नफरत के इतिहास के इस ताजा अध्याय के केंद्र में न लता मंगेशकर हैं, न उनका निधन. न शाहरुख खान हैं और न उनका फातिहा पढ़ना. इन नामों और इन नामों के पीछे की पहचानों को हटाकर देखेंगे, तो सिर्फ इतना नजर आएगा कि किसी के देहांत पर कोई उसे श्रद्धांजलि दे रहा है.
इस्लाम को मानने वाले किसी की मौत के बाद उसके लिए दुआ मांगकर दुआ को फूंक देते हैं, ताकि वो दुआ जिसके लिए पढ़ी गई, उस तक पहुंच जाए. यह भी एक श्रद्धांजलि है. मुमकिन है कि सबको इस तरीके के बारे में न पता हो, लेकिन इस फूंकने को थूकने का रंग देने की कोशिश यह कोशिश करने वालों के बारे में बहुत कुछ कहती है.
(पढ़ें: भारत: हंसने-हंसाने पर भी नफरत भारी?)
विक्षिप्त होता समाज
ऐसे लोग लंबे समय से थूकने से जुड़ी कई साजिशें गढ़ते आए हैं. "वो लोग सब्जी पर थूककर उसे बेचते हैं." "वो लोग आपको रोटी भी थूककर परोसेंगे." नफरत की ये किंवदंतियां गढ़ते-गढ़ते ये लोग इतना गिर गए कि इन्होंने जीवन के अंतिम पड़ाव पर की जा रही प्रार्थना में भी थूक देख लिया.
यानी किसी दूसरे का इनसे अलग प्रार्थना पद्धति में महज विश्वास रखना इन्हें इतना अखरता है कि जन्म से लेकर मृत्यु तक उसके हर कार्य में ये षड़यंत्र देखते हैं. इसे पैरानोया या संविभ्रम कहते हैं, जो एक तरह का मानसिक विकार होता है.
जिसे अपने विकार का इल्म हो जाता है, वह इलाज के लिए मानसिक रोग विशेषज्ञों से सलाह लेता है. लेकिन, जिसे यह अहसास ही न हो कि वह मानसिक रूप से विक्षिप्त हो रहा है, उसे उसके करीब के लोग बस एक अंधकार भरे गर्त में एक पीड़ादायी लाचारी से गिरते हुए देख भर ही सकते हैं, कर कुछ नहीं सकते.
(पढ़ें: फिर धर्म संसद पर विवाद, धर्मगुरुओं पर गांधी को गाली देने के आरोप)
मूल्यों की बलि
यहां फर्क बस इतना है कि यह विकृति, यह विक्षिप्तता, यह रोग और यह पतन किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि समाज का हो रहा है. नहीं तो क्यों इस समाज को हिजाब से लेकर दुआ पढ़ने तक, हर चीज में षड़यंत्र नजर आता है?
जन्म, कपड़े, खान-पान, प्रेम, त्योहार, नौकरी, व्यापार, शिक्षा और अब दुआ में भी "जिहाद" देखना, यह पतन नहीं तो क्या है. और उससे भी ज्यादा चिंता की बात यह है कि यह जानबूझ कर किया जा रहा है. राजनीतिक सत्ता हासिल करना और उस पर अपनी पकड़ बनाए रखना इतना जरूरी हो गया है कि उसके लिए समाज के बुनियादी मूल्यों की बलि चढ़ाई जा रही है.
क्या भविष्य है ऐसे समाज का? कुछ लड़कियों के हिजाब पहनने के अधिकार पर अड़े रहने की प्रतिक्रिया में कुछ और लड़कियों का भगवा पहनकर निकल आना यह दिखाता है कि यह नफरत बच्चों में भी भरी जा रही है. कल कैसे रिश्ते होंगे इन बच्चों के? कैसी होगी कल के समाज की सोच?
(पढ़ें: एक काली दुनिया का झरोखा भर हैं 'बुल्ली बाई, सुल्ली डील्स')
फैलता जहर
यह कल पर टालने वाला नहीं, बल्कि आज ही विचार करने वाला सवाल है. आज के कदम कल के समाज की नींव रखते हैं. जरा समझिए कि कैसे नफरत का यह जहर समाज के अंग-अंग में फैलाया जा रहा है.
नेताओं को तो चुनाव में जवाब दिया जा सकता है. आप किस सोच को चुनते हैं, यह महज एक जादुई बटन दबाकर बता सकते हैं. लेकिन यह बटन दबाने का मौका तो आपको पांच सालों में एक बार मिलता है. डिजिटल क्रांति के इस युग में एक शक्तिशाली बटन आपके मोबाइल पर भी है, जिसे आप रोज सैकड़ों बार दबाते हैं.
और कुछ लोग उसे सैकड़ों बार दबाकर रोज नफरत के सैकड़ों बीज बो रहे हैं. यह काम सिर्फ कोई संगठन ही नहीं कर रहा है, बल्कि हम सब के घरों में, परिवारों में और सामाजिक घेरों में हो रहा है. यह नफरत शायद राजनीतिक जीत तो दिला दे, लेकिन जरा सोचिए कि अगर यह नफरत ही जीत गई, तो क्या होगा. क्या होता है उस शरीर का, जिसके हर अंग में जहर फैल जाए?