केंद्रीय कानून मंत्री किरण रिजिजू ने सुप्रीम कोर्ट के साथ जारी विवाद में हाईकोर्ट में किसी महिला के चीफ जस्टिस न होने की शिकायत की है. यह बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है, क्योंकि आमतौर पर हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस ही सुप्रीम कोर्ट पहुंचते हैं. हालांकि, ऐसी नियुक्ति में मुश्किल कहां है, इसका अंदाजा कानून मंत्री को भी होगा. उनकी सरकार भी संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटों के आरक्षण का कानून पास नहीं करवा पा रही है, जबकि यह बात 2014 से ही बीजेपी के चुनावी घोषणा पत्रों में लिखी है. उधर कांग्रेस पहले ही यह बिल ला चुकी है, तो वह विरोध नहीं करेगी. फिर भी अगर यह बिल पेश नहीं किया जा रहा है, तो मंशा पर सवाल उठना लाजिमी है.
सवाल यह है कि जो बाधाएं बड़ी अदालतों के वरिष्ठ अधिकारियों के दिमाग में हैं, क्या वही बाधाएं सरकार और संसद में काम कर रही हैं? यह स्वीकार करना होगा कि बहुत से दूसरे समाजों की तरह भारतीय समाज भी पुरुष प्रधान है, जो महिलाओं को समानता के मौके देने का विरोध भले न करे, लेकिन उसे हर कदम पर रोकता जरूर है. यह बात घर से बाहर सुरक्षा के सवाल से लेकर पढ़ाई करने और नौकरी में समान मौकों और समानता के सवालों पर हर दिन देखी जा सकती है.
बदलाव के लिए पुरजोर प्रयासों की जरूरत
लैंगिक समानता सिर्फ इसलिए जरूरी नहीं कि संविधान इसकी गारंटी देता है. यह इसलिए भी जरूरी है कि भारत के विकास के 'अमृत काल' में सभी नागरिकों की क्षमताओं का इस्तेमाल किया जा सके. हम घर के आंगन और किचन से लेकर बड़ी-बड़ी परियोजनाओं में कहीं भी देखें, महिलाओं की कमी हर मोर्चे पर दिखती है. और उन कमियों पर हम ध्यान न भी दें, लेकिन वह विकास को प्रभावित तो करता ही है.
भारत में पुराने समय में भले ही महिलाओं के दमन के उदाहरण मिलें, लेकिन उस समय एक हद तक अपेक्षाकृत समानता इसलिए भी थी, क्योंकि सामाजिक अर्थव्यवस्था में पुरुषों और महिलाओं का योगदान लगभग बराबर था. आधुनिकता ने स्थिति बदल दी है, जहां इंसान मशीनों पर निर्भर होता जा रहा है. ऐसे में देखना जरूरी है कि मशीनें कौन बना रहा है और किसे ध्यान में रखकर बना रहा है. संगीत के यंत्रों को ही ले लीजिए. वे पुरुष संगीतकारों को ध्यान में रखकर बनाए जाते हैं और महिलाओं को उनका इस्तेमाल करना है, तो करें या न करें. लेकिन उनके विकास में यदि महिलाओं की भागीदारी होगी, तो वे ग्राहकों के रूप में महिलाओं के बारे में भी सोचेंगी. अब वह किचन हो, खाना बनाने की कोई मशीन, वाद्य यंत्र या फिर कार.
मिसाल हैं स्केंडिनेविया के देश
लैंगिक समानता के मामले में उत्तर यूरोप के देश पूरी दुनिया के लिए मिसाल हैं. लैंगिक बराबरी का मतलब है संसाधनों और अवसरों के मामले में पुरुषों और महिलाओं के लिए बराबर के मौके. यूरोपीय संघ की लैंगिक समानता नीति का मकसद ये है कि लड़के और लड़कियां अपनी विविधता बनाए हुए जिंदगी के अपने चुने रास्ते पर चल सकें और इसके लिए उन्हें बराबर का मौका मिले. फिर भी पुरुषों और महिलाओं की आय का अंतर बना हुआ है.
लैंगिक समानता के मामले में उत्तर यूरोप के देश पूरी दुनिया के लिए मिसाल हैं. लैंगिक समानता के मामले में इलाके के देश सबसे आगे हैं. आइसलैंड पहले नंबर है, लेकिन फिनलैंड और नॉर्वे उसके फौरन बाद हैं. फिनलैंड में महिलाओं की आबादी 28 लाख है, तो पुरुषों की 27.3 लाख. महिलाओं की जीवन दर 84.6 साल है तो पुरुषों की 79 साल. और यूनिवर्सिटी शिक्षा प्राप्त लोगों में लड़कियों की हिस्सेदारी 57.5 प्रतिशत है. यही वजह है कि महिलाओं में बेरोजगारी दर सिर्फ 4.8 प्रतिशत है जबकि पुरुषों में यह 5.5 प्रतिशत है.
सबसे जरूरी है रोल मॉडलों का होना
भारत समेत कई विकासमान देशों में बहुत सारी संरचनाएं पश्चिमी देशों से आ रही हैं, क्योंकि वहीं इनका विकास किया जा रहा है. पश्चिमी देश भी महिलाओं को बराबरी देने के मामले में कोई आदर्श नहीं हैं. यहां अब भी पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन में 20 फीसदी से ज्यादा का अंतर है. उद्यमों और सरकार में उच्च पदों पर महिलाएं नहीं दिखतीं. जर्मनी ने दफ्तरों में समानता आयुक्त का पद बनाकर इस समस्या से निबटने की कोशिश की है. निचले स्तर पर लड़कियों को प्रोत्साहन मिलेगा, तभी वे ऊंचे पदों पर पहुंच पाएंगी. उद्यमों के अधिकारियों के स्तर पर पुरुषों के दबदबे को देखते हुए जर्मनी को 2015 में हिस्सेदारी का कानून बनाना पड़ा. अब उद्यमों में महिला अधिकारियों की संख्या करीब 36 प्रतिशत है. इसके विपरीत निगरानी बोर्ड में सिर्फ 20 प्रतिशत के करीब महिलाएं हैं.
जर्मनी की सरकार हर साल देश के उद्यमों में महिलाओं की स्थिति पर एक रिपोर्ट देती है. जर्मनी ने काफी समय तक यह उम्मीद की थी कि उद्यम स्वैच्छिक रूप से महिलाओं को प्रोत्साहन देंगे और लैंगिक बराबरी लागू करेंगे. लेकिन जर्मनी का अनुभव अलग रहा है. जिन उद्यमों पर कानून लागू होता है, वहां अधिकारी वाले पदों पर महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ी है, जबकि जिन उद्यमों ने स्वेच्छा से ऐसा करने का बीड़ा उठाया था, वहां ऐसा नहीं हुआ. अब काम के साथ परिवार संभालने वाले रोल मॉडल दिख रहे हैं, तो लड़कियों का हौसला भी बढ़ रहा है.
पुरुषों की मानसिकता में बदलाव जरूरी
समाज में लैंगिक बराबरी के लिए पुरुषों की मानसिकता में बदलाव जरूरी है. लेकिन महिलाओं को भी अपने हकों के लिए लड़ना होगा. यह दो तरह से हो सकता है. एक तो मौजूदा पदों पर बराबरी का हक और आरक्षण की व्यवस्था अपनाकर या फिर नए पद बनाकर. इन दोनों विकल्पों का इस्तेमाल करने की जरूरत है. सरकार में, अधिकारियों के स्तर पर और मंत्रियों के स्तर पर महिलाओं की भागीदारी बढ़ानी होगी. स्कैंडिनेवियाई देशों की पहल के बाद अब दूसरे देश भी मंत्रिपरिषद में बराबरी की दिशा में बढ़ रहे हैं.
दूसरा विकल्प नए पदों और रोजगार का सृजन हो. महिलाओं को इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट जैसे विषय पढ़ने और नए उद्यम खोलने, नए रोजगार पैदा करने पर ध्यान देना होगा. आईआईटी ने महिला छात्रों को आकर्षित करने की पहल की है, लेकिन देशभर में फैले दूसरे इंजीनियरिंग कॉलेजों को भी अधिक लड़कियों को दाखिला देने की पहल करनी होगी. जर्मनी की तरह देश के प्रमुख उद्यम नौकरी के साथ साथ पढ़ाई जैसे कार्यक्रम शुरू कर सकते हैं. और अगर फैसला लेने वाली जगहों पर बैठे पुरुष यह सोचकर महिलाओं को नजरअंदाज कर रहे हैं कि उससे पुरुषों को मिलने वाले पदों पर प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी, तो उन्हें नए पदों के सृजन की मांग का समर्थन करना चाहिए. अब ये चाहे जजों के पद हों, मंत्रियों के या फिर अधिकारियों के पद हों.