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समाजभारत

मणिपुर के मोरे में बसा एक 'मिनी तमिलनाडु'

प्रभाकर मणि तिवारी
१५ जुलाई २०२२

पूर्वोत्तर भारत के पर्वतीय राज्य मणिपुर में म्यांमार की सीमा से सटे सुदूर मोरे कस्बे में पहुंचने वाले पर्यटकों को यहां रहने वाले तमिल समुदाय के हजारों लोगों को देख कर हैरत हो सकती है. उनकी दास्तान भी बड़ी दिलचस्प है.

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मणिपुर के मोरे में तमिल बाजार
तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

पूर्वोत्तर भारत के पर्वतीय राज्य मणिपुर में म्यांमार की सीमा से सटे सुदूर मोरे कस्बे में पहुंचने वाले पर्यटकों को यहां रहने वाले तमिल समुदाय के हजारों लोगों को देख कर हैरत हो सकती है. यह कहना ज्यादा सही होगा कि इस सीमावर्ती कस्बे में एक मिनी तमिलनाडु बसता है. इस समुदाय के लोग स्थानीय संस्कृति में इस कदर रच-बस गए हैं कि उनको पहचानना मुश्किल हो सकता है. तमिल समुदाय के इन लोगों ने स्थानीय संस्कृति को अपना लिया है और आपस में शादी-ब्याह तक होने लगे हैं.

किसी दौर में यहां तमिल समुदाय के करीब 15 हजार लोग रहते थे. लेकिन विभिन्न वजहों से अब यह तादाद घट कर महज तीन हजार रह गई है. इन लोगों के यहां पहुंचने और बसने की कहानी बेहद दिलचस्प है. यह लोग किसी दौर में तत्कालीन बर्मा (अब म्यांमार) में सैन्य तख्तापलट और अशांति के कारण वहां से भारत आए थे. लेकिन अपनी मूल जगह तमिलनाडु का रहन-सहन और खाना-पीना रास नहीं आया तो यह लोग बर्मा वापस जाने के क्रम में इसी गुमनाम कस्बे में बस गए और धीरे-धीरे यहां मिनी तमिलनाडु बसा लिया.

मणिपुर में भारत और म्यांमार का बॉर्डर
मणिपुर में भारत और म्यांमार का बॉर्डरतस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

कहां से आए

19वीं सदी में ब्रिटिश शासनकाल के दौरान आजीविका के बेहतर मौकों की तलाश में तमिलनाडु से हजारों की तादाद में लोग बर्मा पहुंचे थे. यह लोग शुरुआत में खेतों में काम करते थे और बाद में धीरे-धीरे कारोबार में हाथ आजमाने लगे. लंबे अरसे तक तो सब कुछ ठीक चलता रहा. लेकिन वर्ष 1948 में ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज जब लगातार अस्त होने लगा तो बर्मा में रहने वाले तमिल समुदाय के लोगों की मुश्किलें भी बढ़ने लगीं. साठ के दशक में जनरल ने विन के नेतृत्व में वहां सैन्य तख्तापलट के बाद तमिल लोग वह देश छोड़कर भागने लगे. वहां बाहरी लोगों की संपत्ति जब्त की जाने लगी और उनको तमाम तरह की दिक्कत होने लगीं.

मोरे में इस समुदाय के हितों की देखरेख करने वाली संस्था तमिल संगम के वित्त सचिव ख्वाजा मोइनुद्दीन बताते हैं कि उस दौर में बर्मा में स्कूलों में तमिल पढ़ाई जाती थी. तमिल भाषा में स्थानीय खबरें उपलब्ध थीं और सिनेमाघरों में भी तमिल फिल्में दिखाई जाती थीं. लेकिन साठ के दशक में होने वाले राजनीतिक बदलावों के बाद सरकार ने तमिल, तेलुगु और हिंदी पत्रिकाओं, स्कूलों, मंदिरों और सिनेमाघरों को बंद कर दिया. ऐसे में ज्यादातर लोगों के सामने अब देश छोड़ कर जाने के अलावा कोई चारा नहीं था.

लेकिन बर्मा से जहाज के जरिए कलकत्ता (अब कोलकाता) होकर इस समुदाय के लोग जब अपने मूल निवास तमिलनाडु पहुंचे तो वहां का रहन-सहन, मौसम और खान-पान इनको रास नहीं आया. इसके अलावा वहां उनके पास कोई काम भी नहीं था जिससे रोजी-रोटी का जुगाड़ हो सके. कुछ दिनों तक यह लोग अपने साथ लाई गई चीजों को बेच कर पेट पालते रहे. लेकिन उसके बाद इन सबने फिर बर्मा लौटने का फैसला किया.

कोविड और म्यांमार से तख्तापलट के बाद से बॉर्डर पर लोगों की आवाजाही प्रभावित हुई है.
कोविड और म्यांमार से तख्तापलट के बाद से बॉर्डर पर लोगों की आवाजाही प्रभावित हुई है.तस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

मोइनुद्दीन बताते हैं कि बर्मा से आने वाले तमिलों की वजह से ही कलकत्ता, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के कई शहरों में बर्मा कालोनी की स्थापना की गई थी. इसलिए बहुत से तमिलों ने बर्मा लौटने का फैसला किया और इस उम्मीद के साथ मणिपुर के इस कस्बे में पहुंचे की यहां से बर्मा पहुंचने में आसानी होगी. नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद फौज इसी इलाके से गुजरी थी और तमिल समुदाय के कई बुजुर्ग लोग आईएनए में रहे थे और उनको यहां से बर्मा जाने के रास्तों की जानकारी थी. इसलिए वे लोग बर्मा जाने के लिए तमिलनाडु से मणिपुर आ गए.

लेकिन कई दिनों के मुश्किल सफर के बाद जब यह परिवार मोरे पहुंचे तो बर्मा के अधिकारियों ने कागजात नहीं होने के कारण उनको देश में प्रवेश नहीं करने दिया. मोइनुद्दीन बताते हैं कि बर्मा से लौटते समय नागरिकता से संबंधित तमाम कागजात वहीं छूट गए थे. उसके बाद यह लोग फिर तमिलनाडु लौटने का प्रयास करने लगे. लेकिन पुलिस ने उनको मणिपुर की राजधानी इंफाल भेज दिया. वहां एक दक्षिण भारतीय अधिकारी ने उनकी समस्या का पता चलने के बाद उन सबको मोरे में बसने की सलाह दी. तब मोरे में आदिवासी तबके के महज कुछ सौ लोग ही रहते थे. मोइनुद्दीन कहते हैं कि वह लोग मणिपुर में बसने नहीं बल्कि यहां से बर्मा जाने के लिए आए थे.

ख्वाजा मोइनुद्दीन
ख्वाजा मोइनुद्दीनतस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

क्या कहते हैं दस्तावेज

जानकारी के अनुसार वर्ष 1964 में 12 तमिल परिवार दो समूहों में यहां आए थे-पहले समूह में सात परिवार थे और दूसरे में पांच. यह परिवार जब मोरे में रहने लगे तो उन्होंने तमिलनाडु में रह रहे अपने रिश्तेदारों को पत्र लिख कर बताया कि वे बहुत आराम से यहां रह रहे हैं और यहां से बर्मा की सीमा बेहद करीब है. यहां का खान-पान और रहन-सहन भी बर्मा जैसा ही है. उसके बाद धीरे-धीरे हजारों परिवार तमिलनाडु से यहां पहुंच गए.

यहां लौटने के बाद तमिल लोगों ने बर्मा के साथ कारोबार शुरू कर दिया. मोइनुद्दीन के मुताबिक, बर्मा में तमिलनाडु के स्टील के बर्तनों, लुंगी और मसालों के अलावा राजस्थान और बंगाल के कई उत्पादों की भारी मांग थी. यह लोग इन चीजों को बर्मा सीमा के भीतर तामू ले जा कर बेचते थे और बदले में बर्मा की चीजें लाकर राजधानी इंफाल तक भेजते थे. सीमा का निर्धारण होने और सुरक्षा बलों के तैनात होने के बाद यह लोग कुछ और भीतर रहने लगे. मोइनुद्दीन के दादा और नाना यहां पहुंचे थे. मोइनुद्दीन का तो जन्म ही यहीं हुआ है.

मोइनुद्दीन बताते हैं, "70 के दशक में मोरे में तमिल समुदाय के करीब 15 हजार लोग रहते थे. लेकिन अब इनकी आबादी घट कर तीन हजार रह गई है. इसकी वजह है यहां शिक्षा और रोजगार के समुचित अवसरों की कमी.”

24 घंटे में वापस लौटने की शर्त के साथ दूसरे देश में 16 किमी भीतर तक जा सकते हैं भारत और म्यांमार के लोग
24 घंटे में वापस लौटने की शर्त के साथ दूसरे देश में 16 किमी भीतर तक जा सकते हैं भारत और म्यांमार के लोगतस्वीर: Prabhakar Mani Tewari/DW

दशकों से यहां रहने वाले तमिल अब स्थानीय समुदाय के साथ पूरी तरह घुल-मिल गए हैं और उनमें शादियां भी अब आम हैं. इस समुदाय की संस्था तमिल संगम में नियमित रूप से बैठकें होती हैं. मोइनुद्दीन का कहना है कि वर्ष 1969 में स्थापित तमिल संगम का मकसद तमिल समुदाय की मदद करना और उनकी समस्याओं का समाधान और अपनी भाषा, रीति-रिवाज और संस्कृति को बरकरार रखना भी है.

तमिल समुदाय के बहुत से लोग अपने रिश्तेदारों को मिलने, मंदिर के दर्शन करने या व्यापार करने बर्मा जाते रहे हैं. लेकिन कोविड-19 के कारण सीमा पर स्थित गेट बंद होने और फिर वहां सैन्य तख्तापलट होने के कारण आवाजाही ठप है. मोइनुद्दीन बताते हैं, "म्यांमार में अब भी तमिल समुदाय के करीब 10 लाख लोग हैं. वहां सैकड़ों दक्षिण भारतीय मंदिर भी हैं. मोरे में रहने वाले ज्यादातर तमिल लोगों के पारिवारिक संबंध सीमा पार म्यांमार में हैं. दोनों तरफ से तमिल समुदाय के लोग एक दूसरे को मिलने आते जाते रहते हैं.” भारत और म्यांमार के बीच मुक्त आवाजाही समझौते के कारण दोनों देशों के लोग बिना किसी कागजात के एक-दूसरे की सीमा के 16 किमी भीतर तक आवाजाही कर सकते हैं. लेकिन शर्त यह है कि उनको उसी दिन वापस लौटना होता है.