यूपी में क्या मंडल बनाम कमंडल की राजनीति लौट रही है
२० जनवरी २०२२बुधवार को भारतीय जनता पार्टी ने समाजवादी पार्टी के संरक्षक मुलायम सिंह यादव की बहू अपर्णा बिष्ट यादव को पार्टी में शामिल करके अपने चौदह विधायकों और मंत्रियों के पार्टी छोड़ने के गम को भुलाने और अखिलेश यादव के परिवार में सेंध लगाने की खुशी भले ही मनाई हो लेकिन इतनी बड़ी संख्या में विधायकों और नेताओं के जाने की अभी और कीमत चुकानी पड़ रही है.
यूपी बीजेपी में मची इस भगदड़ का फायदा बीजेपी के सहयोगी दल भी उठाने में लगे हैं. यही वजह है कि टिकट बंटवारे पर दिल्ली से लेकर लखनऊ तक लगातार चल रही बैठकों के बावजूद ना तो अभी सहयोगी दलों के साथ सीटों की साझेदारी तय हो सकी है और ना ही उम्मीदवारों के नाम.
बीजेपी बैकफुट पर
यूपी बीजेपी के एक बड़े नेता नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं कि अन्य पिछड़ा वर्ग के एक दर्जन से ज्यादा विधायकों के पार्टी छोड़ने के बाद बीजेपी बैकफुट पर है और नहीं चाहती कि अब कोई और मौजूदा विधायक पार्टी छोड़े या फिर कोई सहयोगी दल उनसे अलग हो. इन नेता के मुताबिक, "पिछले सात-आठ साल में बीजेपी ने जिस तरह से अन्य पिछड़ी जातियों को पार्टी से जोड़ा है, उस अभियान को पहली बार गहरा धक्का लगा है. इन विधायकों के पार्टी छोड़कर जाने से ना सिर्फ विधानसभा चुनाव में पार्टी को नुकसान होगा बल्कि पार्टी के सामाजिक आधार को भी नुकसान पहुंचेगा जिसे बड़ी मुश्किल से तैयार किया गया था.”
यूपी में बीजेपी की मुख्य रूप से अब दो सहयोगी पार्टियां रह गई हैं- अपना दल (सोनेलाल) और निषाद पार्टी. अपना दल तो बीजेपी के साथ 2014 के लोकसभा चुनाव के वक्त से ही गठबंधन में है लेकिन निषाद पार्टी के साथ गठबंधन नया है. निषाद पार्टी के अध्यक्ष डॉक्टर संजय निषाद कहते हैं कि बीजेपी ने उन्हें 15 सीटें देने का आश्वासन दिया है लेकिन बीजेपी की ओर से इस बात की अभी कोई आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई है.
बीजेपी निषाद पार्टी को अधिकतम दस सीटें देने पर विचार कर रही है लेकिन इससे पहले पार्टी पांच से ज्यादा सीटें देने को राजी नहीं थी. वहीं अपना दल भी करीब तीस सीटों की मांग कर रही लेकिन बीजेपी उसे पंद्रह से ज्यादा सीटें देने को तैयार नहीं है. यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बीजेपी की तरह अपना दल के भी दो विधायक पार्टी छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए हैं.
टिकट बंटवारे में समस्या
बीजेपी के नेता लगातार कह रहे हैं कि पार्टी के भीतर टिकट बंटवारे और सहयोगी दलों के साथ सीट बंटवारे को लेकर किसी तरह की कोई समस्या नहीं है लेकिन समस्या साफ दिख रही है क्योंकि एक हफ्ते से ज्यादा लंबे समय तक हुए मंथन के बावजूद कोई सहमति नहीं बन पा रही है.
जहां तक अपना दल का सवाल है तो बीजेपी ने 2017 के विधानसभा चुनाव में उसे 11 सीटें दी थीं जिनमें से 9 सीटों पर अपना दल के उम्मीदवार जीते थे. अपना दल के एक विधायक को योगी सरकार में राज्य मंत्री भी बनाया गया है लेकिन पार्टी की लगातार शिकायत रही है कि उसे एक सहयोगी की तरह सम्मान नहीं दिया गया और तमाम नियुक्तियों और दूसरी चीजों में नजरअंदाज किया गया. यहां तक कि पार्टी की अध्यक्ष अनुप्रिया पटेल को 2019 में मोदी मंत्रिमंडल में भी नहीं शामिल नहीं किया गया था. काफी दबाव बनाने के बाद कैबिनेट विस्तार में उन्हें मंत्री बनाया गया लेकिन सिर्फ राज्यमंत्री ही.
बीजेपी इस बार विधानसभा चुनाव में अपना दल को 11 से ज्यादा सीटें देने को कतई तैयार नहीं थी लेकिन राज्य की राजनीति में बदले नए समीकरणों ने उसे ऐसा करने पर मजबूर कर दिया है. वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं, "स्वामी प्रसाद मौर्य और उनके साथियों के समाजवादी पार्टी में शामिल होने के बाद जिस तरह से नब्बे के दशक वाली मंडल-कमंडल की राजनीति एक बार फिर चर्चा में है, उसे देखते हुए दोनों ही पार्टियां अब बीजेपी पर दबाव बना रही हैं और इस स्थिति में बीजेपी इन्हें नजरअंदाज नहीं कर पाएगी. दोनों के ही पास समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन में जाने के विकल्प अभी भी खुले हुए हैं, ये बीजेपी को भी पता है. इसलिए बीजेपी पूरी कोशिश करेगी कि इन्हें अपने साथ ही रखा जाए.”
मंडल और कमंडल
कुछ दिन पहले यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक इंटरव्यू में कहा था कि यूपी में लड़ाई 80 बनाम 20 की है. उन्होंने इस अनुपात को बहुत स्पष्ट तो नहीं किया लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि उनका इशारा ‘हिन्दू बनाम मुसलमान' की ओर था. योगी सरकार के कैबिनेट मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य जब बीजेपी छोड़कर समाजवादी पार्टी में गए तो उन्होंने पार्टी दफ्तर में अपने भाषण में इसी तर्ज पर कहा, "लड़ाई 85 बनाम 15 की है.”
स्वामी प्रसाद मौर्य ने इसे स्पष्ट करते हुए कहा, "सरकार बनवाएं दलित-पिछड़े और मलाई खाएं अगड़े 5 फीसदी लोग. आपने 80 बनाम 20 फीसदी का नारा दिया है, लेकिन मैं कह रहा हूं यह 15 बनाम 85 की लड़ाई है. 85 फीसदी हमारा है और 15 फीसदी में भी बंटवारा है.”
स्वामी प्रसाद मौर्य के इस बयान को नब्बे के दशक की उस राजनीति की ओर लौटने के संकेत के रूप में देखा जा रहा है जब राममंदिर आंदोलन के चरमोत्कर्ष के दौरान भी दलितों और पिछड़ों की एकजुटता यानी सपा और बसपा के गठबंधन ने बीजेपी को सत्ता से बाहर कर दिया. ये दोनों ही पार्टियां मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद राजनीतिक पटल पर तेजी से उभरीं और उसके बाद यूपी की राजनीति में सरकारें बनाती रहीं.
सोशल इंजीनियरिंग
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, यूपी में अनुसूचित जाति की जनसंख्या 21.1 फीसदी और अनुसूचित जनजाति की आबादी 1.1 फीसदी है जबकि पिछड़ी जातियों की आबादी 50 फीसदी से ज्यादा है. बहुजन समाज की चर्चा जब होती है तब इसी तबके में मुस्लिम समुदाय की आबादी को भी जोड़ दिया जाता है और इस आधार पर दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को 85 फीसदी से ज्यादा बताया जाता है. 85 बनाम 15 की राजनीति का यही आधार है और राजनीति के जानकारों का कहना है कि इस आधार पर यदि वोटों का ध्रुवीकरण होता है तो निश्चित तौर पर धर्म के आधार पर होने वाले ध्रुवीकरण पर वो भारी पड़ेगा.
हालांकि यह भी माना जा रहा है कि तमाम पिछड़ी और अनुसूचित जातियों को अपनी ओर करने की बीजेपी की कोशिशों के बाद अब नब्बे के दशक वाले जातीय ध्रुवीकरण की उम्मीद नहीं है और इस ध्रुवीकरण में दलित समुदाय का एक बड़ा हिस्सा सपा गठबंधन से अलग है और वह या तो बीएसपी के साथ है या फिर बीजेपी के. इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि करीब तीन दशक की इस राजनीतिक उठापटक में सिर्फ जातियों के आधार पर ही राजनीतिक रुझान तय नहीं हो रहे हैं बल्कि हर राजनीतिक पार्टी में हर वर्ग के लोग हैं.
इस स्थिति में जाति के आधार पर कोई राजनीतिक पार्टी शायद वैसी आक्रामक राजनीति ना कर सके जैसी कि नब्बे के दशक में हो रही थी. सभी को साथ लेकर चलना उसके बाद से ही राजनीतिक दलों की जरूरत बन चुकी है और उसी आधार पर हर पार्टी अपने-अपने तरह से सोशल इंजीनियरिंग में लगी हुई हैं.