लड़की को खेलने का भी हक नहीं!
एपी के एक फोटोग्राफर ने कुछ अफगान महिलाओं की तस्वीरें खीचीं. इनमें ये महिलाएं अपने पसंदीदा खेल के साजो-सामान के साथ पोज कर रही हैं. ये तस्वीरें उनसे छीने जा रहे सपनों की ऐसी झलकियां हैं, जिन्हें देखकर दिल टूट जाता है.
महिलाओं को आसानी से नहीं मिले मौके
तालिबान के आने से पहले भी अफगानिस्तान के एक बड़े रूढ़िवादी तबके को महिलाओं की खेलों में हिस्सेदारी से दिक्कत थी. वो मानते थे कि ये लड़कियों-महिलाओं की "लाज-शरम" और घर की चारदीवारी में सीमित रहने की कथित परंपरागत भूमिका के मुताबिक नहीं है. लेकिन फिर भी अफगानिस्तान की पूर्व सरकार ने महिलाओं की खेल में हिस्सेदारी को बढ़ावा दिया.
तालिबान के आने से सब बदल गया
स्कूलों-कॉलेजों में क्लब और लीग शुरू हुए. कई खेलों में महिलाओं की टीम राष्ट्रीय स्तर पर खेलने लगी, लेकिन तालिबान के आने से सब बदल गया. 20 साल की सरीना मिक्स्ड मार्शल आर्टिस्ट थीं. सरीना अगस्त 2021 का एक दिन याद करती हैं, जब वो काबुल स्पोर्ट्स हॉल में एक स्थानीय टूर्नमेंट में खेल रही थीं. तभी खबर फैली कि तालिबानी लड़ाके काबुल के बाहरी हिस्से तक पहुंच गए हैं. सारी लड़कियां और महिलाएं डरकर भाग गईं.
खेलना अपराध बना दिया गया
वो आखिरी मुकाबला था, जब सरीना ने खेल सकी थीं. बाद के दिनों में उन्होंने लड़कियों को चुपचाप मार्शल आर्ट सिखाने की कोशिश की, लेकिन तालिबान ने उन्हें पकड़ लिया. हिरासत में उन्हें बेहद जलील किया गया. फिर कभी ना खेलने के वादे पर रिहाई मिली. सरीना जैसी ही कहानी 20 साल की नूरा की भी है. नूरा को फुटबॉल खेलने में बड़ा मजा आता था. वो मां की मार खातीं, पड़ोसियों की फब्तियां सुनतीं, मगर खेलना नहीं छोड़ा.
खेलने की बात भी राज रखनी पड़ी
जब तालिबान ने अफगान महिलाओं का खेलना बैन किया, तो नूरा मजबूर हो गईं. नूरा ने छुटपन में गली के लड़कों संग फुटबॉल खेलना शुरू किया था. लड़कियों की एक स्थानीय टीम में शामिल हो गईं. उन्होंने ये बात अपने पिता के सिवा बाकी सब से छिपाकर रखी. 13 साल का होने पर वो अपनी हमउम्र लड़कियों में सबसे अच्छी फुटबॉल खिलाड़ी चुनी गईं. नूरा की तस्वीर के साथ ये खबर टीवी पर भी दिखाई गई.
जूते और यूनिफॉर्म जला दिए गए
टीवी पर तस्वीर दिखाया जाना नूरा के लिए बड़ी मुसीबत बन गया. उनकी मां ने गुस्से में उन्हें पीटा-धमकाया. फिर भी नूरा ने चुपके से खेलना जारी रखा. उनकी टीम नेशनल चैंपियनशिप जीती और ये खबर टीवी पर आई. फिर नूरा की पिटाई हुई. मां ने उनके जूते और यूनिफॉर्म को जला दिया. नूरा छिपकर अवॉर्ड लेने गईं. वहां स्टेज पर अवॉर्ड लेते हुए जब लोगों ने तालियां बजाईं, तो नूरा पड़ीं.
मगर ये खुशी के आंसू नहीं थे
नूरा बताती हैं, "बस मैं जानती थी कि उस पल मैं अकेलेपन और जिंदगी की मुश्किलों के चलते रो रही थी." विरोध के चलते नूरा को फुटबॉल तो छोड़ना पड़ा, लेकिन उन्होंने खेलना नहीं छोड़ा. वो बॉक्सिंग करने लगीं. जिस रोज तालिबान काबुल में घुसा, नूरा की कोच ने उनकी मां को फोन करके कहा कि नूरा को एयरपोर्ट जाना चाहिए. मगर नूरा की मां ने कोच का मेसेज बेटी को नहीं बताया क्योंकि वो नहीं चाहती थीं कि नूरा बाहर जाए.
नूरा ने अपनी जान लेने की कोशिश की
जब तक नूरा को कोच का भेजा संदेश मिला, बहुत देर हो चुकी थी. निराश नूरा ने कलाई की नसें काट लीं. नूरा को अस्पताल ले जाया गया. वो बच तो गईं, लेकिन उनके सपने मार डाले गए. नूरा बताती हैं कि बस लड़कियों के खेलने पर पाबंदी नहीं लगी, बल्कि जो पहले कभी खेला करती थीं, उन्हें धमकाया और परेशान भी किया जा रहा है. अकेले में, घर के भीतर भी ना खेलने के लिए कहा जाता है.
जारी है दमन
तालिबान ने नूरा और उनके परिवार को भी धमकाया. नूरा कहती हैं, "जब से तालिबान आया, मुझे लगता है मैं मर चुकी हूं." ऐसी आपबीती बस नूरा की नहीं है. खेल से जुड़ी रहीं कई अफगान लड़कियों और महिलाओं ने एपी को बताया कि तालिबान ने उन्हें डराया-धमकाया है. कुछ के घर आकर, तो कुछ को फोन करके चेतावनी दी गई. निशाना बनाए जाने के डर से ही इन महिलाओं ने तस्वीर खिंचवाते हुए भी खुद को बुर्के में छुपाया.