बांग्लादेश में मुश्किल हालात में जीने को मजबूर लाखों बिहारी
१५ अक्टूबर २०१९बांग्लादेश में बिहारी शब्द उन मुस्लिमों के लिए इस्तेमाल किया जाता है जो बंगाली नहीं हैं. इनका मूल रूप से संबंध भारत के बिहार राज्य से है. 1947 में भारत और पाकिस्तान का विभाजन हो गया है. इस विभाजन के दौरान हिंसा हुई. इस हिंसा के दौरान बिहार से बड़ी संख्या में मुस्लिम पूर्वी पाकिस्तान चले गए. 1971 में पूर्वी पाकिस्तान अलग देश बन गया. देश बनने की वजह मुख्यत: भाषा और जातीयता थी. नए देश का नाम बांग्लादेश पड़ा. बांग्लादेश के आजाद होने से पहले ये लोग पाकिस्तान का समर्थन कर रहे थे. लेकिन बांग्लादेश बनने के बाद बिहार से गए बहुत सारे उर्दू बोलने वाले ये मुस्लिम पाकिस्तान नहीं जा सके. पहले पाकिस्तान का समर्थन करने की वजह से इन्हें बांग्लादेश की सरकार ने भी अपने समाज में घुलने मिलने का मौका नहीं दिया. इसका नतीजा ये हुआ कि हजारों की संख्या में इस समुदाय के लोग बांग्लादेश में दशकों से फंसे हुए हैं. वहां ये कैंपों में रह रहे हैं जहां इन्हें सामान्य अधिकार भी नहीं मिल पा रहे हैं.
दुखद जीवन को मजबूर
बिहारी मुसलमानों के लिए काम कर रहे एक स्थानीय एनजीओ के मुताबिक बांग्लादेश में करीब चार लाख बिहारी मुस्लिम कैंपों में रह रहे हैं. बांग्लादेश सरकार द्वारा हाल में जारी आंकड़ों के मुताबिक बिहारी मुसलमानों के बांग्लादेश में 116 कैंप हैं. ये देश के अलग अलग 13 जिलों में हैं. राजधानी ढाका में ऐसे 45 कैंपों में करीब एक लाख लोग रहते हैं. इन कैंपों की हालात बेहद बुरी है. कैंप में जाने के लिए मुश्किल से एक मीटर चौड़ा रास्ता है. उसमें भी पालतू जानवर बंधे होते हैं. इनके लिए टॉयलेट के बेहद खराब इंतजाम हैं. परिवार बेहद छोटे घरों में अपना जीवन बिताने को मजबूर हैं. बारिशों में इनके रहने की जगह एकदम बदहाल और कीचड़ से भरी हो जाती है.
बिहारी मुसलमान ज्यादा पढ़े लिखे भी नहीं हैं. ऐसे में उनको नौकरियां भी नहीं मिलती हैं. बांग्लादेश में अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष खालिद हुसैन ने बताया, "आपको कोई भी बिहारी ऊंचे पदों पर नहीं मिलेगा क्योंकि ये इतने पढ़े लिखे ही नहीं हैं जो ऐसे पदों पर पहुंच सकें." इस समुदाय के लोग अधिकतर बाल काटने, रिक्शा चलाने, ट्रांसपोर्ट में काम करने वाले या मिस्त्री का काम करते हैं. पैसे की कमी के चलते परिजन अपने बच्चों को भी छोटी उम्र में काम पर लगा देते हैं. इस वजह से बच्चे भी नहीं पढ़ पाते हैं.
2008 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बांग्लादेश की सरकार ने बिहारी लोगों के नाम बांग्लादेश की वोटर लिस्ट में जोड़े थे. इससे उन्हें मतदाता पहचान पत्र मिल सके जिससे वो अपनी पहचान साबित कर सकें. अधिकतर बिहारियों को बांग्लादेश का पासपोर्ट नहीं मिल सकता क्योंकि ये अस्थाई कैंपों में रहते हैं. जबकि पासपोर्ट पाने के लिए एक स्थाई पता होना जरूरी है. बिहारी मुसलमानों के संगठन उर्दू भाषी पुनर्वास आंदोलन के अध्यक्ष सदाकत खान फक्कू कहते हैं, "हम एक अमानवीय जीवन जीने को मजबूर हैं. पांच दशक बाद भी हमारे पास मूलभूत सुविधाएं नहीं हैं. सिर्फ पांच से दस प्रतिशत बिहारियों के पास शिक्षा प्राप्त करने का मौका है. हम भी हमारी मूलभूत जरूरतें पूरी करना चाहते हैं. हम भी हमारे बच्चों को स्कूल भेजना चाहते हैं."
घुल मिलने का एक मौका
बिहारियों को अभी भी सामाजिक रूप से बांग्लादेश विरोधी समझा जाता है. इसकी वजह है कि बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के दौरान बिहारियों ने पाकिस्तान का समर्थन किया था. इसलिए इन्हें आज भी पाकिस्तान समर्थक समझा जाता है. खालिद हुसैन कहते हैं, "हम बांग्लादेशी समाज के साथ घुलना मिलना चाहते हैं. हम कैंपों में अलग थलग नहीं रहना चाहते हैं. हम बांग्लादेश विरोधी होने का बोझ भी नहीं ढोना चाहते हैं. हम सरकार से मांग करते हैं कि शिक्षा और नौकरियों में हमें आरक्षण दें जिससे हम गरीबी और अशिक्षा से बाहर आ सकें और सामान्य जीवन जी सकें." बांग्लादेश की सरकार फिलहाल बिहारियों को ढाका से बाहर एक जगह पर बसाने की योजना बना रही है. सरकार की योजना है कि एक हजार एकड जगह पर बिहारियों के लिए मल्टी स्टोरी बिल्डिंग बना दी जाए. इन बिल्डिंगों के लिए बिहारी महीने या साल के हिसाब से किश्तें भरेंगे.
बांग्लादेश योजना आयोग की मूलभूत ढांचा निर्माण विभाग की सदस्य शमीमा नरगिस का कहना है, "ये योजना अभी बहुत प्रारंभिक दौर में हैं. इसकी अभी स्टडी करवाई जा रही है. अगर यह लागू करने लायक योजना होगी तो ऐसा किया जाएगा." हालांकि खालिद का कहना है कि ये भी बिहारियों को अलग थलग करने की कोशिश जैसा ही है. वो कहते हैं, "हम बांग्लादेशी समाज में मिलने का मौका चाहते हैं. हम उनके समाज के साथ रहना चाहते हैं. हम कहीं और नए कैंपों में रहना नहीं चाहते हैं."
पाकिस्तान नहीं ले रहा है कोई सुध
1974 में भारत की मध्यस्थता के चलते बांग्लादेश और पाकिस्तान के बीच में बिहारी मुसलमानों को लेकर एक समझौता हुआ था. न्यू यॉर्क यूनिवर्सिटी में शोध कर रहे जगलुल हैदर के मुताबिक इस समझौते के तहत 1975 से 1993 के बीच 1,78,069 बिहारियों को बांग्लादेश से पाकिस्तान भेजा गया था. लेकिन अब पाकिस्तान भी बांग्लादेश में रह रहे इन बिहारियों की कोई सुध नहीं ले रहा है.
कराची में रहने वाले विश्लेषक अब्दुल सत्तार कहते हैं, "पाकिस्तान के बिहारियों पर ध्यान ना देने के फिलहाल बहुत सारे कारण हैं. पाकिस्तान शायद अब और लोगों को लेने का बोझ नहीं सह सकता. अफगानिस्तान से आए 10 लाख शरणार्थियों का इंतजाम करने में ही पाकिस्तान को परेशानियां हो रही हैं. 1990 के दशक में जब बिहारियों का जत्था वहां पहुंचा था तो सिंध के स्थानीय लोगों ने इसका बहुत विरोध किया था. तब से पाकिस्तान की सरकार ने बिहारियों के लाने पर ध्यान देना बंद कर दिया."
ढाका से समीर कुमार डे के इनपुट के साथ राहत राफे
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