ऐलसेवियर के ताजा अंक में छपी है. रिपोर्ट में द्वीप के प्रवाल समूहों को भारी नुकसान पहुंचने का जिक्र भी किया गया है. रिपोर्ट में जान का नुकसान कम करने के लिए द्वीप के लोगों को सबसे सुरक्षित द्वीप पर बसाने की सिफारिश की गई है. इससे पहले कई नौकरशाहों ने केंद्र सरकार को भेजे पत्र में कहा था कि हाल में प्रशासक प्रफुल्ल पटेल की ओर से किए गए फैसलों के लागू होने की स्थिति में द्वीप के अस्तित्व पर खतरा और बढ़ने का अंदेशा है.
हर साल बढ़ेगा समुद्र का जलस्तर
आईआईटी, खड़गपुर के समुद्र विज्ञान संस्थान और केंद्र सरकार के डिपार्टमेंट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी के वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं की टीम ने अपने अध्ययन में पाया है कि जलवायु परिवर्तन से लक्षद्वीप में हर साल समुद्र का स्तर 0.4 मिमी से 0.9 मिमी तक बढ़ेगा. इसकी वजह से द्वीप के कई हिस्से समुद्र में समा जाएंगे. रिपोर्ट में वर्ष 2035 तक 70 से 80 फीसदी जमीन समुद्र के गर्भ में समाने का अंदेशा जताया गया है.
आईआईटी खड़गपुर के समुद्र विज्ञान संस्थान के प्रोफेसर प्रसाद के .भास्करन बताते हैं, "लक्षद्वीप में कई ऐसे छोटे द्वीप हैं जो जमीन की पतली पट्टी के तौर पर ही बच जाएंगे. इनमें सबसे ज्यादा नुकसान चेतलाट द्वीप को होगा. उसका 82 फीसदी हिस्सा पानी में डूब जाएगा.” रिपोर्ट में कहा गया है कि राजधानी कावारत्ती का 70 फीसदी हिस्सा भी प्रभावित होगा. अगाती स्थित द्वीप के एकमात्र एयरपोर्ट पर तो नुकसान का असर अभी से नजर आने लगा है. भास्करन बताते हैं कि रिपोर्ट में सरकार से बिप्रा, मिनिकॉय, कालपेनी, कावारत्ती, अगाती, कल्तान, कदमात और अमिनी द्वीप को बचाने के लिए तटों की सुरक्षा के ठोस कदम उठाने की सिफारिश की गई है.
जलवायु परिवर्तन की वजह से एंड्रोथ द्वीप को सबसे कम 30 फीसदी नुकसान होने की संभावना है. लक्षद्वीप की ज्यादातर आबादी को वहां बसाया जा सकता है. रिपोर्ट के मुताबिक, अरब सागर में समुद्र का जलस्तर बढ़ने की दर बंगाल की खाड़ी के मुकाबले तेज है. बंगाल की खाड़ी में ताजा पानी वाली कई नदियां मिलती हैं. इस वजह से उसके पानी का खारापन कम है. यही वजह है कि अंडमान निकोबार द्वीप समूह के मुकाबले लक्षद्वीप को ज्यादा खतरा है.
शोधकर्ताओं का कहना है कि तटवर्ती इलाकों के डूबने का व्यापक सामाजिक-आर्थिक असर होने का अंदेशा है. समुद्र के जलस्तर में वृद्धि की वजह से तटीय इलाकों में लोग सबसे अधिक प्रभावित हो सकते हैं. कई द्वीपों पर आवासीय इलाके तट के बेहद नजदीक हैं. वैज्ञानिक और जलवायु विशेषज्ञों की रिपोर्ट के मुताबिक, द्वीप पर मानव गतिविधियों में वृद्धि के चलते यहां पर कई नए खतरे पैदा होंगे.
प्रशासनिक फैसले
इस केंद्र शासित प्रदेश में बीते कुछ दिनों से विरोध के स्वर गूंज रहे हैं. इसकी वजह प्रशासक प्रफुल्ल पटेल की ओर से तैयार वह मसौदा है जिसमें स्थानीय कानूनों में कई बदलावों की सिफारिश की गई है. स्थानीय लोग उसका विरोध कर रहे हैं. कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी यह मुद्दा उठा चुके हैं. अब देश के 93 पूर्व नौकरशाहों ने लक्षद्वीप के मामले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिखा है. इनमें सी बालाचंद्रन, वजाहत हबीबुल्लाह, हर्ष मंदर, शिव शंकर मेनन और जूलियो रिबेरो शामिल हैं. पत्र में उक्त मसौदे को रद्द करने की अपील की गई है.
प्रफुल्ल पटेल ने लक्षद्वीप विकास प्राधिकरण विनियमन (एलडीएआर), लक्षद्वीप असामाजिक गतिविधियां रोकथाम विनियमन और लक्षद्वीप पशु संरक्षण विनियमन (एलएपीआर) का मसौदा केंद्रीय गृह मंत्रालय के पास भेजा है.
विकास योजनाओं से खतरा
पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि लक्षद्वीप को विकास की सख्त जरूरत है. लेकिन इन विकास परियोजनाओं को जलवायु परिवर्तन के नजरिये से देखना होगा. लगभग 70 हजार लोगों की आबादी वाला लक्षद्वीप भले ही पर्यटकों के लिए स्वर्ग नजर आता हो, हकीकत इसके उलट है. बीते दिनों में सरकार की तरफ से लक्षद्वीप के विकास को लेकर ऐसी योजनाओं का प्रस्ताव आया है जिनसे पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान होने और स्थानीय लोगों के अधिकारों का हनन होने की आशंका बढ़ गई है.
वरिष्ठ वैज्ञानिक और नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन के संस्थापक ट्रस्टी रोहन आर्थर अपने एक लेख में कहते हैं, "1998 के बाद से यहां के प्रवाल समूहों ने कम से कम दो बार ऐसी सामूहिक क्षति झेली है. समुद्र के लगातार गर्म होने की वजह से ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति होने लगी है. अब ऐसी घटनाओं के बीच का अंतराल भी घटने लगा है. इस समय 32 वर्ग किलोमीटर में फैले हुए लक्षद्वीप के द्वीपों पर 70 हजार लोग रहते हैं. आने वाले कुछ समय में उनके सामने एक विकराल सवाल खड़ा होगा कि आखिर वे लोग कब तक जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाले कठिन हालातों में यहां रह सकेंगे. लक्षद्वीप के लोग जलवायु परिवर्तन की वजह से विस्थापन झेलने वाले भारत के पहले समूह हो सकते हैं."
वर्ष 2014 मे आए जस्टिस रवींद्रन समिति की रिपोर्ट में कई सिफारिशें की गई थीं. इस रिपोर्ट में लक्षद्वीप और उसके समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र की संवेदनशीलता का जिक्र करते हुए उसे बचाए रखने के लिए तथाकथित विकास की एक सीमा तय करने की भी सिफारिश की गई थी. विडंबना यह है कि इस रिपोर्ट के सामने आने के बाद भी उसकी सिफारिशों को लगातार कमजोर ही किया गया है. नीति आयोग की ओर से लक्षद्वीप को विकसित करने की ताजा योजना को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है कि जस्टिस रवींद्रन कमेटी की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है.
रोहन कहते हैं कि लक्षद्वीप के लिए प्रस्तावित (ड्राफ्ट लक्षद्वीप डेवलपमेंट अथॉरिटी रेगुलेशन ऑफ 2021) विकास के मॉडल को देखने से यह बात शीशे की तरह साफ हो जाती है कि इसका पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से कोई लेना-देना नहीं है. विशेषज्ञों का कहना है कि लक्षद्वीप को विकास के नाम पर पूरी तरह खोलना, इसमें स्थानीय लोगों की कोई भूमिका नहीं होना और करीब 96 फीसदी मुस्लिम आबादी के बावजूद बीफ पर पाबंदी लगाने जैसे प्रस्ताव इसे समय से पहले ही पूरी तरह बर्बाद कर सकते हैं.