1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
राजनीतिपोलैंड

जर्मनी में क्यों होने लगी संवैधानिक अदालत के भविष्य की चिंता

बेन नाइट
२० दिसम्बर २०२४

सत्तावादी सरकारें अक्सर शीर्ष अदालतों की आजादी छीनने की कोशिश करती हैं. जर्मनी में धुर-दक्षिणपंथ का प्रभाव लगातार बढ़ रहा है. ऐसे में जर्मन संसद ने देश की संवैधानिक अदालत को सुरक्षित रखने के लिए समय रहते कदम उठाया है.

https://p.dw.com/p/4oPfV
जर्मनी की संवैधानिक अदालत
जर्मनी की संवैधानिक अदालत को आने वाले समय में भी स्वतंत्र और सुरक्षित रखना है मकसदतस्वीर: Uwe Anspach/AFP via Getty Images

जर्मनी की संसद के ऊपरी सद बुंडेसराट ने भी एक दिन पहले संसद के निचले सदन बुंडेसटाग में पास हुए प्रस्ताव को मंजूरी दे दी है. जर्मन सांसदों ने देश की संघीय संवैधानिक अदालत को मजबूत करने की ओर कदम उठाया है. इसका मकसद इस अदालत को राजनीतिक प्रभाव से सुरक्षित रखना है. जर्मनी में धुर-दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर जर्मनी (एएफडी) के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए ऐसा करने की जरूरत महसूस की जा रही थी. 

संवैधानिक अदालत से संबंधित कानून में संशोधन का प्रस्ताव गुरुवार को जर्मनी की संसद में पेश किया गया. यह चांसलर ओलाफ शॉल्त्स की बहुमत गंवा चुकी गठबंधन सरकार के आखिरी कामों में से एक था. शॉल्त्स हाल ही में विश्वास मत हार चुके हैं, जिससे अगले साल फरवरी में मध्यावधि चुनाव होने का रास्ता साफ हो गया है.

इस संशोधन को फ्री डेमोक्रेट्स (एफडीपी) के नेता और पूर्व कानून मंत्री मार्को बुशमैन की देखरेख में तैयार किया गया है. इसमें सोशल डेमोक्रेट्स, ग्रीन पार्टी, क्रिस्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) के रुढ़िवादी धड़े और क्रिस्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) ने मदद की है. 

जजों की संख्या और कार्यकाल तय किया गया

जर्मनी के संविधान को 'बेसिक लॉ' कहा जाता है. यह संशोधन संवैधानिक अदालत की संरचनात्मक विशेषताओं को बेसिक लॉ में शामिल करता है, जिससे उन्हें बदलना मुश्किल हो जाए. प्रस्तावित कानून में जजों की संख्या 16 तय की गई है. यानी संवैधानिक अदालत में इससे ज्यादा जज नहीं हो सकेंगे. जजों का कार्यकाल 12 साल का होगा और उनकी अधिकतम उम्र 68 साल होगी. इसमें अदालत की संरचना भी सुनिश्चित की जाएगी. इसके मुताबिक, आठ-आठ जजों की दो सीनेट होंगी जिन्हें चैंबरों में बांटा जाएगा. 

यह सुनिश्चित करने की कोशिश भी की गई है कि संवैधानिक अदालत की काम करने की क्षमता को नकारात्मक रूप से प्रभावित ना किया जा सके. इसके लिए बेसिक लॉ में जोड़ा जाएगा कि एक जज तब तक अपना काम करता रहेगा, जब तक उसके उत्तराधिकारी को नहीं चुन लिया जाता.

यह कानून अदालत के आंतरिक कामकाज की स्वायत्तता की भी रक्षा करता है. यानी केवल जज ही यह तय करेंगे कि वे किस क्रम में मामलों की सुनवाई करना चाहते हैं. एसपीडी, ग्रीन पार्टी, सीडीयू/सीएसयू, एफडीपी और सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी के वोटों की मदद से यह कानून पास हुआ है.

एएफडी ने किया कानून का विरोध

सोशल डेमोक्रेट की नेता और गृह मंत्री नैंसी फेजर ने कहा कि यह कानून इसलिए पेश किया गया है ताकि हमारे लोकतंत्र के दुश्मनों को न्यायिक प्रणाली में सेंध लगाने का कोई रास्ता ना मिल सके. उन्होंने गुरुवार को बहस के दौरान कहा, "हम अन्य देशों में देखते हैं कि जब तानाशाह सत्ता में आते हैं तो वे लगभग हमेशा ही सबसे पहले न्यायिक प्रणाली के प्रभाव और आजादी के खिलाफ कदम उठाते हैं. वे कानून के शासन को कमजोर करते हैं और संवैधानिक अदालत अक्सर उनका सबसे पहला निशाना बनती हैं."

एएफडी के नेता फाबियान याकोबी ने इस प्रस्ताव का विरोध किया. उन्होंने कहा कि आप संवैधानिक अदालत की ऐसी छवि पेश कर रहे हैं कि जैसे वह पार्टी कार्टेल का शक्ति उपकरण है और आप उसे अपने हाथ से जाने देने के लिए तैयार नहीं हैं. उन्होंने अन्य पार्टियों पर आरोप लगाया कि एएफडी को सुप्रीम कोर्ट के जजों की नियुक्ति प्रक्रिया में भूमिका निभाने की अनुमति नहीं दी गई. धुर-दक्षिणपंथी पार्टी एएफडी के कई वर्गों को खुफिया एजेंसियों ने संवैधानिक व्यवस्था के लिए खतरा माना है.

पोलैंड के न्यायिक संकट ने दी चेतावनी

यूरोपीय संघ के सदस्य देशों- पोलैंड और हंगरी में हुए हालिया विवादों ने जर्मनी के सांसदों को इस बारे में चेतावनी दी. इसके अलावा, एएफडी को मिल रही सफलता ने भी चिंता बढ़ाने का काम किया, जिसे फिलहाल देश भर में 18 फीसदी वोट मिल रहे हैं.

उलरिष कारपेंस्टीन पब्लिक लॉ के विशेषज्ञ और जर्मन बार एसोसिएशन के उपाध्यक्ष हैं. वह मानते हैं कि ऐसे बदलाव जरूरी हैं. उन्होंने इस साल की शुरुआत में डीडब्ल्यू से कहा था, "संवैधानिक अदालत, संसदीय अल्पसंख्यकों की ओर से आने वाली अड़चनों से सुरक्षित नहीं है. खासकर जब बात जजों के चुनाव की हो. यह बुंडेस्टाग के साधारण बहुमत से भी सुरक्षित नहीं है."

कारपेंस्टीन आगे कहते हैं, "कोई भी तथाकथित कोर्ट पैकिंग को अंजाम दे सकता है. यानी, आसानी से अतिरिक्त जजों को नियुक्त कर सकता है या अतिरिक्त चैंबर बनाकर उनमें अपने पसंदीदा जजों को नियुक्त कर सकता है. इस स्थिति को बेहतर करने के कई तरीके हैं और इसके लिए कुछ करने की आम सहमति भी बन गई है."

कील यूनिवर्सिटी में पब्लिक लॉ के वरिष्ठ शोधकर्ता श्टेफान मार्टिनी की सोच थोड़ी अलग है. उन्होंने इसी साल फरवरी में डीडब्ल्यू से कहा था, "भले ही सुधार काफी उचित लग सकते हैं, लेकिन कानून निर्माताओं को थोड़ी सावधानी बरतने की जरूरत है. बेसिक लॉ में संवैधानिक अदालत से जुड़े कुछ नियमों का लिखा जाना ठीक है, लेकिन मैं इसे बहुत ही बुनियादी नियमों तक सीमित रखना चाहूंगा."

मार्टिनी को जजों के कार्यकाल की सीमा तय करने वाले और उनकी दोबारा नियुक्ति रोकने से जुड़े नियम सही लगते हैं. लेकिन जजों की नियुक्ति के लिए दो-तिहाई बहुमत की जरूरत वाले नियम के बारे में उनकी राय मिली-जुली है. उन्होंने कहा था, "अगर आप ऐसा करते हैं, तो आपको संसदीय रुकावटों को दूर करने की भी व्यवस्था करनी होगी. इसका कोई सटीक समाधान नहीं है. अगर आप सरकार की किसी दूसरी शाखा या जजों के पैनल को यह जिम्मेदारी देंगे, तो भी लोकतांत्रिक वैधता कम होगी."

पोलैंड में आखिर हुआ क्या था

पोलैंड के न्यायिक संकट की शुरुआत 2015 में हुई थी. तब देश की लॉ एंड जस्टिस (पीआईएस) पार्टी पर सत्ता में आने के बाद कोर्टपैकिंग के आरोप लगे थे. पीआईएस एक राष्ट्रवादी रूढ़िवादी पार्टी है. इसने संसद में पूर्ण बहुमत के जरिए संवैधानिक ट्राइब्यूनल का संचालन करने वाले नियमों में बदलाव कर दिया था. इसके अलावा अदालत में पांच नए जज भी नियुक्त किए थे. इसके खिलाफ बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन हुए थे.

2019 में पीआईएस सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक नया चैंबर भी बना दिया था. इसे अनुशासनात्मक चैंबर नाम दिया गया. कानून में बदलाव कर सरकार को सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख को नियुक्त करने और बर्खास्त करने का भी अधिकार दे दिया गया. 2019 में यूरोपियन कोर्ट ऑफ जस्टिस ने इन कानूनों को निरस्त कर दिया. कोर्ट ने कहा कि पोलैंड सरकार ने यूरोपीय संघ के कानून का उल्लंघन किया और न्यायपालिका की स्वतंत्रता को कमजोर किया.

कानून को मजबूत करना हमेशा उचित नहीं

ऐसे संकट दूसरी जगह भी सामने आए हैं. हंगरी में 2013 में फिडेज पार्टी द्वारा किए गए सुधारों की भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना हुई थी. आलोचकों का कहना था कि सुधारों ने विधायिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के बंटवारे को कमजोर किया.

पब्लिक लॉ के विशेषज्ञ कारपेंस्टीन कहते हैं, "संवैधानिक अदालत लोकतंत्र का केंद्र है. यह कानून के शासन के लिए भी जरूरी है ताकि स्वतंत्र चुनाव, शक्तियों के बंटवारे और मौलिक अधिकारों की रक्षा हो सके."

वह आगे कहते हैं, "कल्पना कीजिए कि किसी सरकार का कार्यकाल खत्म होने पर हमारे सामने वैसी स्थिति पैदा हो जाए, जैसी अमेरिका में पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और ब्राजील में पूर्व राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो के पद ना छोड़ने के चलते हुई थी. दूसरे शब्दों में कहें, तो अगर कोई चांसलर या राष्ट्रपति चुनाव हारने के बावजूद पद नहीं छोड़ता है और चुनावों को ही फर्जी बताता है. ऐसी स्थिति में एक अदालत की जरूरत होती है, जो इस मामले में फैसला करे."

उधर, मार्टिनी चेतावनी देते हैं कि ऐसे कानून बनाना जिन्हें बदलना मुश्किल हो, हमेशा सही नहीं होता. वह कहते हैं, "जब एक गैर-उदारवादी सरकार चुनाव हार जाएगी और एक प्रगतिशील सरकार चुनकर आएगी, तो उन्हें भी नीतियों को वापस लाने के लिए बहुमत की जरूरत होगी. अगर कुछ नियमों को संविधान में शामिल कर दिया गया, तो ऐसा करना मुश्किल हो जाएगा."

कम नहीं हो रही हैं जर्मनी की आर्थिक मुश्किलें

कारपेंस्टीन ने मंगलवार को प्रस्तावों का स्वागत किया. उन्होंने एक बयान में कहा, "सीडीयू और गठबंधन के प्रतिनिधियों के बीच हुई बातचीत महत्वपूर्ण और समझदारी भरे प्रस्तावों पर पहुंची है. ये प्रस्ताव अदालत की आजादी पर जोर देते हैं और इसके जजों को राजनीतिक दखल से बचाते हैं:”

उन्होंने आगे कहा कि इन प्रस्तावों ने प्रभावी तरीके से कोर्ट पैकिंग और अन्य संवैधानिक खतरों को दूर कर दिया है. लेकिन वे सुझाव देते हैं कि अगर भविष्य में नए जजों और अन्य नियमों से जुड़े फैसले लेने की प्रक्रिया में बुंडेसराट को शामिल किया जाता है तो संवैधानिक अदालत को और मजबूत किया जा सकता है.

कारपेंस्टीन कहते हैं, "यह जरूरी है कि संघीय संवैधानिक अदालत अधिनियम में भविष्य में होने वाले बदलावों, खासकर जजों को चुनने वाले पैनलों और संघीय संवैधानिक अदालत के फैसलों को बुंडेस्टाग के साधारण बहुमत के जरिए संशोधित नहीं किया जा सके.”