समरकंद में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की बैठक के कई महत्वपूर्ण सामरिक मायने हैं. बैठक को इस नजरिये से देखा जाना चाहिए कि एक क्षेत्रीय संगठन के तौर पर एससीओ और उसके सदस्यों के अपने अंदरूनी और आपसी मसले भी हो सकते हैं और इनमें भी तमाम पेचीदगियां हैं.
दुनिया के तमाम मीडिया संस्थानों और पश्चिमी देशों को भी यह समझना होगा कि एससीओ और रूस समेत इसके तमाम सदस्य देशों के लिए यूक्रेन के सिवा जमाने में और भी गम हैं. अंतरराष्ट्रीय राजनीति के कुछ शौकिया जानकारों ने एससीओ को तानाशाहों की बैठकी तक का नाम दिया. कुछ ने तो कोई ना कोई जुगत लगा कर चीन और रूस और कुछ नहीं तो भारत को ही लपेटने की कवायद में लग गए.
हमें समझना होगा कि दुनिया की तीन महाशक्तियां- चीन, रूस, और भारत और उनके साथी एससीओ सदस्य देशों के लिए हर बात पर सहमतिना कभी थी और ना कभी रहेगी. वजह यह है कि इन देशों के व्यापक हितों, चिंताओं, और नीति-सम्बन्धी मामलों में समानताएं तो हैं लेकिन अपनी अलग-अलग वरीयताएं, मूल्य, और ऐतिहासिक कारक भी रहे हैं.
इन तमाम बिंदुओं पर भी गौर करने की जरूरत है जिनकी पुष्टि दो अहम बयानों से होती है.
पहला बयान रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का है जिसमें उन्होंने कहा कि चीन और रूस के बीच यूक्रेन को लेकर पूरी तरह सहमति नहीं है. पुतिन ने साथ ही यह भी कहा कि रूस यूक्रेन पर चीन के "संतुलित रुख" का आदर करता है.
यह संतुलित रुख उन तमाम अटकलों पर सवालिया निशान लगाता है जिसमें यह कहा जाता रहा है कि रूस और चीन मिलकर एक नये शीत युद्ध की तैयारी कर रहे हैं. लेकिन लगता है कि फिलहाल ऐसा नहीं होने जा रहा.
दूसरा दिलचस्प बयान भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिया. पुतिन के साथ बात-चीत के दौरान मोदी का यह कहना कि आज के दौर में युद्ध की कोई जगह नहीं है, पश्चिमी मीडिया को चौंकाने वाला जरूर लगा होगा लेकिन यह भारत की मल्टी-एलाइनमेंट नीति का अभिन्न हिस्सा है. मोदी की यह दोस्ताना नसीहत संजीदा भी थी और रूस के लिये लाल झंडी भी कि भारत रूस के यूक्रेन पर आक्रमण को समर्थन नहीं करता.
चीन और भारत दोनों की बेबाकी से यह भी साफ है कि चीन और भारत दोनों एससीओ को अमेरिका या पश्चिम विरोधी खेमे का जामा पहनाने को फिलहाल तैयार नहीं हैं. चीन के लिए इसकी उपयोगिता आने वाले दिनों में हो सकती है लेकिन भारत के लिए एससीओ का मध्यममार्ग अपनाना जरूरी है.
मोदी की समरकंद बैठक में उनकी शिरकत को लेकर भी तमाम अटकलें लगायीं गयीं. आलोचकों का यह भी मानना रहा है कि अब जब कि भारत के अमेरिका और अन्य क्वाड देशों के साथ संबंध इतने मजबूत हो चुके हैं तो एससीओ में जाने की और चीन और रूस के साथ नजर आकर क्वाड, अमेरिका और यूरोप के तमाम देशों के साथ फजीहत करने की जरूरत क्या है?
क्वाड के नजरिये से देखिये तो यह बात ठीक भी लगती है - आखिरकार क्वाड के 2007 में बनने और 2017 में पुनर्जन्म लेने के पीछे भी तो यही बात थी की चीन से कैसे निपटा जाय? लेकिन सिर्फ क्वाड के नजरिये से भारत की सामरिक और सुरक्षा नीतियों को सही से नहीं आंका जा सकता.
भारत जैसे देश के लिए समुद्री सीमा से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है जमीनी सीमा. खास तौर पर तब जब उसके उत्तर और उत्तर-पश्चिम दोनों ओर चीन और पकिस्तान से सुरक्षा खतरा लगातार बना हो.
एससीओ में शिरकत के बावजूद मोदी की अलग से ना पाकिस्तानी प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ से मुलाकात हुई और ना ही चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग से. जाहिर है कि इन देशों से रिश्ते तल्ख होने के बावजूद एससीओ जैसे संगठनों में शिरकत कहीं ना कहीं इन दोनों देशों के असर को कम करने के उद्देश्य से भी की जाती रही है. इसी सिलसिले में भारत का अगले साल एससीओ की अध्यक्षता करना इस संगठन में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिहाज से काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है.
बहरहाल अगर बात एससीओ के सन्दर्भ में चीन, रूस, और भारत के समीकरणों और एससीओ के भविष्य को लेकर की जाय तो भारत और चीन की यूक्रेन को लेकर कही बातों से कहीं ना कहीं रूस को इस बात का एहसास हो रहा होगा कि उसके दोस्त भी अब यूक्रेन को लेकर चिंतित हैं और चाहते हैं कि युद्ध जल्द समाप्त हो. इन बयानों से चीन और भारत के साथ-साथ एससीओ पर भी अंतरराष्ट्रीय दबाव कम होगा. भारत के लिए तो यह अच्छी खबर है.
एससीओ में चीन की भूमिका बड़ी है और यूक्रेन युद्ध से कमजोर पड़ते रूस के मुकाबले अब यह भूमिका और बढ़ने ही जा रही है. कमजोर पड़ते रूस को यह अच्छा ही लगेगा अगर एससीओ में भारत की दिलचस्पी और भूमिका बढ़ जाय.
ऐसे में अगर भारत एससीओ में अपनी जमीन तलाश रहा है तो भारतीय विदेशनीति ही नहीं, क्षेत्रीय राजनीति और चीन से अमेरिका की प्रतिद्वंदिता के हिसाब से भी यह ठीक दिखता है.
हालांकि इसके साथ ही साथ अंदरखाने चीन और रूस के बीच क्या पक रहा है इस पर भी और गंभीरता से तहकीकात करनी होगी.
(डॉ. राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के आसियान केंद्र के निदेशक और एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं. आप @rahulmishr_ ट्विटर हैंडल पर उनसे जुड़ सकते हैं.)