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कोविड-19 में पीछे छूटी टीबी के खिलाफ लड़ाई

२५ जून २०२१

दुनिया में हर साल 15 लाख लोग टीबी से दम तोड़ देते हैं, जबकि इस बीमारी का इलाज संभव है और बच्चों के लिए इसका टीका भी. कोरोना के चलते भी टीबी जैसी गंभीर बीमारी के खिलाफ मिली सफलताओं पर ब्रेक लगे हैं.

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तस्वीर: Remko De Waal/ANP/dpa/picture alliance

2010 में दक्षिण अफ्रीका की केप टाउन यूनिवर्सिटी में प्रथम वर्ष की छात्रा फुमेजा टिसिले ने गौर किया था कि वो दूसरे विद्यार्थियों की तरह सीढ़ियां नहीं चढ़ पा रही थीं. वो जल्दी थक जातीं और वजन भी काफी गिर गया था. टिसिले ने डीडब्लू को बताया, "तभी मुझे पता चला कि कुछ गड़बड़ है. लेकिन मुझे बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि वो टीबी हो सकता था.” जब और कोई बीमारी नहीं निकली तो आखिरकार छाती का एक्सरे लिया गया. उसमें पता चला कि टिसिले को टीबी हो गया था. इसके बाद उपचार का सफर शुरू हो गया जिसमें तीन साल और आठ महीने लग गए.

टीबी का इलाज संभव है और उसे रोका भी जा सकता है, उसके बावजूद इस बीमारी से, डब्लूएचओ के मुताबिक, 2019 में 14 लाख लोग मारे गए थे. एचआईवी और मलेरिया से भी ज्यादा मौतें टीबी से हुई हैं. इस तरह ये दुनिया की सबसे ज्यादा संक्रामक और जानलेवा बीमारी मानी जाती है. टीबी से संक्रमित लोगों की करीब आधी संख्या आठ विकासशील देशों में बसर करती है. लेकिन टीबी के मामले कई देशों में आते रहते हैं.

चार मार्च 2021 को जर्मन शहर क्रेफेल्ड ने 17 साल के एक छात्र के टीबी से मारे जाने की घोषणा की थी. रोग नियंत्रण और बचाव के लिए जिम्मेदार जर्मन सरकार की एजेंसी रॉबर्ट कोख संस्थान के मुताबिक, 2019 में जर्मनी में टीबी के 4791 मामले थे और 129 लोग इस बीमारी से मारे गए थे. 

टीबी है क्या?

टीबी माइकोबैक्टीरियम नाम के एक बैक्टीरिया से होता है और ये आमतौर पर फेफड़ों पर असर करता है. लेकिन ये शरीर के दूसरे हिस्सों में भी हो सकता है. टीबी के मरीज जब खांसते, छींकते या थूकते हैं तो ये हवा में फैलता है. एक बर्तन से खाने, हाथ मिलाने, गले लगने, कपड़े या चादर या टॉयलेट सीट को छूने, सेक्स करने या चूमने से टीबी नहीं फैलता है. खांसी, छाती दर्द, थकान, बुखार और वजन में गिरावट इसके लक्षण हैं.

संक्रमित तभी हो सकते हैं जब बहुत नजदीकी या बहुत लंबे समय तक संपर्क में रहें. डब्लूएचओ के मुताबिक दुनिया की एक चौथाई आबादी का, टीबी के बैक्टीरिया से संक्रमित होने का अनुमान है. इनमें से पांच से 15 प्रतिशत लोगों को ही एक्टिव टीबी होता है. बहुत से लोगों का कुछ हफ्ते इलाज चलता है तो वे ठीक हो जाते हैं और संक्रामक नहीं रह जाते.

भीड़भाड़ वाली जगहों और तंग घरों, कुपोषण, एचआईवी, नशे की लत और डायबिटीज टीबी के कुछ रिस्क फैक्टर हैं. लोगों में लंबे समय से टीबी का संक्रमण छिपा हुआ रह सकता है जो सालों बाद कभी रोग-प्रतिरोधक प्रणाली के कमजोर पड़ने की स्थिति में सक्रिय हो सकता है.

टीबी के खिलाफ अभियान को धक्का

सार्स-कोवी-2 का टीका बनाने के लिए वैज्ञानिकों ने दिनरात काम किया है. लेकिन टीबी के लिए एक अकेला असरदार टीका बैसीले कालमेटे-ग्युरिन यानी बीसीजी का है. 1921 में पहली बार इंसानों पर इसका परीक्षण किया गया था. बीसीजी टीका बच्चों में बहुत असर करता है लेकिन बड़ों पर उतना असरदार नहीं होता. 

वैज्ञानिकों ने हाल में बीसीजी पर आधारित हाल में एक और टीका बनाया. क्लिनिकल परीक्षण सफल रहे तो टीके को अगले कुछ साल में टीबी के खिलाफ दुनिया भर में इस्तेमाल किया जाने लगेगा.

विश्व स्वास्थ्य संगठन, डब्लूएचओ के मुताबिक 2019 के मुकाबले 2020 में टीबी का उपचार पाने वाले करीब 14 लाख लोग कम थे. 80 से ज्यादा देशों से मिले शुरुआती डाटा के आधार पर ये बताया गया. सबसे ज्यादा तुलनात्मक अंतराल इंडोनेशिया (42 प्रतिशत कम टीबी मरीज), दक्षिण अफ्रीका (41 प्रतिशत कम टीबी मरीज), फिलीपींस (37 प्रतिशत कम टीबी मरीज) और भारत (25 प्रतिशत कम टीबी मरीज) में पाया गया.

डब्लूएचओ ने आशंका जताई है कि 2020 में पांच लाख से ज्यादा लोग टीबी से मारे गए हो सकते हैं क्योंकि वे डायग्नोसिस हासिल करने में असमर्थ थे. डब्लूएचओ के महानिदेशक तेद्रोस गेब्रेयीसस का कहना है कि कोविड-19 के असर, उससे होने वाली मौत और बीमारी से बहुत आगे हैं. उनके मुताबिक, "टीबी के मरीजों को मिलने वाली अनिवार्य सेवाओं में आयी बाधा इस बात का एक त्रासद उदाहरण है कि महामारी किस तरह दुनिया के सबसे गरीब लोगों को कितने अनापशनाप ढंग से प्रभावित कर रही है जो पहले से ही टीबी की चपेट में हैं.”

12 साल की बढ़त खत्म

टीबी के खात्मे पर काम कर रहे संगठनों के एक समूह- स्टॉप टीबी पार्टनरशिप की एक प्रकाशित रिसर्च में बताया गया है कि कोविड के 12 महीनों ने टीबी के खिलाफ लड़ाई में हासिल हुई 12 साल की बढ़त को खत्म कर दिया है. दुनिया में टीबी के 60 प्रतिशत मामलों वाले नौ देशों से मिले डाटा के मुताबिक 2020 में टीबी संक्रमण की पहचान और उपचार में बड़ी गिरावट दर्ज की गयी थी- 16 से 41 प्रतिशत की गिरावट.

स्टॉप टीबी पार्टनरशिप का कहना है कि इस गिरावट से ये देश, टीबी के मरीजों की पहचान और बीमारी के उपचार के मामले में 2008 वाली स्थिति में आ गए हैं. संगठन के मुताबिक भारत और दक्षिण अफ्रीका से आ रहा डाटा दिखाता है कि टीबी के साथ साथ कोविड-19 से संक्रमित लोगों की मृत्यु दर, सिर्फ टीबी से संक्रमित लोगों की मृत्यु दर के मुकाबले तीन गुना ज्यादा है.

एक हेल्थ रिसर्च संगठन आईआरडी ग्लोबल में क्लिनिशियन और चिकित्सा निदेशक उजमा खान इन दिनों एक बहुदेशीय क्लिनिकल ट्रायल से जुड़ी हैं. ये ट्रायल मल्टी-ड्रग-निरोधी टीबी उपचार पर केंद्रित है जो कम अवधि वाला, ज्यादा असरदार और कम विषैला हो. उज्मा खान ने डीडब्लू को बताया कि टीबी की लड़ाई, कोविड-19 जैसी बीमारियों को मिल रही ज्यादा तवज्जो की वजह से कमतर हुई है.

टीबी से बचाने के लिए नई वैक्सीन

रिकवरी और उपचार का लंबा रास्ता

टीबी का इलाज संभव है लेकिन लंबा चलता है, उसके साइड इफेक्ट तीखे हो सकते हैं और उसमें बहुत सारी दवाएं लगती हैं जिन्हें उपचार के फुल कोर्स के तहत हर रोज लेना होता है, भले ही मरीज खुद को स्वस्थ महसूस करने लगे. बीमारी कई रूपों में आती है. नियमित टीबी का उपचार करीब छह महीने चलता है. अगर मरीज बीच में ही दवा रोक देता है तो उसे एमडीआर-टीबी हो सकता है. इसमें अलग और ज्यादा तीखी टॉक्सिक दवाएं दी जाती हैं और स्ट्रेन को देखते हुए इलाज में एक से दो साल लग जाते हैं. संक्रमित व्यक्ति से भी एमडीआर-टीबी हो सकता है. विस्तृत दवा-रोधी टीबी, एमडीआर-टीबी की ही एक दुर्लभ किस्म है.

टीबी की आम दवाओं से कोई सुधार न होता देख, दक्षिण अफ्रीकी छात्रा टिसिले ने एमडीआर-टीबी का उपचार शुरू किया और हर रोज दवाएं खाईं और एक इंजेक्शन लिया. चार महीने के इलाज ने उन्हें दोनों कानों से बहरा कर दिया, जो इंजेक्शन से दी जाने वाली दवा कैनामाइसिन का साइड इफेक्ट था. अब इलाज में इसकी मनाही हो चुकी है. अपने शरीर में पहले लक्षणों के उभरने के करीब एक साल बाद, उसमें विस्तृत दवा-रोधी टीबी की पहचान हुई जो इस बीमारी का सबसे घातक रूप है. टिसिले को बताया गया कि उनके बचने की 20 प्रतिशत संभावना ही है.

लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी. दो कॉकलियर इम्प्लांट के बाद वो फिर से सुनने लगीं. टिसिले पढ़ाई की दुनिया में लौट आईं. 2020 के आखिर में केप टाउन यूनिवर्सिटी से वो सोशल साइंसेस की डिग्री के साथ निकलीं. वो अब टीबी की लड़ाई में एडवोकेट हैं और कम खतरनाक और कम विषैले उपचारों के लिए अभियान चलाकर लोगों को बीमारी के बारे में जागरूक करती हैं. 

टीबी के और जटिल मामलों में इलाज न मिल पाना एक दूसरी समस्या है. रेगुलर टीबी का मरीज घर पर रहकर अपने लिए घरवालों से रोज दवाएं मंगा सकता है. लेकिन उज्मा खान के मुताबिक एमडीआर-टीबी का इलाज हर देश में अलग अलग है. वो कहती हैं, "एमडीआर-टीबी का मामला तो बिल्कुल ही अलग है. केयर डिलीवरी के मामले में बहुत ही केंद्रीकृत व्यवस्था है. लंबी दूरियां नापकर मरीजों को सेंटरों में इलाज के लिए आना पड़ता है, लैब टेस्ट कराने पड़ते हैं और हर चीज की कीमत चुकानी पड़ती है.”

शर्म और संकोच से छुटकारा

जब टिसिले टीबी अस्पताल में थीं, उन्होंने कोई भेदभाव नहीं महसूस किया, लेकिन जब वो मास्क पहनकर एक आम अस्पताल पहुंचीं तो उनके साथ अलग व्यवहार हुआ. टिसिले कहती हैं, "लोग बिना कुछ कहे भी आपके खिलाफ थे, ये दिखता था.”

टीबी मरीजों का इलाज और उनके पास आते जाते रहने से स्वास्थ्यकर्मियों को भी संक्रमण का खतरा रहता है. उज्मा खान का हाल में ऑक्युलर टीबी का इलाज चला था. ये फेफड़ों के बाहर होने वाला एक दुर्लभ किस्म का टीबी होता है. अपने इलाज के दौरान उन्हें समझ आया कि टीबी मरीजों पर क्या बीतती होगी. एक साल तक हर रोज उन्होंने दवाएं लीं जिनसे उनके जोड़ों में दर्द होने लगा.

टिसिले कहती हैं कि कोविड से मिले सबक टीबी में इस्तेमाल किए जा सकते हैं, खासकर मास्क पहनने के मामले में. "टीबी के मरीजों को क्लिनिक और अस्पताल में मास्क पहनने में बहुत शर्म आती थी क्योंकि उन्हें डर था कि लोग उनसे छुआछूत करेंगे और उनके बारे में न जाने कितनी बातें बनाएंगे.”

वो मानती हैं कि लोगों को टीबी होने की शर्म में नहीं पड़ना चाहिए और जो भी आगे बढ़कर अपनी बात कह सके वो अच्छा है क्योंकि अगले व्यक्ति को उससे आसानी होगी. टिसिले कहती हैं, "मैं अब भी समझ नहीं पाती हूं कि लोग टीबी को इतनी अहम बीमारी की तरह नहीं देखते हैं. मैं जानती हूं कि इस पर गरीबों की बीमारी का तमगा लगा है लेकिन ये बात भी तो सच है कि सांस लेने वाले और जिंदा रहने वाले हर इंसान को टीबी हो सकता है.”

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