हिमालय के ऊंचे जंगलों से गायब होते परिन्दे
१५ जून २०२१शोधकर्ताओं के मुताबिक उत्तराखंड के हिमालयी क्षेत्र में 1700 और 2400 मीटर की ऊंचाई पर स्थित जंगलों में जिन चिड़ियों के बसेरे खत्म होने की बड़ी वजह है- जंगलों का कटान, प्रदूषण, पर्यटन गतिविधियां और अतिक्रमण. मोनोकल्चर यानी एक ही पेड़ वाले जंगलों में भी चिड़िया प्रजातियों की विविधता में कमी देखी गयी. फूलों से पराग और पौधों के बीज लेकर यहां से वहां उड़ने वाली और इस तरह जैव विविधता में मददगार चिड़िया और खेत खलिहानों और बागानों में कीड़ों को खाने वाली चिड़िया भी कम हो रही हैं. परिष्कृत वनों में कीट भक्षी पक्षियों और फॉरेस्ट स्पेशलिस्ट कहलाने वाली चिड़ियाओं की संख्या में 60 से 80 प्रतिशत की गिरावट आई है.
शोध में 1700 और 2400 मीटर की ऊंचाई पर करीब 1285 वर्ग किलोमीटर का एरिया शामिल किया गया था. शोध के दायरे में छह किस्म की भू-उपयोगों वाले इलाके शामिल थे. प्राकृतिक ओक वन, अवनत ओक वन (कम इस्तेमाल किया हुआ), छंटाई वाला ओक वन (अत्यधिक इस्तेमाल किया हुआ), चीड़ के जंगल, कृषि पैदावार क्षेत्र और इमारती रिहाइशों को अध्ययन में रखा गया था. देहरादून स्थित सेंटर फॉर इकोलजी, डेवलेपमेंट ऐंड रिसर्च (सेडार) और हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेलुलर ऐंड मॉलीक्यूलर बायोलजी (सीसीएमबी) के वैज्ञानिकों के इस साझा अध्ययन में पक्षियों के ब्रीडिंग सीजन का भी सर्वे किया गया.
देश भर में कम होती चिड़िया
सेडार की वैज्ञानिक और ताजा शोधपत्र की प्रथम लेखक गजाला शहाबुद्दीन ने द हिंदू अखबार को बताया कि लैंड यूज में बदलाव वाले इलाकों की उन पक्षी प्रजातियों की संख्या में गिरावट देखी गयी है जो मिलीजुली या समान रिहाइशों में रहती हैं. कुछ चिड़िया घने जंगलों में ही रहने की आदी होती हैं जबकि कुछ फलों के बागीचों, खलिहानों और छोटे जंगलों के हिसाब से खुद को ढाल लेती हैं. शोधकर्ताओं ने पाया कि रफोस बेलीड वुडपेकर, ग्रेटर यलोनेप, रफोस सिबिया, व्हाइट थ्रोटेड लाफिंग थ्रश और ब्लैक फेस्ट वार्बलर जैसी सघन ओक वन की चिड़ियाएं बदली हुई रिहाइश से गायब मिलीं. शोध में कठफोड़वों की संख्या का संबंध तमाम पक्षियों की मौजूदगी से पाया गया. यानी जिस जगह पर जितने अधिक कठफोड़वे थे वहां उतनी ही ज्यादा चिड़िया पायी गयीं. पेड़ों पर सूराख करने वाले कठफोड़वों की इस नायाब हरकत का लाभ अन्य पक्षियों को मिलता है जो उन सूराखों में अपने घोंसले बना लेते हैं.
वैसे बात सिर्फ हिमालयी क्षेत्र में पक्षियों की संख्या में गिरावट की ही नहीं है, पूरे देश में चिड़िया आबादी में भारी कमी देखी जा रही है. स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड रिपोर्टः 2020 के मुताबिक भारत में 867 पक्षी प्रजातियो में से करीब 80 प्रतिशत आबादी पिछले पांच छह साल के दरमियान कम हुई है. पिछले साल फरवरी में जारी हुई इस रिपोर्ट का डाटा देश भर से 15 हजारा पक्षी-निहारकों के एक करोड़ पर्यवेक्षणों की मदद से तैयार किया गया था. रिपोर्ट में 101 प्रजातियों के संरक्षण को लेकर चिंता भी जतायी गयी. तेजी से खत्म हो रही प्रजातियों में रैप्टर, चील, गिद्ध, वार्बलर, मिनिवेट, कॉमन वुडश्राइक, शलार्ज कुकूश्राइक, कॉमन ग्रीनशांक, रफोस टेल्ड लार्क, ओरिएंटल स्काइलार्क, रेडनेक फाल्कन आदि शामिल हैं.
पहाड़ी परिन्दों की रिहाइश में खलल
वैज्ञानिकों के मुताबिक जंगल के इलाकों में इंसानी हलचलों के साथ साथ इलाके से बाहर की प्रजातियों की आमद भी देखने को मिली है. जैसे इस ऊंचाई पर कबूतर और काली चील आ गई हैं क्योंकि उनकी अपनी रिहाइशें भी खतरे में पड़ चुकी हैं. लैंड यूज बदले जाने से भूजल का स्तर भी गिरा है, कुदरती झरने और धारे सूखे हैं और ईकोसिस्टम के लिए अहम पक्षी गायब हो रहे हैं. ताजा अध्ययन कुदरती रिहाइशों में परिंदों की सघनता और उपस्थिति में आ रही 25-75 प्रतिशत की गिरावट को दिखाता है. जिसे वैज्ञानिक "डिफॉनेशन” यानी पशु-पक्षियों की घोर किल्लत कहते हैं.
वन क्षेत्रों में बढ़ते इंसानी दखल, अतिक्रमण और जलवायु परिवर्तन की वजह से आ रही इस किल्लत का दूरगामी असर पैदावार, परागण, जैव विविधता, खाद्य उत्पादन और एक लिहाज से समूचे ईकोसिस्टम पर पड़ेगा जिसमें फूल पर मंडराती एक मधुमक्खी और एक तितली से लेकर हिमालय की ऊंची वादियों में एक ऊंचे पेड़ की डाल पर गाती एक नन्हीं चिड़िया तक की बुनियादी अहमियत है. वैसे गिनती और कमी को लेकर शोध और रिपोर्टें तो हैं लेकिन ऐसी व्यापक और बारीक छानबीन वाली रिपोर्ट का आना बहुत जरूरी है जिससे ये पता चल सकेगा कि भारत के विभिन्न भूगोलों में पक्षियों का रहनसहन, उड़ान, प्रजनन व्यवहार आदि कैसा है या उसमें कोई उल्लेखनीय बदलाव आया है या नहीं.
घटते जंगल चिंता का सबब
मध्य हिमालयी क्षेत्र में सबसे अधिक लैंड यूज बदलाव की गतिविधियां देखने को मिल रही हैं. और आगे भी ये सिलसिला और तेज होने की आशंका है. इसमें जाहिर है निर्माण गतिविधियां भी शामिल हैं. बांध बनाने से लेकर, पर्यटन योजनाएं, सड़क विस्तारीकरण, इमारतों और रिहाइश इलाकों का निर्माण आदि से कुदरती पर्यावरण छिन्नभिन्न हो रहा है. इन इलाकों के जंगली पेड़ भी खतरे की जद में हैं. जिसका एक डरावना नमूना पर्यावरणविदों के मुताबिक चार धाम सड़क परियोजना में बड़े पैमानों पर काटे गए पेड़ों और जंगलों के समतलीकरण के रुप में दिखा था.
लेकिन आखिरकार बात सिर्फ उत्तराखंड के जंगलों और पहाड़ों की नहीं है, जैव विविधता संपन्न देश के विभिन्न हिस्से आज इस खतरे से जूझ रहे हैं. और वैज्ञानिक और विशेषज्ञ लगातार अंधाधुंध विकास के खिलाफ लगातार आगाह करा रहे हैं. वैज्ञानिक हिमालयी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर फॉरेस्ट लॉस से भी आगाह करा रहे हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक जंगल इसी रफ्तार से मिटते रहे तो 2100 तक भारतीय हिमालय में 10 प्रतिशत से थोड़ा अधिक ही सघन वन रह जाएगा. उस हालात में स्थानीय पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की करीब एक चौथाई स्थानीय प्रजातियां खत्म हो सकती हैं.
ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी