आखिर क्यों आज भी लालू विरोध ही है बिहार की राजनीति
१६ अप्रैल २०२४2024 के लोकसभा चुनाव में भी एनडीए लालू के भ्रष्टाचार, परिवारवाद या फिर "जंगलराज" की चर्चा करके ही अपने पक्ष में वोट मांग रहा. बिहार की जनसभाओं में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी अपनी सरकार द्वारा किए गए कार्यों की चर्चा के साथ-साथ इस किंगमेकर पर सीधा प्रहार करने से नहीं चूक रहे.
महागठबंधन में कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी भी लालू के सामने नतमस्तक ही है, वहीं वामदल भी उनके रहमोकरम पर ही नजर आते हैं. उनके समर्थकों का मानना है कि वे ही एकमात्र ऐसे राजनेता हैं जो बीजेपी से मुकाबला कर सकते हैं. शायद इसलिए तमाम तरह के आरोपों के बावजूद उनके कोर वोटर आज भी उनके साथ बने हुए हैं.
राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के प्रमुख लालू प्रसाद यादव के आलोचक कहते हैं कि लालू भले ही सबों की सुन लें, किंतु करते अपनी ही हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए महागठबंधन में तमाम उछल-कूद के बावजूद उन्होंने टिकटों का बंटवारा अपने आकलन के अनुसार ही किया. कूद-फांद करने वालों की तो दूर, मान-मनौव्वल तो उन्होंने नीतीश कुमार की भी नहीं की. इसलिए उन पर महागठबंधन की राह में रोड़े बिछाने का भी आरोप लगता रहा है.
पत्रकार शिवानी सिंह कहती हैं, "कन्हैया कुमार और पप्पू यादव के मामले पर गौर करें तो साफ है कि लालू ऐसी किसी शख्सियत को उभरने नहीं देना चाहते जो आगे चलकर तेजस्वी के सामने बड़ी लकीर खींच दे. लाख चाहने के बावजूद बेगूसराय और पूर्णिया में कांग्रेस के हाथ कुछ नहीं लगा. पप्पू यादव ने तो अपनी जन अधिकार पार्टी (जाप) का कांग्रेस में विलय तक कर दिया. सभी जानते हैं, नीतीश को आखिर इंडिया गठबंधन से क्यों बाहर आना पड़ गया." हालांकि, इस बार लालू ने प्रत्याशियों के चयन में एक हद तक बीजेपी की रणनीति पर ही काम किया. अब तक आरजेडी के घोषित 22 उम्मीदवारों में 11 चेहरे ऐसे हैं, जो पहली बार चुनाव लड़ रहे हैं. इस सियासी दांव का फायदा उन्हें कितना मिलेगा, यह तो चार जून को ही पता चल सकेगा.
लालू का "जंगलराज" अब गुजरे जमाने की बात
पत्रकार अमित पांडेय कहते हैं, "अब केवल लालू के जंगलराज की बात बताकर वोट मांगना बेमानी है. जिस पीढ़ी ने उसे झेला है, वे तो इसे समझ सकते हैं. किंतु तीन दशक बीत जाने के बाद आज का युवा रोजी-रोजगार, पढ़ाई और विकास की बात करता है. उसे बीते दिनों से कुछ नहीं लेना. एनडीए को यह बात समझनी होगी कि राह इतनी आसान नहीं रह गई है."
इसमें कोई दो राय नहीं कि तेजस्वी ने रोजगार को तो मुद्दा बना ही दिया और नीतीश के साथ सरकार में रहने के दौरान नौकरियां भी बांटी. इसका श्रेय लेने की राजनेताओं के बीच भले ही होड़ मची हो, लेकिन 30-34 आयु वर्ग के युवा इसका श्रेय तो तेजस्वी को ही दे रहे. निश्चित तौर पर युवाओं में तेजस्वी का क्रेज बढ़ा है. लालू के परिवारवाद, "जंगलराज" और भ्रष्टाचार से इस वर्ग को कुछ लेना-देना नहीं है. ऐसा लगता है कि चुनाव में इसका फायदा महागठबंधन को मिलेगा.
परिवारवाद और भ्रष्टाचार का मुद्दा
इस बार के आम चुनाव में एनडीए परिवारवाद और भ्रष्टाचार पर लगातार प्रहार कर रहा. लालू तो इससे प्रभावित हो रहे थे. उनके परिवार के पांच सदस्य राजनीति में हैं. अब तो उनकी बेटी रोहिणी आचार्य भी राजनीति में आ गईं. नीतीश कुमार भी खुद को भारत रत्न कर्पूरी ठाकुर का असली उत्तराधिकारी बताते हैं, वे कहते रहे हैं कि कर्पूरी ठाकुर की तरह उन्होंने भी परिवार के किसी सदस्य को राजनीति में आगे नहीं बढ़ाया. हवा का रुख मोड़ देने के माहिर लालू ने तेजस्वी से एनडीए में वंशवादी राजनीति करने वालों की सूची जारी करवा दी.
अपने एक्स हैंडल पर तेजस्वी ने बिहार में प्रथम चरण की चार लोकसभा सीट समेत राज्य की ऐसी 14 सीट की सूची जारी कर दी, जहां परिवारवादी उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं. साथ ही उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से इस परिवारवाद के बारे में भी जिक्र करने का आग्रह भी कर दिया. तेजस्वी को लालू को यह सीख एनडीए पर एक हद तक तो भारी पड़ ही गई. जमुई की सभा में वंशवादी राजनीति पर न तो पीएम मोदी ने कुछ कहा और न ही भाजपा के अन्य नेताओं ने. हालांकि, लालू तो पहले से ही कहते रहे हैं कि "उनका बेटा राजनीति में नहीं जाएगा तो क्या भैंस चराएगा."
राजनीति में एक और बेटी
लालू प्रसाद यादव की बड़ी बेटी डॉ. मीसा भारती पहले से ही राजनीति में हैं. वर्तमान में वह राज्यसभा की सदस्य हैं. 2014 और 2019 में मीसा लोकसभा का चुनाव कभी लालू के काफी करीबी रहे रामकृपाल यादव से हार चुकी हैं. तीसरी बार फिर उनके खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरी हैं. इस बार उनकी दूसरी बेटी डॉ. रोहिणी आचार्य भी सारण लोकसभा क्षेत्र से चुनाव मैदान में हैं. अब तक उनका परिचय यही है कि वे लालू प्रसाद की बेटी हैं और उन्होंने जरूरत पड़ने पर पिता को अपनी किडनी दी. इसके अलावा वे सोशल मीडिया पर अपने परिवार के पक्ष में तीखे तेवर से विरोधियों को घेरने के लिए भी जानी जाती हैं. जवाब देने में वे भाषाई मर्यादा के पार जाने से भी नहीं चूकतीं.
राजनीतिक समीक्षक अरुण कुमार चौधरी कहते हैं, "मीसा के समक्ष 2009 में पाटलिपुत्र में पिता लालू प्रसाद की पराजय का बदला लेने की चुनौती है. उस समय लालू अपने मित्र और जेडीयू के उम्मीदवार रंजन प्रसाद यादव के हाथों 25 हजार से अधिक मतों से हार गए थे. मीसा भी दो बार चुनाव हार चुकी हैं. उन्हें भी रामकृपाल यादव से अपनी हार का बदला लेना है. वहीं, रोहिणी के समक्ष सारण में मां राबड़ी देवी की 2014 की पराजय का बदला लेने की चुनौती है. हो सकता है, लालू सारण का अपना पुराना गढ़ फिर से हासिल करना चाह रहे हों."
रोहिणी ने उन्हें अपनी किडनी दी है और इसको लेकर लोगों में "पापा की प्यारी" बिटिया के प्रति सहानुभूति तो हो ही सकती है. शायद यही वजह है कि राजीव प्रताप रूडी भी रोहिणी के लिए सधे शब्दों में कहते हैं कि "हर पिता को ऐसी बेटी मिलनी चाहिए. मेरी लड़ाई तो लालू प्रसाद से है."
तेजस्वी के लिए खतरा तो नहीं!
रोहिणी भले ही कह रही हों कि वे उस समय ही राजनीति में आने वाली थी, जब बिहार में मुजफ्फरपुर के बालिका गृह में महापाप हुआ था. लेकिन, पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से नहीं आ सकीं. पार्टी में उनका हाल बड़ी बहन मीसा जैसा होगा या उनका कद बढ़ेगा, यह तो आम चुनाव के परिणाम पर निर्भर करेगा. लेकिन उनकी एंट्री यह तो संकेत दे ही रही कि तेजस्वी के लिए घर के बाहर और अंदर परेशानियां बढ़ेंगी.
जानकार बताते हैं कि तेज प्रताप यादव की पत्नी ऐश्वर्या को लेकर विवाद सतह पर है ही और हो सकता है पत्नी राजश्री को लेकर भी कहीं तेजस्वी पसोपेश में न पड़ गए हों. शायद इसलिए पत्रकार शिवानी सिंह कहती हैं, "देखिए रोहिणी की एंट्री का लालू परिवार और आरजेडी पर असर पड़ना तो लाजिमी है. बहुत कुछ दोनों बहनों की जीत पर निर्भर करेगा. बड़ी बेटी होने के कारण मीसा भारती पहले से ही पार्टी की पहली कतार के नेताओं के संपर्क में हैं और अगर रोहिणी जीत कर आती है तो इतना तो तय है कि परिवार में विरासत की जंग भविष्य में तेज होगी, जिसका असर अंतत: तेजस्वी पर ही पड़ेगा."