अपना वजूद बचाने को जूझती पाकिस्तान की हिंदू विरासत
८ नवम्बर २०२२पाकिस्तान के शिख से नख तक बहने वाली सिंधू नदी के रेतीले तट पर दर्जनों हिंदू एक रंग-बिरंगी नाव का इंतजार कर रहे हैं. यह नाव उन्हें नदी के के बीचोबीच स्थित एक द्वीप पर ले जाएगी. उस द्वीप पर एक प्राचीन साधु बेला मंदिर है जो करीब 200 साल पुराना है.
जैसे ही नाव द्वीप के किनारे पहुंचती है, जोर का जयकारा लगता है, साधु बेला की जय. संगमरमर और चंदन के बने साधु बेला मंदिर की पाकिस्तानी हिंदुओं में बहुत मान्यता है. हिंदू समुदाय को यह द्वीप दो सदी पहले सिंध प्रांत के मुस्लिम जमींदारों ने तोहफे में दिया था, जिसकी आज के पाकिस्तान में कल्पना भी मुश्किल मानी जाती है. उस पाकिस्तान में, जहां हिंदुओं जैसे अल्पसंख्यक समुदाय अपनी संस्कृति बचाने को संघर्ष कर रहे हैं.
पाकिस्तान में करीब 40 लाख हिंदू रहते हैं, यानी आबादी का 1.9 प्रतिशत. उनमें से 14 लाख सिंध प्रांत में रहते हैं. देश में पूजा-अर्चना पर किसी तरह की पाबंदी नहीं है लेकिन हिंदू कहते हैं कि अब वे खुले में पूजा-अर्चना जैसे धार्मिक प्रदर्शन से बचते हैं. हिंदू-बहुल भारत के साथ दशकों से जारी इस्लामिक देश पाकिस्तान की अदावत की इस हिंदू समुदाय ने भारी कीमत चुकाई है. जैसे, भारत में अल्पसंख्य मुसलमानों के लिए सामाजिक-आर्थिक मुश्किलों की भरमार है, वही हाल पाकिस्तान में हिंदुओं का है.
सिंध में विरासत के निशान
इस तनावपूर्ण माहौल के बीच सिंध की स्थिति थोड़ी अलग है. वहां मंदिर हैं, जिनमें से अधिकतर अब खंडहरों में तब्दील हो चुके हैं. वहां हिंदुओं द्वारा स्थापित किए गए उद्योग-धंधे हैं, शिक्षण संस्थान हैं, अस्पताल और धर्मशालाएं हैं जो 1947 के बंटवारे से पहले बनाई गई थीं. हिंदू धर्म भले ही पाकिस्तान में संघर्षरत है, ये हिंदू प्रतीक पाकिस्तान की पहचान हैं.
साधु बेला मंदिर उन्हीं में से एक है. पाकिस्तान हिंदू मंदिर प्रबंधन समिति के महासचिव और स्थानीय राजनेता दीवान चंद चावला बड़े फख्र से इस मंदिर का इतिहास बताते हैं. 2023 में इस मंदिर के 200 साल पूरे हो रहे हैं. चावला बताते हैं कि इस मंदिर को जोधपुर के कारीगरों ने बनाया था और इसके निर्माण में ताजमहल की झलक मिलती है.
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स्थानीय मुस्लिम समुदाय के साथ अच्छे रिश्तों पर जोर देते हुए चावला कहते हैं, "पाकिस्तान बनने के बाद हिंदुओं की बड़ी आबादी हिंदुस्तान चली गई. लेकिन जो यहां रुके, वे खुश और खुशहाल हैं. मैं पाकिस्तान के मुस्लिम समुदाय का शुक्रगुजार हूं जो हर मौके पर हमारा पूरा साथ देता है. हम कानून का पालन करते हैं और सरकार भी हमारा ख्याल रखती है.”
हालांकि, चावला के इस बयान से बहुतायत में लोग असहमत हैं. मानवाधिकार संगठनों का आरोप है कि हिंदुओं की धार्मिक स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए सरकार समुचित काम नहीं कर रही है. वे मंदिरों को तोड़े जाने, दुकानों और घरों पर हमले, लोगों के अपहरण, जबरन धर्मांतरण और हिंदू युवतियों की जबरन शादियों के उदाहरण देते हैं.
लेकिन राजनेता अलग बात करते हैं. चावला की तरह कई और राजनेता हैं जो हिंदू-मुस्लिम संबंधों के अच्छे होने का दावा करते हैं. सिंध के मु्ख्यमंत्री के वरिष्ठ सलाहकार वकार माहदी कहते हैं, "देश की हिंदू आबादी का अधिकतर हिस्सा सिंध में रहता है, सब्र, शांति और बिना किसी डर या खतरे के.”
माहदी कहते हैं कि हिंदुओं और ईसाइयों के अधिकारों की रक्षा को प्रांतीय सरकार ने अपनी प्राथमिकता बनाया है.
मिटाए जा रहे हैं प्रतीक
सिंध यूनिवर्सिटी में सामाजिक विज्ञान पढ़ाने वालीं जाहिदा रहमान जट्ट कहती हैं कि देश में कट्टरता बढ़ने के साथ-साथ हिंदुओं के शोषण और अलगाव की घटनाओं में तेज वृद्धि देखी गई है. वह कहती हैं कि असहिष्णुता पाकिस्तान की हिंदू विरासत पर खतरे की तरह मंडरा रही है.
जट्ट कहती हैं, "यह बेहद दुखद है क्योंकि पाकिस्तान को उनका (हिंदुओं का) बड़ा योगदान है. ज्यादातर पाकिस्तानी इस बात को नहीं जानते कि पाकिस्तानी समाज की बेहतरी में हिंदुओं और सिखों ने कितनी बड़ी भूमिका निभाई है.”
जट्ट बताती हैं कि पाकिस्तान बनने के बाद कई हिंदू संस्थानों के नाम बदल दिए गए. वह हैदराबाद के कुंदनमल स्कूल की मिसाल देती हैं. लड़कियों के लिए यह स्कूल 1914 में समाजसेवी सेठ कुंदनमल ने बनाया था. आज इसे जामिया अरेबिया गर्ल्स स्कूल के नाम से जाना जाता है. जट्ट कहती हैं कि इन्हीं बदलावों के कारण पाकिस्तानी नहीं जानते कि अल्पसंख्य समुदाय का पाकिस्तान में क्या योगदान रहा है.
सक्कर शहर में ऐसे कई प्रतीक हैं जो पाकिस्तान की हिंदू विरासत के गवाह हैं, और अब धीरे-धीरे बुझते जा रहे हैं. जैसे कि 35 किलोमीटर दूर शिकारपुर में एक कॉलेज और दो अस्पताल हैं जो हिंदू समुदाय ने बनवाए थे. दिवाली की रात वहां दीये जलते हैं लेकिन बहुत चहल-पहल नहीं होती.
लोग चले गए, पहचान छूट गई
67 साल के दीवान नारायण दास शिकारपुर में एक मिठाई की दुकान चलाते हैं. दिवाली उनका सबसे बड़ा त्योहार है लेकिन वह पुरानी चहल-पहल को याद करते हैं. मिठाई की दुकान उनका परिवार 19वीं सदी से चला रहा है. बंटवारे से पहले यह सॉफ्ट ड्रिंक स्टोर था. अब यह कुल्फी फालूदा के लिए मशहूर है. शिकारपुर में दास को खोजना बहुत आसान है. सब जानते हैं कि ‘फालूदा शॉप वाले दीवान साहब' कहां मिलेंगे.
वह बताते हैं, "पुराने लोग कहते हैं कि हमारी चीजों में जो स्वाद 20 साल पहले था, वो आज भी है.”
दास बताते हैं कि पहले शिकारपुर में एक बड़ा हिंदू समुदाय था. वह याद करते हैं, "अमीर लोग सिंधू नदी के किनारे मेले लगवाया करते थे. वे यहां रहते थे और उनके कारोबार सिंगापुर, हांग कांग और मुंबई तक फैले थे.”
बंटवारे के बाद बड़ी संख्या में हिंदू यहां से चले गए. उनकी संपत्तियों को सरकार ने कब्जा लिया. जट्ट बताती हैं कि ये संपत्तियां भारत से आए आप्रवासियों को दे दी गईं. वह बताती हैं, "हिंदुओं के ये मकान विशाल हैं जबकि इनमें रहने वाले लोग बहुत गरीब हैं. वे इनका ख्याल नहीं रख पाते.”
जट्ट कहती हैं कि बंटवारे के बाद राजनेताओं ने मुस्लिम परिप्रेक्ष्य को बढ़ावा दिया और अन्य समुदायों के योगदान को कमतर कर दिया. वह कहती हैं, "मुझे नहीं लगता कि हम हिंदुओं का ऐसा योगदान दोबारा कभी देख पाएंगे. मौके घटते जा रहे हैं. व्यक्तिगत स्तर पर कुछ मानव सेवा की मिसाल मिल जाएंगी लेकिन उसका आकार घट रहा है.”
वीके/एए (एपी)