1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

बैक्टीरिया से ऊर्जा पैदा कर चलेंगे रॉकेट

१८ नवम्बर २०२४

यूरोपीय वैज्ञानिक एक नई तकनीक के विकास पर काम कर रहे हैं, जिसमें सूरज की रोशनी से चलने वाली लेजर की मदद से अंतरिक्ष यानों को ऊर्जा दी जा सकेगी.

https://p.dw.com/p/4n5yU
अमेरिका के केप कार्निवाल से स्पेस एक्स के रॉकेट का लॉन्च
इस 'एपीएसीई' प्रोजेक्ट में ब्रिटेन, इटली, जर्मनी और पोलैंड के रिसर्चर मिलकर काम कर रहे हैंतस्वीर: Aubrey Gemignani/NASA/AP Photo/picture alliance

जिस तरह पौधे जीवन के लिए सूरज से ऊर्जा हासिल करते हैं, उसी तरह रॉकेट अगर ऊर्जा हासिल करने लगें तो वे आसानी से मंगल और उसके पार पहुंच सकते हैं. विज्ञान ऐसा संभव बनाने की कोशिश कर रहा है. ब्रिटेन में वैज्ञानिकों के एक दल का कहना है कि बैक्टीरिया की प्राकृतिक क्षमता से ऊर्जा प्राप्त करने वाली लेजर, मंगल ग्रह पर मिशन के लिए ऊर्जा प्रदान कर सकती हैं और धरती पर साफ ऊर्जा का स्रोत बन सकती हैं.

यह तकनीक पौधों और बैक्टीरिया के प्रकाश को रासायनिक ऊर्जा में बदलने की प्रक्रिया, यानी प्रकाश-संश्लेषण (फोटोसिंथेसिस) से प्रेरित है. इसमें कुछ विशेष प्रकार के प्रकाश-संश्लेषी बैक्टीरिया से प्रकाश-संग्रह करने वाले एंटीना को दोबारा उपयोग करके सूर्य की रोशनी से ऊर्जा को "बढ़ाया" जाएगा और लेजर बीम में बदला जाएगा.

वैज्ञानिकों का मानना है कि कृत्रिम पुर्जों की बजाय जैविक सामग्री का उपयोग करने से ये लेजर अंतरिक्ष में फिर से "उगाई" जा सकती हैं. इससे बार-बार धरती से नए हिस्से भेजने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

पारंपरिक सोलर पैनलों जैसे इलेक्ट्रॉनिक पुर्जों पर निर्भर रहने की बजाय, यह प्रक्रिया बिना किसी इलेक्ट्रॉनिक पुर्जों के काम करेगी. इस प्रोजेक्ट का नाम एपीएसीई है. शुरुआत में इसे लैब में विकसित किया जाएगा और फिर अंतरिक्ष में उपयोग के लिए परखा और सुधारा जाएगा. 

वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर यह प्रयोग सफल होता है, तो अंतरिक्ष एजेंसियों के लिए बहुत उपयोगी साबित होगा. यह चंद्रमा या मंगल मिशन के लिए ऊर्जा प्रदान कर सकता है और धरती पर साफ और वायरलेस ऊर्जा के नए तरीके भी विकसित हो सकते हैं. 

सूरज की रोशनी से लेजर

यह तकनीक एडिनबरा की हेरियट-वॉट यूनिवर्सिटी समेत कई अंतरराष्ट्रीय शोधकर्ताओं द्वारा विकसित की जा रही है. हेरियट-वॉट यूनिवर्सिटी के फोटोनिक्स और क्वॉन्टम साइंसेज इंस्टिट्यूट के प्रोफेसर एरिक गॉगर ने इसे "स्पेस पावर में बड़ी उपलब्धि" बताया.

उन्होंने कहा, "अंतरिक्ष में टिकाऊ ऊर्जा उत्पादन, बिना धरती से पुर्जे भेजे, एक बड़ी चुनौती है. लेकिन, जीवित जीव आत्मनिर्भर और सेल्फ-असेंबली के विशेषज्ञ होते हैं. हमारा प्रोजेक्ट जैविक प्रेरणा से आगे जाकर बैक्टीरिया के फोटोसिंथेटिक तंत्र से ऊर्जा बढ़ाने की दिशा में काम कर रहा है. हम एपीएसीई प्रोजेक्ट के तहत सूरज की रोशनी से चलने वाले लेजर बनाने की योजना पर काम कर रहे हैं.” 

गॉगर ने समझाया कि साधारण सूरज की रोशनी लेजर को सीधे पावर देने के लिए काफी नहीं होती, लेकिन ये बैक्टीरिया बहुत कुशलता से प्रकाश-संग्रह करते हैं. उनके जटिल एंटीना संरचनाएं ऊर्जा को बढ़ाकर कई गुना कर देती हैं.

उन्होंने कहा, "हम इसी बढ़ी हुई ऊर्जा का उपयोग लेजर बीम बनाने के लिए करेंगे, बिना किसी इलेक्ट्रॉनिक पुर्जों के. अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर हुए शोधों से हम जानते हैं कि अंतरिक्ष में बैक्टीरिया उगाना संभव है. कुछ बेहद मजबूत बैक्टीरिया तो खुले अंतरिक्ष में भी जीवित रह चुके हैं.” 

कैसे होगा विकास

विशेषज्ञों के मुताबिक अगर यह तकनीक अंतरिक्ष स्टेशनों पर बनाई और उपयोग की जा सके, तो यह स्थानीय ऊर्जा उत्पादन में मदद कर सकती है. यहां तक कि इसे उपग्रहों या धरती पर ऊर्जा भेजने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. वैज्ञानिक ऐसी तकनीकों पर काम कर रहे हैं, जिनसे अंतरिक्ष में ऊर्जा पैदा कर उसे धरती पर भेजा जा सके.

गॉगर ने कहा, "यह तकनीक अंतरिक्ष में ऊर्जा उत्पादन के तरीके बदल सकती है. इससे खोज अधिक टिकाऊ बनेगी और धरती पर साफ ऊर्जा तकनीक भी उन्नत होगी. सभी प्रमुख अंतरिक्ष एजेंसियों के पास चंद्रमा और मंगल मिशन की योजनाएं हैं. हमारा उद्देश्य इन्हें ऊर्जा प्रदान करना है."

अंतरिक्ष में सैटेलाइट के कचरे का क्या होगा

शोधकर्ता पहले उन बैक्टीरिया का अध्ययन करेंगे, जो बेहद कम रोशनी में जीवित रह सकते हैं. ये बैक्टीरिया बेहद खास एंटीना संरचनाओं के माध्यम से हर फोटॉन (प्रकाश कण) को सोख सकते हैं. ये प्राकृतिक रूप से सबसे प्रभावी सोलर कलेक्टर माने जाते हैं.

शोधकर्ता इन संरचनाओं के कृत्रिम संस्करण और नई लेजर भी विकसित करेंगे. इन तत्वों को मिलाकर एक नई लेजर सामग्री बनाई जाएगी और बड़े सिस्टम्स में उसका परीक्षण किया जाएगा. इस नई तकनीक का पहला प्रोटोटाइप तीन साल में परीक्षण के लिए तैयार होगा. इस परियोजना में ब्रिटेन, इटली, जर्मनी और पोलैंड के शोधकर्ताओं मिलकर काम कर रहे हैं और कुल मिला कर इस पर करीब 40 लाख यूरो का निवेश कर रहे हैं.  

वीके/आरपी (डीपीए)

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी