रेबीज का सफाया करने वाला पहला राज्य बना गोवा
३ फ़रवरी २०२३रेबीज एक पशुजन्य बीमारी है जिसका कोई ज्ञात उपचार नहीं है. संक्रामक बीमारियों में सबसे ज्यादा मृत्यु दर वाली बीमारी भी यही है. मनुष्यों में रेबीज के अधिकांश मामले, पागल कुत्ते के काटने से होते हैं. दुनिया भर में, हर साल करीब 59 हजार लोग इस बीमारी से दम तोड़ देते हैं. इनमें से एक तिहाई से ज्यादा मौतें भारत में होती हैं. 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के घोषित लक्ष्य के अनुरूप, अक्टूबर 2021 में भारत ने 2030 तक देश में रेबीज से होने वाली मौतों को रोकने के लिए एक नयी राष्ट्रीय पहल शुरू की थी.
इस पहल के तहत रोग नियंत्रण के लिए "एक स्वास्थ्य" तरीके पर जोर दिया गया है. इसमें पशु, पर्यावरण और इंसानी सेहत को समग्रता में देखा जाता है, यानी कुत्तों में रेबीज पर काबू पाना, इंसानों में इस बीमारी के कामयाब सफाए के लिए अनिवार्य है. रेबीज बीमारी के जानकार इस बात से सहमत हैं कि 70 फीसदी कुत्तों को टीका लगा देने से हर्ड इम्युनिटी बन जाएगी जिसकी बदौलत बीमारी का फैलना रुक जाएगा.
वैसे तो विज्ञान इस बारे में स्पष्ट है लेकिन भारत जैसे जिन देशों में आवारा कुत्तों की संख्या ज्यादा है, वहां 70 फीसदी टीकाकरण दर हासिल की जा सकेगी या नहीं, इसे लेकर व्यापक स्तर पर आशंकाएं रही हैं. लेकिन गोवा अपने अभियान से ये साबित करने में सफल रहा है कि राज्य स्तर पर बीमारी का सफाया मुमकिन है.
गोवा की कामयाबी की वजहें
गोवा में प्रोजेक्ट की अगुवाई मिशन रेबीज नाम के एनजीओ ने की है. 2014 में ये अभियान शुरू हुआ था, राज्य सरकार से उसे सहायता मिली और कामयाबी के चलते वैश्विक पहचान भी. यूनाइटेड किंगडम (ब्रिटेन) स्थित गैर लाभकारी संस्था, वर्ल्डवाइड वेटेरिनरी सर्विस की एक पहल के रूप में मिशन रेबीज की स्थापना हुई थी. उसका लक्ष्य है कुत्तों के रेबीज संक्रमण से इंसानी मौतों को रोकना.
मिशन रेबीज में शिक्षा निदेशक डॉ मुरुगन अप्पुपिल्लई, गोवा अभियान की कामयाबी के लिए राज्य सरकार के खुलेपन को भी श्रेय देते हैं. उनका कहना है, "भारत में (किसी अभियान की सफलता के लिए) सरकार के साथ गठजोड़ बहुत महत्वपूर्ण होता है." वे मानते हैं कि गोवा की कामयाबी साबित करती है कि सरकार से लगातार मिलने वाली सहायता और फंडिंग की बदौलत, इंसानों में बीमारी का देशव्यापी सफाया मुमकिन है. वे कहते हैं, "अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति रही, तो हम बहुत ही कम समय में इसे पूरी तरह खत्म कर देंगे."
टीकाकरण अभियान
एनजीओ के अभियान के तहत कुत्तों को टीका लगाने के लिए दूरदराज तक टीमें बनाई गई. ये दल व्यवस्थित तरीके से कस्बों, शहरों और गांवों में जाकर कुत्तों को टीका लगाते हैं. आवारा कुत्तों को बड़े बड़े जालों की मदद से पकड़ा जाता है. पहचान के लिए उनके शरीर पर गैर-टॉक्सिक हरे पेंट से निशान बना दिया जाता है. और टीका लगाकर उन्हें छोड़ दिया जाता है. पूरा हाल एक स्मार्टफोन ऐप में दर्ज किया जाता है. इस ऐप में कुत्तों से जुड़ा तमाम डाटा रहता है कि कुत्ते किन इलाकों में दिखे, टीमों ने किन किन इलाकों का दौरा किया और कितने कुत्तों को टीका लगा.
विज्ञान पत्रिका, नेचर में प्रकाशित एक अध्ययन के मुताबिक, इस तरीके से पहली बार 2017 में कुत्तों में 70 फीसदी टीकाकरण दर हासिल कर ली गई. कुत्तों की अनुमानित 1,37,353 आबादी में से 97,277 कुत्तों को टीका लगाया गया. अध्ययन ने ये भी पाया कि प्रोजेक्ट, लागत के लिहाज से भी काफी असरदार रहा. उसने स्वास्थ्य कल्याण से जुड़ी लागत में कटौती कर, न सिर्फ राज्य सरकार का पैसा बचाया बल्कि मौतों से होने वाले आर्थिक नुकसान को भी कम किया.
प्रोग्राम की पूरी अवधि के दौरान, अनुमानित तौर पर 2249 डिसेबिलिटी-एडजस्टड लाइफ इयर्स टाल दिए गए. यानी बीमारी से शरीर और सेहत पर जीवन काल में पड़ने वाले बोझ को कम किया गया. ये लागत 526 डॉलर प्रति डीएएलवाई आती.
जनता को शिक्षित करने की मुहिम
कुत्तों को टीका लगाने के अलावा, इस मुहिम के तहत समाज में बीमारी के प्रति जागरूकता बढ़ाने पर भी जोर दिया जाता है. इसके तहत पूरे गोवा के स्कूलों में शैक्षिक कार्यक्रम चलाए जाते हैं. बच्चों को सिखाया जाता है कि कुत्तों से खुद को कैसे बचाएं, और अगर कोई कुत्ता काट ले तो क्या करें. अभी रेबीज से होने वाली कई मौतों, काटने के बाद किए जाने वाले गलत उपचार से होती हैं.
डब्लूएचओ के मुताबिक, घाव की जगह को लगातार और बहुत अच्छी तरह धोया जाना चाहिए और पीड़ित व्यक्ति को 24 घंटे के अंदर टीका लग जाना चाहिए ताकि वायरस न पकड़ ले. भारत में रेबीज के 30% से 60% शिकार, 15 साल से कम उम्र के बच्चे होते हैं.
डॉ अप्पुपिल्लई का कहना है कि टीकाकरण की कोशिशों की सफलता सुनिश्चित करने के लिए शिक्षा भी जरूरी है. "जागरूकता पैदा करना बहुत बहुत महत्वपूर्ण है, खासकर रेबीज जैसी बीमारियों में क्योंकि इसमें इंसानी सहायता की बड़ी भारी जरूरत होती है." वो बताते हैं कि कुत्तों की तलाश और आवारा और पालतू कुत्तों को टीका लगाने वाले दस्तों की मदद के रूप में स्थानीय लोगों की भागीदारी अक्सर बहुत जरूरी हो जाती है.
राष्ट्रीय स्तर पर कार्रवाई
डॉ अप्पुपिल्लई कहते हैं कि बीमारी के खतरों को लेकर जितना ज्यादा जागरूकता आएगी, उससे राजनीतिक कार्रवाई में और तेजी आएगी. उनके मुताबिक फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर इस चीज की कमी है क्योंकि बीमारी का फैलाव और प्रभाव, ज्यादातर गरीब, देहाती समुदायों में देखा जाता है. उनका कहना है, "जब तक जनता का दबाव नहीं पड़ता, भारत में सरकार काम नहीं करती."
देश भर में रेबीज को लेकर जनजागरूकता बढ़ने लगी है, तभी केरल जैसे राज्यों में सरकार पर कार्रवाई का भारी दबाव बन रहा है जहां हाल में बच्चों को रेबीज के हाई-प्रोफाइल मामलों को लेकर व्यापक स्तर पर जनाक्रोश देखा गया था. राज्य सरकार, गोवा की तर्ज पर मिशन रेबीज के साथ मिलकर अपने यहां भी अभियान छेड़ना चाहती है. डॉ अप्पुपिल्लई को यकीन है कि यही तरीका दूसरे राज्यों में भी कामयाबी से लागू किया जा सकता है जिसका अंतिम लक्ष्य होगा रेबीज का देशव्यापी खात्मा. वे कहते हैं, "निश्चित रूप से ये मुहिम सफल होगी. हम ये पहले कर चुके हैं और कामयाब रहे हैं."