कैसे कर्ज का फंदा बनी जर्मनी की जेलें
१४ अक्टूबर २०२२जर्मनी की जेलों और सुधारगृहों में करीब 45,000 कैदी हैं और महंगाई उन पर खासी चोट कर रही है. कैदी, आम लोगों की तरह अलग अलग दुकानों में जाकर ब्रेड, कुकिंग ऑयल या दूध-दही की कीमतों की तुलना नहीं कर सकते हैं. वे देश के उन एक हजार फूड बैंकों में भी नहीं जा सकते हैं, जहां गरीबों को मुफ्त भोजन मिलता है. कैदियों को तो बस हर हफ्ते एक पर्चे पर टिक करना होता है. पर्चे में लिखा रहता है कि उन्हें क्या क्या चाहिए. कुछ बुनियादी चीजों को छोड़ दें तो इस पर्चे पर लिखा ज्यादातर सामान, बाहरी दुनिया के मुकाबले कहीं ज्यादा महंगा है.
जर्मनी की सभी 160 जेलों में पूरा सामान करीब एक ही कंपनी सप्लाई करती है. बाहर की दुकानों में जहां मिनरल वॉटर की एक बोतल 19 यूरो सेंट की मिल सकती है, वहीं जेल के भीतर उसका न्यूनतम दाम है 34 यूरो सेंट, यानि 80 फीसदी महंगी.
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जेल की महंगाई कोई मुद्दा नहीं
हैरानी की बात है कि जर्मनी में बहुत कम ही लोग कैदियों के हित का मुद्दा उठाते हैं. यूलियाने नागल इन चुनिंदा लोगों में हैं. जर्मन राज्य सैक्सनी की विधायक नागल कहती हैं, "कैदियों को उनके काम के बदले दिया जाने वाला बहुत ही कम मेहनताना बढ़ना चाहिए." डीडबल्यू से बातचीत में लेफ्ट पार्टी की नेता ने कहा, "सैक्सनी के सुधारगृहों में बंद 3,500 में से करीब 2,000 कैदी रोजगार योजनाओं में शामिल हैं, उन्हें एक घंटे के काम के बदले 2.15 यूरो से ज्यादा मेहनताना नहीं मिलता है और अभी भी उन्हें सरकारी पेंशन बीमा योजना में शामिल नहीं किया गया है."
जर्मनी के 16 में से 12 राज्यों में ज्यादातर कैदियों को काम करना पड़ता है. वे किचन, कारपेंट्री या तालों के लिए पुर्जे जोड़ने का काम करते हैं. ये काम करते हुए उन्हें एक से तीन यूरो प्रतिघंटा मजदूरी मिलती है.
कैदियों के काम की अहमियत
कैदियों को इस तरह का हुनर सिखाने के पीछे सोच यह है कि वे "सजा मुक्त जीवन के लिए कोई नियमित काम सीख सकें." सुधार की इस आधिकारिक परिभाषा का अर्थ है कि उन्हें जेल से रिहा होने के बाद की जिंदगी के लिए तैयार किया जा रहा है. हालांकि इसके बावजूद काम करने वाले कैदियों को कानूनी रूप से कर्मचारी का दर्जा नहीं दिया जाता है.
आधिकारिक परिभाषा के दायरे में आने वाले कई कैदियों को लगता है कि जेल में "ईमानदारी से किये काम का कोई मोल" नहीं है. जेल के भीतर अपने काम से होने वाली मामूली आय शैंपू, डियोडरेंट, रेजर और टेलिफोन कॉल्स में ही खत्म हो जाती है. अगर वे इन चीजों पर पैसा खर्च ना करें तो ही फल, दही और मिनरल वॉटर खरीद सकते हैं.
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पुराने दौर में जेल के भीतर काम करते हुए थोड़ा सा पैसा बचाना तकरीबन असंभव था. आज महंगाई के चलते फिर से यह नौबत आ चुकी है. कैदियों ने अब एक मुकदमा दायर किया है. वे भोजन की कीमतों के अनुपात में न्यूनतम मजदूरी की मांग कर रहे हैं. यूक्रेन युद्ध के पहले से ही जेलों में खाने पीने का सामान महंगा हो चुका था. नियमावली के मुताबिक जेलों को कैदियों को स्टैंडर्ड मार्केट रेट पर खाने पीने का सामान मुहैया कराना चाहिए.
सुधार या शोषण?
मानुएल माटस्के ने जेल में कई साल तक अतिरिक्त भोजन खरीदने के लिए ऐसे पर्चों पर टिक किया है. महीना खत्म होते होते उन्हें चिल्लर टटोलने पड़ते थे. माटस्के आम लोगों के मुकाबले कहीं बेहतर ढंग से इस दबाव को जानते हैं.
वित्तीय धांधली के लिए सैक्सनी की जेल में कई साल गुजारने वाले माटस्के अब कैदियों की यूनियन के संघीय प्रवक्ता हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत करते हुए वह कहते हैं, "जब कैदी काम कर रहे होते हैं तो उनका बहुत ज्यादा शोषण होता है. रोजमर्रा की जरूरत पूरी करने वाली चीजों के लिए वे जो दाम चुकाते हैं वह शैतानी कीमत है. #ichbinarmutsbetroffen ["मैं गरीबी का शिकार हूं"] जर्मनी के कैदी निश्चित रूप से इस हैशटैग पर साइन कर सकते हैं."
इन मांगों का विरोध करने वालों के अपने तर्क हैं. वे कहते हैं: सुधारगृहों में दाम इसीलिए ज्यादा हैं क्योंकि कैदी कपड़ों, बेसिक भोजन और रिहाइश के लिए पैसा नहीं चुकाते हैं. इसके साथ ही यह भी कहा जाता है कि कैदियों के काम से जेल को मुनाफा नहीं होता है.
माटस्के ऐसे तर्कों के जवाब में कहते हैं, "कैदियों की हालत सामज कल्याण पर निर्भर लोगों से भी बुरी है, इसके बावजूद हमेशा यही कहा जाता है कि उन्हें तो सबकुछ प्लेट में सजाकर मिलता है." कैद और उसके बाद मिलने वाली रिहाई का जिक्र करते हुए माटस्के कहते हैं, "वे अपने परिवार की वित्तीय मदद करना चाहते हैं, कर्ज चुकाना और पीड़ितों को हर्जाना देना चाहते हैं, लेकिन उनके लिए इनमें से कुछ भी कर पाना संभव नहीं है. महंगाई के कारण जेल में कीमतें बढ़ चुकी हैं, लेकिन कैदियों को मिलने वाला मेहनताना नहीं बढ़ा है. यह ऐसा अन्याय है जिसे बयान नहीं किया जा सकता."
पेंशन का प्लान
जेल जाने से पहले ही कई लोग कर्ज में होते हैं और जब वे रिहा होते हैं तो उन पर कर्ज कई गुना बढ़ चुका होता है. जेल में काम के बदले मिलने वाला पारिश्रमिक, पेंशन फंड में बिल्कुल नहीं जाता है. मतलब साफ है कि लंबी सजा काटने के बाद जब कोई रिहा होगा तो उसके बूढ़े बदन पर पहले से भारी गरीबी सवार रहेगी.
जर्मनी में रिहाई के तीन साल के भीतर करीब आधे लोग फिर से अपराध करते हैं और जेल में लौट आते हैं. विशेषज्ञ कहते हैं कि पेंशन का सपोर्ट ना होना इसकी एक बड़ी वजह है.
जर्मनी की मौजूदा सरकार के गठबंधन कॉन्ट्रैक्ट में कैदियों को सरकारी पेंशन योजना से जोड़ने के लिए कानून बदलने की शर्त है. माटस्के कहते हैं कि ये बदलाव तो बहुत पहले हो जाना चाहिए था, "जेल में बंद रहने के दौरान कैदियों का कर्ज बहुत ही ज्यादा बढ़ जाता है. अगर आप जल्द रिहा भी हो जाएं तो भी ज्यादातर मामलों में आपको अपराध मनोविज्ञान मेडिकल समीक्षा से गुजरना पड़ता है, जिसका अतिरिक्त खर्च 5,000 से 6,000 यूरो है. अंत में सच्चाई यही है कि जेल एक ऐसा कुचक्र है, जिससे आप बच नहीं सकते."