फेमिनिज्म के नाम पर दुनिया भर में महिलाएं घर से बाहर निकल कर नौकरी करने का अधिकार मांगती रही हैं. आज जब उन्हें यह हक मिल चुका है, तो भी उनकी शिकायत दूर नहीं हुई है. क्योंकि अब उन्हें घर और दफ्तर दोनों का बोझ उठाना पड़ रहा है. तो फिर इसका तोड़ क्या है? सुप्रीम कोर्ट का इस पर क्या कहना है? भारत के अर्थशास्त्रियों की इस पर क्या राय है? पश्चिमी फेमिनिज्म क्या भारत के समाज पर लागू होता है?