मुझे एक परदेसन से इश्क हो गया है
८ जून २०१६मुझे इश्क हो गया है. परदेसी हूं. अपना गांव-घर सात हजार किलोमीटर दूर छोड़कर यहां आया हूं. और इश्क में पड़ गया हूं. जिससे मुझे इश्क हुआ है, बहुत चपल है. बेहद खूबसूरत और एकदम दीवानी. उम्र हो गई है पर बचपना ऐसा है कि हर वक्त हिरनी की तरह उछलती रहती है. मेरे घर के बगल से बहती है. रोज जब मैं दफ्तर आ रहा होता हूं तो साथ-साथ चलती है. उलटे कदम. और मुझे देखती रहती है. लगातार ताकती है. हंसती रहती है. मैं हिंदुस्तान का लड़का, हंसी तो फंसी को मानने वाला. रोज-रोज उसे हंसते देख उससे इश्क कर बैठा हूं.
उसकी हंसी लहरों जैसी है. या उसकी लहरें हंसी जैसी, समझ ही नहीं पाता. सुबह दफ्तर आता हूं तो उसे निहारता हुआ. शाम को दफ्तर से जाता हूं तो उसे पुकारता हुआ. दफ्तर के बगल में भी बहती रहती है. जैसे ही मैं सांझे वक्त घर को निकलता हूं, संग हो लेती है. और गुनगुनाने लगती है. तू ही रे... तू ही रे... तेरे बिना मैं कैसे जियूं. जान रे... चांद रे... आजा दिल की जमीन पर तू. बस, यूं उसका गुनगुनाना सुनकर मैं बंध जाता हूं, थम जाता हूं. उसके पास जा बैठता हूं. और फिर इधर-उधर देखता हूं तो उसके दर्जनों आशिक उसके पास बैठे होते हैं. और वो चंचल शोख हसीन सी, सबसे बातें करती रहती है. सबको बहकाए रहती है, भरमाए रहती है.
अचानक उसकी एक लहर ठीक मेरे पांवों के पास आकर कुछ कह जाएगी. और मैं खो जाऊंगा. फिर वो मुझसे दस फर्लांग दूर बैठे उन बुजुर्ग चचाजान की बियर की बोतल को गीला कर देगी. अपने कंधे से ढीले से कुर्ते को खिसकाएगी और मुस्कुराएगी. कंधा नंगा हो जाएगा, उसकी चिकनाहट से शर्माकर कुर्ता खिसक जाएगा और राइन का छरहरा बदन झांकने लगेगा. ऐसा शोख हुस्न देखकर आशिक दीवानावार झूमने लगेंगे. इतनी देर में यह हिरनी सी उछलती हुई उस जोड़े के पास जा फुदकेगी जो एक-दूजे की बाहों में बाहें डाले इसकी अठखेलियां देख रहा है. यकीन मानो, उस लड़के की गर्लफ्रेंड को रश्क होने लगेगा. लेकिन उसके रश्क की परवाह किए बिना उसके प्रेमी संग बतियाने लगेगी. उसे छेड़ने लगेगी.
कितना शोर करती है यह. हर वक्त बोलती है. यह लगातार बोल सकती है. इतनी कहानियां हैं इसके पास. हर लहर एक नई कहानी लेकर आती है. कभी किसी जहाज की, जो देर होने की वजह से भागा जा रहा था, तो कभी किसी पेड़ की जो नशे में राइन पर इतना झुक गया कि धारा ने उसे अपने आगोश में ले लिया और अपने साथ ही बहा ले गई. और शाम के वक्त, जब सब शांत हो जाता है, तब इसके गीत इतना गूंजते हैं भीतर-बाहर कि नशा होने लगता है.
मैं कई बार खाना खाकर इसके पास जा बैठता हूं. पीने के लिए. इसके गीतों को, इसकी बातों को और इसकी लहरों को. सच, इसकी एक-एक लहर मादक है. शाम के वक्त, वाइन के दो ग्लास आपके भीतर जा चुके हों और तब आप राइन की बाहों में जा बैठो, मजाल की सिलसिला का वो गीत आपके होठों पर न आए... नीला आसमां, सो गया... ओस बरसे रात भीगे होंठ थर्राएं... धड़कनें कुछ कहना चाहें, कह नहीं पाएं... हवा का गीत मद्धम है... समय की चाल भी कम है... और सच में, वक्त की चाल कम हो जाती, आप सुबह का इंतजार नहीं करना चाहते हैं, बस राइन की गोद में सिर रखकर लेट जाना चाहते हैं... लेकिन राइन उस्ताद है. गोद में लेटने नहीं देती. बहकर चल देती है. किसी और को कोई और गीत सुनाने.
कई बार इसकी घाटियों से गुजर चुका हूं जो बॉन से कुछ आगे से शुरू होती हैं. उसके बगल में विनयार्ड हैं जहां वाइन बनती है. बेहद नशीली, मदहोश कर देने वाली वाइन. जरूर इस राइन का नशीला हुस्न उस वाइन में ऐसा नशा भरता होगा. और वे घाटियां, घाटियां नहीं कैद हैं. खतरनाक कैद. उस कैद में आपको ग्रीक देवता तारतरस की याद आ सकती है जो सजा देने के लिए अंधे कुएं में डाल देता था, जहां से वापसी का कोई रास्ता नहीं होता. राइन की कैद से वापसी का कोई रास्ता नहीं. इस कैद में आपका दर्द बढ़ता जाता है और राइन की खूबसूरती भी. आप मशहूर गीत ब्यूटी फ्रॉम पेन के वे शब्द याद करते हैं, वेन लाइफ बिफोर इज ओनली ए मेमरी, आई विल वंडर वाई गॉड लेट्स मी वॉक थ्रू दिस प्लेस. और फिर उन्हीं घाटियों में टहलते हुए जॉर्जिया केट्स के उपन्यास ब्यूटी फ्रॉम पेन में जा पहुंचते हैं, जहां इश्क, दर्द और शराब मिलकर एक जहां रचते हैं.
यह जहां दिल्ली में क्यों नहीं था? मैं तो सालोंसाल यमुना के बगल से गुजरता रहा. उसने मुझे कभी इस तरह नहीं पुकारा जैसे राइन पुकारती है. राइन से तो मेरा कोई अपनापा नहीं था. यमुना तो मेरी अपनी है. दिल्ली में ऐसी रूखी क्यों हो जाती है यमुना? यमुना को दिल्ली लग चुकी है शायद. मैं राइन किनारे, उसके इश्क में डूबा बैठा यमुना के बारे में सोचता रहता हूं. साहिर मेरे बगल में आ बैठते हैं, कहते हैं... कभी कभी मेरे दिल में ख्याल आता है...
ब्लॉगः विवेक कुमार