दुनिया में टीका लगाने की शुरुआत कैसे हुई?
६ जुलाई २०२२पूरा शरीर जैसे टूट रहा होता था. तेज बुखार, गले में खराश, सिर दर्द, सांस लेने में तकलीफ होती थी. पूरे शरीर पर फोड़े हो जाते थे. हाथ, पांव, एड़ियां, गला हर जगह पस से भरे फोड़े. उनमें तेज खुजली होती थी. कुछ दिन में फोड़े सूखने लगते और पपड़ी की तरह झड़ने लगते. अगर मरीज खुशकिस्मती से बच जाए, तो फोड़े सूखने के बाद त्वचा पर गहरा निशान छोड़ देते थे. कई मरीजों के तो चेहरे तक विकृत हो जाते थे.
इस रोग का नाम था- स्मॉलपॉक्स
हिंदी में इसे चेचक कहते हैं. यह अब सामान्य सी बीमारी है, लेकिन कुछ सदियों पहले यह भीषण महामारी हुआ करती थी. औसतन इससे संक्रमित लोगों में 10 में से तीन मर जाते थे. स्मॉलपॉक्स की शुरुआत कब हुई, इसकी ठोस जानकारी नहीं है. अनुमान है कि 10 हजार ईसापूर्व के आसपास उत्तरपूर्वी अफ्रीका में इसकी शुरुआत हुई. माना जाता है कि शायद वहीं से प्राचीन मिस्र के व्यापारियों के मार्फत ये बीमारी भारत पहुंची और वहां फैली. मिस्र की कुछ पुरानी ममियों के चेहरे पर भी चेचक जैसे निशान मिलते हैं. 1122 ईसा पूर्व के कुछ चीनी साहित्यों और प्राचीन संस्कृत स्रोतों में भी इस बीमारी का जिक्र मिलता है. 5वीं से 7वीं सदी के बीच ये बीमारी यूरोप पहुंची.
स्मॉलपॉक्स बेहद जानलेवा बीमारी थी.18वीं सदी की शुरुआत में अकेले यूरोप में इसके कारण लगभग चार लाख सालाना मौतें होती थीं. दुनिया में इससे संक्रमित लोगों में करीब एक तिहाई वयस्कों की मौत हो जाती थी. बचने वालों में से लगभग एक तिहाई अंधे हो जाते थे. बच्चों और नवजातों में मृत्युदर और ज्यादा थी. मसलन, 1800 के आखिरी दशकों में लंदन में इससे संक्रमित नवजातों में करीब 80 फीसदी और बर्लिन में 98 फीसदी मर जाते थे.
18वीं सदी आते-आते इंग्लैंड के ग्रामीण हिस्सों में लोगों ने गौर करना शुरू किया कि कुछ खास तरह के लोग स्मॉलपॉक्स के आगे ज्यादा सुरक्षित होते हैं. मसलन, ग्वाले और गाय पालने वाले लोग. हालांकि उन्हें काउपॉक्स नाम की एक बीमारी होती थी, जो स्मॉलपॉक्स जितनी गंभीर नहीं थी. इस बीमारी के कारण जैसे उनके शरीर में स्मॉलपॉक्स के लिए रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती थी.
ऐसे में 1774 में जब इंग्लैंड में चेचक महामारी फैली, तो बेंजामिन जेस्टी नाम के एक किसान ने किसी भी कीमत पर अपने परिवार को बचाने की ठानी. इसके लिए उन्होंने एक अनूठा प्रयोग किया. उन्होंने काउपॉक्स से संक्रमित एक गाय के थन के ऊपर से कुछ पस निकाला और एक छोटे चाकू की मदद से अपनी पत्नी और दो बेटों के हाथ पर हल्का चीरा लगाकर उसे वहां डाल दिया. उन तीनों को स्मॉलपॉक्स नहीं हुआ.
कैसे बना स्मॉलपॉक्स का टीका
उन्हीं दिनों बर्कले में एक डॉक्टर हुआ करते थे, एडवर्ड जेनर. उन्होंने किसानों और ग्वालों से काउपॉक्स से जुड़ी रोगप्रतिरोधक क्षमता पर जानकारियां हासिल की. जेनर को "वैरिओलेशन" के बारे में भी पता था. ये स्मॉलपॉक्स से निपटने के शुरुआती तरीकों में से एक था. "वैरिओला" वायरस के नाम पर इस प्रक्रिया को अपना नाम मिला. इसी वायरस के कारण स्मॉलपॉक्स होता है.
इस प्रक्रिया के तहत जिन लोगों को कभी ये बीमारी नहीं हुई होती थी, उन्हें स्मॉलपॉक्स के फोड़ों के संपर्क में लाया जाता था. इसके लिए या तो उनके हाथ खुरचकर फोड़ों के पस को वहां लगाया जाता था या फिर नाक के रास्ते उसे सूंघाया जाता था. वैरिओलेशन के बाद लोगों में स्मॉलपॉक्स के कुछ लक्षण विकसित होते थे. लेकिन स्वाभाविक तरीके से संक्रमण होने की तुलना में वैरिओलेशन से एक्सपोज होने वाले कम ही लोगों की जान जाती थी.
जेनर को लगा कि काउपॉक्स के एक्सपोजर को स्मॉलपॉक्स से सुरक्षा के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. अपनी इस थिअरी को जांचने के लिए 1796 में उन्होंने एक प्रयोग किया. उन्होंने काउपॉक्स के एक मरीज के फोड़े से पस लिया. उसे अपने माली के आठ साल के बच्चे जेम्स की त्वचा में डाला. जेम्स कुछ दिन थोड़ा बीमार रहा. जब वो ठीक हो गया, तो जेनर ने उसकी त्वचा में स्मॉलपॉक्स का पस डाला. जेनर कई बार जेम्स को वैरिओला वायरस के संपर्क में लाए, लेकिन उसे स्मॉलपॉक्स नहीं हुआ.
इस सफल प्रयोग ने वैक्सीन और टीकाकरण की राह बनाई. जेनर के प्रयोग के करीब एक सदी बाद की बात है. 4 जुलाई, 1885 को फ्रांस में 9 साल के एक बच्चे जोजेफ माइस्टर को कुत्ते ने काट लिया. उन दिनों फ्रांस में एक केमिस्ट और माइक्रोबायोलॉजिस्ट हुआ करते थे, लुई पैस्टर. उन्होंने लंबे शोध के बाद रेबीज का एक टीका विकसित किया था. लुई और उनके सहयोगियों ने 6 जुलाई, 1885 को जोसेफ को रेबीज के इंजेक्शन की शुरुआती खेप लगाई. इस ने जोसफ को रेबीज से बचाया और इसीलिए ये तारीख इम्यूनाइजेशन के आधुनिक दौर की शुरुआत मानी जाती है.