चीन ने ओलंपिक के लिए कैसे बनाई आर्टिफिशियल बर्फ?
१६ फ़रवरी २०२२विंटर ओलंपिक्स 88 साल से हो रहे हैं. पहली बार 1924 में फ्रांस में हुए थे. तब से पहली बार ऐसा हो रहा है कि सौ की सौ फीसदी आर्टिफिशियल बर्फ पर खेल हो रहे हों. इससे पहले 2014 में रूस के सोची में विंटर ओलंपिक्स हुए थे. तब 80 फीसदी आर्टिफिशियल बर्फ पर खेल हुए थे. फिर 2018 में दक्षिण कोरिया के प्योंगचांग में विंटर ओलंपिक्स हुए. वहां 90 फीसदी से ज्यादा आर्टिफिशियल बर्फ थी. इस बार बीजिंग में सिर्फ आर्टिफिशियल बर्फ ही है.
वैसे आर्टिफिशियल बर्फ जमाना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है. आप लंबे वक्त से सुनते भी आ रहे होंगे कि यहां आर्टिफिशियल बर्फ जमाई गई, वहां कृत्रिम बर्फ का इंतजाम किया गया. चीन से तो कृत्रिम सूरज और चांद बनाने जैसी खबरें भी आती हैं. तो आखिर तीन ने ओलंपिक कराने के लिए इतनी बर्फ कैसे जमा ली. इतनी कि उस पर स्केटिंग हो जाए, स्कीइंग हो जाए... 15 किस्मों के खेल हो जाएं. आइए, जानते हैं.
कैसे बनती है कृत्रिम बर्फ?
सबसे पहले तो यह फैसला करना होता है कि बर्फ जमानी कहां है. दो जगहों पर इसकी जरूरत होती है. स्केटिंग और आइस हॉकी जैसे खेलों के लिए इनडोर स्टेडियम में और स्कीइंग जैसे खेलों के लिए आउटडोर. दोनों जगह बर्फ जमाने के अलग-अलग तरीके हैं. दोनों में शुरुआत यहीं से होती है कि जिस पानी से बर्फ बनानी है, पहले उसे साफ यानी प्यूरिफाई किया जाता है.
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अब मान लीजिए कि इनडोर बर्फ जमानी है. तो कंक्रीट की फर्श के नीचे रेफ्रिजरेंट यानी ठंडा करनेवाली या जमानेवाली गैसों की सप्लाई वाले पाइप लगाए जाते हैं. इनसे गैस निकलती है. गैस से फर्श माइनस सात डिग्री तक ठंडी की जाती है. फिर इस ठंडी फर्श पर मशीन से पानी की फुहारें डाली जाती हैं. जब पानी की महीन बूंदें इस बहुत ठंडे फर्श पर गिरती हैं, तो जम जाती हैं. इसी तरह तब तक पानी छिड़का जाता है, जब तक बर्फ कुछ सेंटीमीटर मोटी न हो जाए. अमूमन ढाई-तीन सेंटीमीटर. फिर खेल की जरूरत के हिसाब से इसे दबा-दबाकर सख्त बनाया जाता है.
वहीं आउटडोर बर्फ जमाने के लिए 'स्नो मशीन' या 'स्नो गन' जैसी चीजें इस्तेमाल में लाई जाती हैं. अब इनडोर वाले प्रॉसेस में जमीन के नीचे रखे पाइपों की वजह से पानी जम रहा था. आउटडोर के प्रॉसेस में 'स्नो गन' में ही पानी को बर्फ बना देने का सिस्टम होता है. तो एक तरफ से पाइप से पानी डाला जाता है. मशीन में रखी गैस उस पानी को बर्फ में बदलती है. फिर मशीन में लगा पंखा इतनी तेजी से इस बर्फ को आगे फेंकता है कि यह एकदम पाउडर की तरह हवा में फैल जाती है. फिर धीरे-धीरे जमीन पर गिरकर इकट्ठी होती रहती है. ऐसे ही बहुत देर तक बर्फ छिड़की जाती है. फिर जरूरत के हिसाब से इसे दबाकर सख्त बना लिया जाता है.
इस बार के विंटर ओलंपिक्स बीजिंग के कई स्टेडियम में हो रहे हैं, लेकिन नया स्टेडियम एक ही बनाया गया है. इसका नाम है- नेशनल स्पीड स्केटिंग ओवल. निकनेम है 'दि आइस रिबन'. बाकी सारे पुराने स्टेडियम इस्तेमाल किए जा रहे हैं.
नई तकनीक से बर्फ बनाना
विज्ञान का एक शब्द है हाइड्रोक्लोरोकार्बन. यह वही रेफ्रिजरेंट यानी ठंडा करनेवाली गैस है, जिसके बारे में हमने आपको ऊपर बताया था. हमारे घरों में जो फ्रिज और एसी होते हैं, उनमें भी तो ठंडा करने के लिए यही गैस भरी जाती थी. बड़े पैमाने पर बर्फ भी इसी से जमाया जाता था.
अच्छा यहां हम आपको एक शब्द बताने की तकलीफ और देंगे. हाइड्रोक्लोरोकार्बन से पहले यही काम क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस से लिया जाता था. फिर वैज्ञानिकों ने बताया कि इससे तो ओजोन परत को बहुत नुकसान हो रहा है. तो 1990 के आसपास से इसे बंद करके हाइड्रोक्लोरोकार्बन को लाया गया. फिर पता चला कि हाइड्रोक्लोरोकार्बन से ओजोन का नुकसान तो नहीं हो रहा है, लेकिन कार्बन उत्सर्जन बहुत हो रहा है. इससे धरती का तापमान बढ़ रहा है. तो 2010 के आसपास से इसे भी बंद करके हाइड्रोकार्बन और हाइड्रोफ्लोरोओलेफीन जैसे विकल्प लाए गए. अब तो खैर कार्बन डाईऑक्साइड यानी CO2 रेफ्रिजरेंट्स तकनीक का दौर आ गया है.
चीन का कहना है कि आइस रिबन स्टेडियम में हाइड्रोक्लोरोकार्बन के बजाय CO2 रेफ्रिजरेंट्स का इस्तेमाल किया गया है. बताया गया कि यह ओलंपिक इतिहास में पहली बार हो रहा है और इससे पर्यावरण को और कम नुकसान होगा. अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति ने कहा कि खेलों में CO2 रेफ्रिजरेंट्स के इस्तेमाल से हर साल 3,900 कारों जितना कार्बन उत्सर्जन घटाने में मदद मिलेगी.
अब एक सवाल और आपके मन में उठेगा कि गैस से बर्फ कैसे जम जाती है. याद है बचपन में विज्ञान की कक्षा में पढ़ाया जाता था कि कोई भी पदार्थ तीन अवस्थाओं में होता है- ठोस, द्रव और गैस. तो कमरे के सामान्य तापमान पर सारी गैसें गैस के रूप में ही होती हैं. अगर आप इन्हें कम जगह में ज्यादा दबाव के साथ भर देंगे, तो ये तरल में बदल जाएंगी. जैसे आपके किचन में रखा गैस सिलेंडर, जिसमें भरी LPG लिक्विड फॉर्म में होती है. इसी वजह से जब बड़े सिलेंडर से छोटे सिलेंडर में गैस भरी जाती है, तो सिलेंडर बहुत ठंडा हो जाता है. जैसे फ्रिज से निकाला गया हो. अब इसी गैस पर और दबाव डालिए, तो यह ठोस हो जाएगी. यानी बर्फ बन जाएगी.
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अब सोचिए कि जमीन के नीचे रखे एक पाइप से बहुत दबाव के साथ भरी गैस निकल रही है. इससे वह अपने ऊपर की फर्श ठंडी कर रही है. इसी गैस को बर्फ में बदल दीजिए, तो यह उसी बर्फ का काम करेगी, जिस पर आप खेल सकें, फिसल सकें. जब गैस को बर्फ बनाया जाता है, तो पानी के मुकाबले वह पिघलती भी बहुत धीरे है.
कितना तामझाम और कितना खर्चा?
चीन ने इटली की कंपनी टेक्नोआल्पिन से 383 स्नो गन मंगाई. चीन के अपने अनुमान के मुताबिक इसमें 6 करोड़ डॉलर का खर्च आया. इन्हें चलाने के लिए विंड और सोलर एनर्जी का इस्तेमाल किया गया है. इसके अलावा बर्फ बनाने में करीब 5 करोड़ गैलन पानी भी लगा है. वह भी ऐसे शहर में, जहां दो करोड़ से ज्यादा लोग न जाने कितने दशकों से पानी की किल्लत से जूझ रहे हैं.
चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग कह रहे हैं कि वह पर्यावरण के ज्यादा अनुकूल और भ्रष्टाचार मुक्त विंटर ओलंपिक्स आयोजित करा रहे हैं. आयोजक कह रहे हैं कि यह इतिहास का सबसे ज्यादा 'ग्रीन ओलंपिक्स' है. वे यह भी कह रहे हैं कि जहां भी बिजली चाहिए, वहां सौर और वायु ऊर्जा इस्तेमाल की जा रही है, ताकि कार्बन उत्सर्जन कम से कम हो. जो उत्सर्जन हो भी रहा है, उसे कम करने के मकसद से हजारों पेड़ लगाने का दावा भी किया गया है.
आयोजकों का कहना है कि बर्फ जमाने में इस्तेमाल हुई CO2 औद्योगिक कचरे में निकली गैसों से ली गई है, जिसे प्यूरिफाई किया गया. फिर बर्फ जमाने के दौरान जो गर्मी पैदा हुई, उसे रीसाइकल करके स्टेडियम गर्म रखने और नहाने में इस्तेमाल किया जा रहा है.
खेल जगत में राय क्या है?
12 फरवरी को चीन के गाओ टिन्ग्यू स्पीड स्केटिंग में गोल्ड जीतने वाले पहले पुरुष चीनी खिलाड़ी बने. उन्होंने अपने खेल में आठवां सबसे तेज ओलंपिक रिकॉर्ड भी बनाया. इससे एक दिन पहले 11 फरवरी को भी 'आइस रिबन' के इसी ट्रैक पर 10 हजार मीटर की पुरुषों की रेस में एक वर्ल्ड रिकॉर्ड भी बना. यह सब तब हुआ, जब खेल कम ऊंचाई पर हो रहा है.
जैसे कनाडा के कैलगरी और अमेरिका के साल्ट लेक सिटी में विंटर गेम्स के जो मैदान बनते हैं, वो हाई एल्टीट्यूड पर होते हैं. ऊंची जगहों पर होने की वजह से वहां हवा हल्की होती है और स्केटर्स के लिए कम बाधा पैदा करती है. फिर भी नीदरलैंड्स की आइरीन शाउटेन और पुरुष खिलाड़ी जेल्ड नूइस ने ओलंपिक के दो दशक पुराने रिकॉर्ड तोड़ दिए, जो साल्ट लेक सिटी में बनाए गए थे.
स्केटिंग का यह ट्रैक तैयार करनेवाले कनाडा के आइसमेकर मार्क मेसर ध्यान से गाओ को देख रहे थे. वह कहते हैं, "हमें इसी बात की खुशी है कि हाई एल्टीट्यूड में जो रिकॉर्ड दो दशक पहले बने थे, वो यहां टूटे हैं. इसका मतलब है कि यहां कुछ शानदार हो रहा है. अगर हमें थोड़ा और समय मिल जाता, तो हम ट्रैक और बढ़िया बना देते. कुछ स्केटर्स को बर्फ मुलायम लग रही थी, लेकिन उन्होंने बताया कि वक्त बीतने के साथ यह बेहतर हो गई थी. स्केटर्स के लिए यह अच्छी बात नहीं है कि उन्हें फर्क महसूस हो रहा है."
61 साल के मार्क मेसर के लिए यह छठा ओलंपिक है. इसमें भी उन्होंने रेस शुरू होने से 6 दिन पहले ही काम शुरू किया था. हालांकि, स्केटर्स की सफलता में वह कोई क्रेडिट न लेते हुए कहते हैं, "हम तो बस एक सरफेस तैयार करना चाहते थे, जिस पर स्केटर्स अच्छा परफॉर्म कर पाएं. तो हम ओलंपिक रिकॉर्ड बनने से खुश तो हैं, लेकिन आखिरकार यह सब स्केटर्स की ही मेहनत है."
2014 और 2018 को विंटर ओलंपिक्स में बर्फ का इंतजाम करने वाली कंपनी SMI स्नोमेकर्स के अध्यक्ष जो वांडरकेलेन कहते हैं, "हम इसे मशीनी बर्फ कहते हैं. यह आर्टिफिशियल बर्फ नहीं है, असली बर्फ है. बर्फ बनाने के लिए मशीन पानी और कंप्रेस्ड एयर को एक साथ फेंकती है. पानी जमीन पर गिरने से पहले जम जाता है, जिससे बर्फ बनती है. अब बर्फ चाहे आसमान से गिरे, चाहे मशीन से. बनती तो वह हमेशा जमे पानी से ही है न."
हालांकि, कणों पर शोध करने वाले भौतिक विज्ञानी रेन लिबरेख्त कहते हैं कि इसके लिए 'आर्टिफिशियल स्नो' ही सही नाम है. वह कहते हैं, "दोनों की बनावट एकदम अलग-अलग हैं. आर्टिफिशियल बर्फ में सब कुछ तेजी से करवाना होता है. पानी जमीन पर गिरने से पहले ही जम जाना चाहिए. यह प्राकृतिक तरीके से थोड़ी न जमती है."
आगे-पीछे का थोड़ा हालचाल
1964 में ऑस्ट्रिया के इंसब्रुक में विंटर ओलंपिक्स होना था. किस्मत से उस साल बहुत बर्फ नहीं गिरी और खेल बीच में लटक गए. फिर ऑस्ट्रिया की सेना ने पर्वतों से बर्फ के 20 हजार टुकड़े काटे थे. वे पहाड़ों से 40 हजार क्यूबिक मीटर बर्फ भी लाए. यह पहली बार था, जब विंटर ओलंपिक्स के लिए ऐसे बर्फ का इंतजाम करना पड़ा था. भारत ने विंटर ओलंपिक्स में अपना आगाज भी इसी साल किया था. फिर 1980 में जब अमेरिका के लेक प्लेसिड में विंटर ओलंपिक्स हुए, तो पहली बार मशीन से बनने वाली बर्फ की जरूरत पड़ी.
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अब चीनी अधिकारी कह तो रहे हैं कि बर्फ पिघलने से जो पानी निकलेगा, उसे वो दोबारा इस्तेमाल कर लेंगे. लेकिन, एक स्टडी यह भी कहती है कि 40 फीसदी पानी तो उड़ जा रहा है. आर्टिफिशियल बर्फ की वजह से मिट्टी खत्म हो रही है और पहाड़ों की वनस्पतियां खत्म हो रही हैं. IOC की ही एक रिपोर्ट कहती है कि चीन ने बर्फ बनाने में जितना पानी लगना था, उसे कम आंका था और बर्फ पिघलने से जितना पानी मिलने का अनुमान लगाया था, वह ज्यादा था. पानी की किल्लत का मुद्दा तो है ही. हालांकि, चीन इस सबसे इनकार करता है.
कनाडा की वाटरलू यूनिवर्सिटी की एक रिसर्च बताती है कि विंटर ओलंपिक्स कराने की क्षमता रखने वाले शहरों की संख्या घटती जा रही है. अगर ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं रोका गया, तो अब तक जिन 21 जगहों पर विंटर ओलंपिक्स कराए गए हैं, 2080 तक उनमें से सिर्फ जापान का सप्पोरो शहर ही होगा, जहां विंटर ओलंपिक्स कराने लायक बारिश और तापमान होगा. शोध यह भी बता रहे हैं कि दुनिया जिस रफ्तार और रवैये से चल रही है, वैसे ही चलती रही, तो 2050 तक बीजिंग जैसे शहरों में वैसे भी विंटर ओलंपिक्स नहीं हो पाएंगे, जैसे आज हो पा रहे हैं.
2026 में विंटर ओलंपिक्स की मेजबानी इटली के पास है. यहां 70 साल बाद विंटर ओलंपिक्स होने हैं. पिछली बार जब 1956 में यहां ओलंपिक्स हुए थे, तब पहले ही दिन खूब बर्फ पड़ी थी. अब एक स्टडी बताती है कि 1956 से अब तक फरवरी में यहां का तापमान 5.9 डिग्री तक बढ़ गया है. अगर दुनियाभर में यही ट्रेंड चलता रहा, तो आर्टिफिशियल बर्फ भी विंटर ओलंपिक्स का भविष्य नहीं बचा पाएगी.