नवजातों में बढ़ते मोतियाबिंद के मामलों ने बढ़ाई चिंता
१ नवम्बर २०२२ऐसा क्यों हो रहा है इस पर नेत्र विशेषज्ञों में भी आम राय नहीं है. इससे पहले उत्तर भारत के संदर्भ में इंडियन जर्नल ऑफ आप्थामोलॉजी के जुलाई अंक में भी ऐसी एक रिपोर्ट छपी थी. डॉक्टरों ने बताया कि बच्चों में मोतियाबिंद की घटनाएं वास्तव में कई कारणों से बढ़ रही हैं. मोतियाबिंद आंख के प्राकृतिक लेंस की पारदर्शिता पर असर करता है.
हैदराबाद के एल.वी प्रसाद नेत्र संस्थान के बाल नेत्र चिकित्सा विभाग के प्रमुख डा. रमेश केकुन्नाया बताते हैं, "अगर बचपन में मोतियाबिंद का इलाज नहीं किया गया तो यह किशोरावस्था तक बढ़ता रहता है. अंधेपन से बचाने के लिए ऑपरेशन जरूरी है. हम अब तक 30 हजार से ज्यादा ऐसे ऑपरेशन कर चुके हैं. हर साल करीब सात से नौ हजार ऐसे मामले सामने आते हैं. उसमें तीन से चार हजार मरीज यहां पहुंचते हैं.”
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शहरों में ज्यादा मामले
नवजात शिशुओं में मोतियाबिंद होने की घटना कोई नई नहीं है. लेकिन हाल के वर्षों में ऐसे मामले जिस तेजी से बढ़ रहे हैं वह विशेषज्ञों के लिए चिंता का विषय बन गया है. हैदराबाद के नेत्र विशेषज्ञ सत्य प्रसाद बाल्की बताते हैं, "संभवतः मां के गर्भ में किसी जीवाणु या डाउन सिंड्रोम के कारण ऐसे मामले बढ़ रहे हैं.” उनके मुताबिक, नवजात शिशुओं में जन्मजात मोतियाबिंद देखा जाता है. यह आमतौर पर माताओं में संक्रमण या डाउन सिंड्रोम जैसी अन्य बीमारियों से जुड़ा होता है. प्रसाद का कहना है, "दस साल पहले की तुलना में ग्रामीण इलाकों में प्रसव से पहले बेहतर देखभाल और माताओं में संक्रमण में गिरावट के कारण इसके मामलों में गिरावट आई है. शहरी आबादी में स्टेरॉयड के दुरुपयोग, आनुवंशिक कारणों, बीमारियों और समय से पहले जन्म जैसे कारणों से जन्मजात मोतियाबिंद की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं.”
कोलकाता के मशहूर नेत्र विशेषज्ञ डॉ. देवजित चक्रवर्ती बताते हैं, "भारत में मोतियाबिंद बच्चों में अंधेपन का एक प्रमुख कारण है. बचपन में अंधेपन के लगभग 15 फीसदी मामले आनुवंशिकता के कारण होते हैं. भारत में लगभग 3 से 3.5 लाख नेत्रहीन बच्चे हैं, जिनमें से 15 फीसदी को मोतियाबिंद होने का अनुमान है. हर साल 20 से 40 हजार बच्चे इसके साथ पैदा होते हैं.”
कोलकाता के ही नेत्र विशेषज्ञ डा. गणेश मंडल बताते हैं कि कई कारणों से भारत में बच्चों में मोतियाबिंद की घटनाएं बढ़ रही हैं. बच्चों में अस्थमा के मामले भी बढ़ रहे हैं. स्टेरॉयड अक्सर इन मामलों में इलाज के लिए मुख्य दवा के रूप में उपयोग किया जाता है. यह मोतियाबिंद का कारण बन सकता है. इसके साथ ही अगर कम उम्र में मोतियाबिंद होने का पारिवारिक इतिहास है तो जन्मजात मोतियाबिंद होने की संभावना बढ़ जाती है.
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विशेषज्ञों में इस बात पर आम राय है कि पांच साल पहले तक ऐसी स्थिति नहीं थी. डा. चक्रवर्ती बताते हैं, "पहले की तुलना में नवजात शिशुओं की मृत्यु दर में गिरावट आई है. गर्भ में संकट जनक स्थिति में रहने वाले शिशुओं को बचाने लिए जो जीवन रक्षक दवाएं दी जाती हैं, उनमें स्टेरॉयड होता है. यह भी उनमें जन्मजात मोतियाबिंद की एक प्रमुख वजह है. लेकिन समय पर इलाज से इसे दूर करना संभव है.”
क्या है मोतियाबिंद
मोतियाबिंद तब होता है, जब पीड़ित व्यक्ति की आंख के प्राकृतिक लेंस में क्लाउड बन जाता है, जिससे पीड़ित व्यक्ति के आंख की लेंस में प्रोटीन टूट जाते हैं और चीजें धुंधली या कम रंगीन दिखने लगती है. इंसान की आंखों के अंदर एक प्राकृतिक लेंस होता है. यह आंखों में आने वाली प्रकाश किरणों को रिफ्लेक्ट करता है. इसी वजह से इंसान किसी चीज को देख सकता है.
कई मामलों में जन्म के समय आंख का लेंस साफ होने के बजाय उसमें क्लाउड आ जाता है. इससे पीड़ित बच्चे का देखना मुश्किल हो जाता है. जन्मजात मोतियाबिंद एक या दोनों आंखों में हो सकता है. समय रहते इलाज ना होने की स्थिति में आगे चलकर यह अंधेपन का कारण बन सकता है.
विशेषज्ञों का कहना है कि जीन या क्रोमोसोम में बदलाव, गर्भावस्था के दौरान चोट लगना, समय से पहले जन्म, गर्भावस्था के दौरान हाइपोग्लाइसीमिया होने और गर्भावस्था के दौरान माता को होने वाले विभिन्न संक्रमण इसकी प्रमुख वजहें हैं. मोतियाबिंद के साथ पैदा होने वाले शिशुओं का इलाज दो तरीकों से होता है. इनमें एक है सर्जरी और दूसरा पैच थेरापी. कोलकाता में नेत्र विशेषज्ञ डॉ. सोहिनी हालदार बताती हैं, "बचपन में मोतियाबिंद के लक्षण हर बच्चे में अलग-अलग हो सकते हैं. कुछ बच्चों की एक या दोनों आंखों में लेंस मोतियाबिंद का शिकार हो जाता है. इसका शीघ्र इलाज जरूरी है. किसी भी देरी से बच्चों में देखने की ताकत बहुत कम या खत्म हो सकती है.”
डा. चक्रवर्ती बताते हैं कि ऐसे बच्चों के इलाज का सही समय छह सप्ताह से छह महीने की उम्र तक है. तब ऐसे बच्चों को अंधेपन से बचाया जा सकता है.