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सीबीआई जांच पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के क्या मायने हैं

प्रभाकर मणि तिवारी
१० जुलाई २०२४

भारत की सर्वोच्च अदालत ने सीबीआई जांच पर पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से दायर याचिका को सुनवाई के योग्य माना है. बंगाल की सरकार केंद्र सरकार पर पक्षपात का आरोप लगाते हुए कुछ मामलों में सीबीआई जांच का विरोध करती रही है.

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पश्चिम बंगाल के संदेशखाली में महिलाओं के विरोध प्रदर्शन के दौरान आग में जली मछुआरों की झोपड़ी
संदेशखाली मामले की जांच को लेकर केंद्र और राज्य सरकार में भारी मतभेद रहे हैंतस्वीर: Subrata Goswami/DW

भारत में केंद्र सरकार की ओर से केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) समेत केंद्रीय एजेंसियों के कथित राजनीतिक इस्तेमाल या दुरुपयोग के राज्य सरकार के आरोप कोई नई बात नहीं हैं. हाल के वर्षों में पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी सरकार इस  मुद्दे पर सबसे ज्यादा मुखर रही है. केंद्र सरकार पर पक्षपाती रवैए का आरोप लगाते हुए पश्चिम बंगाल समेत दस राज्यों ने सीबीआई को दी गई सामान्य सहमति वापस ले ली है. बावजूद इसके अदालती निर्देश पर सीबीआई तमाम राज्यों में लगातार मामले दर्ज करती रही है.

सीबीआई के इसी रुख को चुनौती देते हुए बंगाल सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में जो याचिका दायर की थी. इस याचिका पर टिप्पणी करते हुए सर्वोच्च अदालत ने सवाल किया है कि सरकार के सामान्य सहमति वापस लेने के बावजूद केंद्रीय एजेंसी राज्य में लगातार मामले क्यों दर्ज कर रही है? संदेशखाली मामले की सीबीआई जांच को चुनौती देने के सवाल पर हालांकि शीर्ष अदालत ने दो दिन पहले ही राज्य सरकार की खिंचाई की थी.

क्या है पूरा मामला

पश्चिम बंगाल में संदेशखाली की घटना की सीबीआई जांच के खिलाफ बंगाल सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 131 के तहत सुप्रीम कोर्ट में इस साल पहली मई को याचिका दायर की थी. अदालत ने बीती आठ मई को इस पर फैसला सुरक्षित रख लिया था. अब बुधवार को शीर्ष अदालत ने केंद्र की दलीलों को खारिज करते हुए उस याचिका को सुनवाई के योग्य माना है. अब इस मामले की अगली सुनवाई 13 अगस्त को होगी.राज्य सरकार ने अपनी याचिका में दलील दी है कि अनुच्छेद 131 के तहत केंद्र और राज्य के बीच किसी विवाद की स्थिति में उसकी सुनवाई सिर्फ सुप्रीम कोर्ट में ही की जा सकती है.

 विरोध प्रदर्शन करने वाली महिलाओं से बात करता बंगाल पुलिस का एक अधिकारी
संदेशखाली मामले की जांच सीबीआई से कराने का राज्य सरकार ने विरोध किया थातस्वीर: Subrata Goswami/DW

इस साल फरवरी में कोलकाता से सटे उत्तर 24-परगना जिले का संदेशखाली कथित यौन शोषण के खिलाफ महिलाओं के सड़क पर उतरने के कारण सुर्खियों में आ गया था. इस मामले में कथित रूप से शामिल मुख्य अभियुक्त और सत्ताधारी पार्टी तृणमूल कांग्रेस (टीमसी) नेता शाहजहां शेख और उसके दोनों सहयोगियों को भी गिरफ्तार किया गया था. बीजेपी ने इस मुद्दे पर आंदोलन छेड़ दिया था. केंद्र इस घटना की सीबीआई जांच के पक्ष में था. हालांकि राज्य सरकार की सहमति नहीं होने के कारण सीबीआई ने कलकत्ता हाईकोर्ट की शरण ली. हाईकोर्ट ने 10 अप्रैल को इस मामले की जांच सीबीआई को सौंपी.

कई राज्यों ने ली है सामान्य सहमति वापस

उसके बाद सीबीआई ने इस मामले में प्राथमिकी दर्ज कर मामला शुरू किया. शेख शाहजहां को भी कोर्ट के निर्देश पर सीबीआई को सौंप दिया गया. उससे पहले राज्य सरकार ने इस मामले की जांच के लिए एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन किया था. इस मामले में दायर विभिन्न जनहित याचिकाओं  पर सुनवाई के दौरान हाईकोर्ट ने ममता बनर्जी सरकार को भी जमकर लताड़ लगाई थी. अदालत ने कहा था कि अगर संदेशखाली की घटना में एक फीसदी भी सच है तो यह बेहद शर्मनाक है. ऐसा नहीं होना चाहिए था.

ईडी की टीम पर हमले से शुरू हुए संदेशखाली मामले में बाद में लोकसभा चुनाव के दौरान ही एनआईए भी तस्वीर में आई. उसने कथित रूप से इलाके में भारी तादाद में हथियार और गोला-बारूद बरामद किए थे.

संदेशखाली में विरोध करने वाली महिलाओं के जलाए कच्चे घरों को देखते सुरक्षाबल के जवान
संदेशखाली में हालात बिगड़ने के बाद केंद्रीय जांच एजेंसियों और सुरक्षा बलों को भेजा गया था जिसका बंगाल सरकार ने विरोध कियातस्वीर: Subrata Goswami/DW

केंद्रीय एजेंसियों के कथित राजनीतिक इस्तेमाल से नाराज होकर राज्य सरकार ने वर्ष 2018 में सीबीआई जांच के लिए दी गई सामान्य सहमति को वापस ले लिया था. वैसे, बंगाल ऐसा करने वाला पहला राज्य नहीं है. तत्कालीन केंद्रीय कार्मिक राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने बीते साल दिसंबर में लोकसभा में एक लिखित जवाब में बताया था कि बंगाल के अलावा पंजाब, झारखंड, केरल, राजस्थान, छत्तीसगढ़, मिजोरम, तेलंगाना, मेघालय और तमिलनाडु ने भी सीबीआई जांच के लिए दी गई सामान्य सहमति वापस ले ली है.

पक्षपात का आरोप नया नहीं

पश्चिम बंगाल में केंद्रीय एजेंसियों के कथित दुरुपयोग का आरोप कोई नया नहीं है. बीते करीब दस साल से लगातार इस मुद्दे पर विवाद होता रहा है. इसकी शुरुआत वर्ष 2014 को लोकसभा चुनाव से पहले हुई थी. उस समय सीबीआई ने चिटफंड घोटाले के सिलसिले में तृणमूल कांग्रेस के कई मंत्रियों व विधायकों को गिरफ्तार किया था. उसके बाद आने वाले एक स्टिंग वीडियो में पैसे लेने वाले पार्टी के कुछ नेताओं से भी पूछताछ और गिरफ्तारी हुई थी.

वर्ष 2019 में रोजवैली चिटफंड घोटाले में फिल्म प्रोड्यूसर श्रीकांत नाहटा के घर जाने वाली सीबीआई की एक टीम को पुलिस ने रास्ते में ही रोक दिया था. उसके बाद सारदा चिटफंड घोटाले में कोलकाता के तत्कालीन पुलिस आयुक्त राजीव कुमार के घर पहुंचने वाली सीबीआई की टीम को तो हिरासत में ले लिया गया था.

 पुलिस थाने में टीएमसी नेता शाहजहां शेख
संदेशखाली मामले में टीएमसी नेता शाहजहां शेख पर आरोप लगाए गए हैं, वह लंबे समय तक फरार भी रहे थेतस्वीर: Subrata Goswami/DW

इस मामले में खुद मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी मौके पर पहुंची थी. उन्होंने बाद में सीबीआई के छापे के विरोध में करीब 70 घंटे तक धरना भी दिया था. उस मामले में केंद्र व राज्य सरकार आमने-सामने आ गई थी. ममता बनर्जी सरकार ने इस मामले में तीन आईपीएस अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति पर केंद्रीय गृह मंत्रालय में तैनात करने के केंद्र सरकार के फैसले को भी नहीं माना था. आखिर में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से सीबीआई को इस शर्त पर मेघालय की राजधानी शिलांग में राजीव कुमार से पूछताछ की अनुमति दी गई कि वह फिलहाल उनको गिरफ्तार नहीं कर सकती.

राज्य सरकार और सत्तारूढ़ टीएमसी के नेताओं के इन आरोपों के कारण ही बंगाल के विभिन्न इलाकों में जांच के दौरान केंद्रीय एजेंसी के अधिकारियों को स्थानीय लोगों के भारी विरोध का सामना करना पड़ा है. इसके अलावा उन पर हमले भी होते रहे हैं. संदेशखाली मामले की शुरुआत भी ईडी की टीम पर हमले से ही हुई थी.

टीएमसी बनाम बीजेपी

अब सुप्रीम कोर्ट के ताजा फैसले को टीएमसी ने "सच्चाई की जीत" करार दिया है. उसका कहना है कि यह फैसला उन लोगों के लिए सबक है जो केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग कर लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई राज्य सरकार के अधिकारों में कटौती का प्रयास कर रहे हैं. हालांकि बीजेपी का कहना है कि यह महज एक टिप्पणी है, अंतिम फैसला नहीं. इसलिए टीएमसी को इससे ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं हैं.

तृणमूल कांग्रेस के प्रवक्ता शांतनु सेन ने डीडब्ल्यू से कहा, "वर्ष 1963 में गठित सीबीआई अब बीजेपी का भरोसेमंद राजनीतिक संगठन बन गया है. इसका इस्तेमाल बीजेपी-विरोधी राजनीतिक दलों के शासन वाले राज्यों में किया जा रहा है. हमने केंद्र के इसी रवैए को अदालत में चुनौती दी थी. शीर्ष अदालत की टिप्पणी देश के संविधान, भारत के संघीय ढांचे और ममता बनर्जी सरकार की जीत है."

 संदेशखाली में खेत के किनारे बैठकर चर्चा करते कुछ स्थानीय निवासी
संदेशखाली मामले को लोकसभा चुनाव में भी भुनाने की खूब कोशिश हुई थीतस्वीर: Subrata Goswami/DW

टीएमसी नेता और राज्य सरकार में मंत्री चंद्रिमा भट्टाचार्य ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "हमने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि सामान्य सहमति वापस लेने के बावजूद सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसियां राज्य के अधिकारों में हस्तक्षेप कर रही हैं. अब अदालत ने भी मान लिया है कि इस दलील में दम है."

दूसरी ओर, प्रदेश बीजेपी के प्रवक्ता और राज्यसभा सांसद शमीक भट्टाचार्य ने डीडब्ल्यू से कहा, "सुप्रीम कोर्ट की शुरुआती टिप्पणी से टीएमसी को खुश होने की जरूरत नहीं है. अभी अदालत ने सिर्फ याचिका पर सुनवाई की बात कही है, अंतिम फैसला नहीं सुनाया है."

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राज्य में केंद्रीय एजेंसियों के कथित दुरुपयोग या राजनीतिक इस्तेमाल का मुद्दा बहुत पुराना है. राजनीतिक विश्लेषक सुजीत कुमार जाना डीडब्ल्यू से कहते हैं, "हर बार चुनाव के मौके पर यह मुद्दा जोर-शोर से उछलता है, लेकिन यह भी हकीकत है कि चुनाव से ठीक पहले तमाम केंद्रीय एजेंसियां राज्य में अचानक काफी सक्रिय हो जाती है."

उनका कहना है कि सामान्य सहमति वापस लेने के बावजूद सीबीआई विभिन्न राज्यों में अदालती निर्देशों के सहारे तमाम मामलों की जांच कर रही है. इसी तरह विपक्षी राजनीतिक दलों के शासन वाले राज्यों में छोटे-छोटे मामलों में भी एनआईए की टीम पहुंच जाती है. जाना कहते हैं, "अब अदालत अगर टीएमसी सरकार की ओर से उठाए गए इस कानूनी पहलू की टीक से व्याख्या कर दे तो भविष्य में ऐसे विवादों पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा सकता है."