नए आपराधिक कानून से कैसे प्रभावित हो रहा ट्रांसजेंडर समुदाय
२० सितम्बर २०२४ऐसी उम्मीद की जा रही थी कि इससे साम्राज्यवादी युग से जारी समलैंगिकों और ट्रांसजेंडरों के प्रति नफरत भरे नजरिए से निजात मिलेगी लेकिन 160 साल पुराने भारतीय पीनल कोड में आमूल-चूल बदलाव ने ट्रांसजेंडर लोगों में डर भर दिया है. उन्हें डर है कि अब बलात्कारियों को सजा नहीं मिलेगी.
इन कानून के औपचारिक रूप से लागू होने के बाद से 29 वर्षीय ट्रांसजेंडर महिला दुआ फातिमा बेगम भयभीत और चिंतित हैं. वह कहती हैं, "मुझे अब ऐसा लग रहा है कि कोई भी किसी भी समय मेरा बलात्कार कर सकता है और मैं कुछ नहीं कर पाऊंगी."
ब्यूटिशियन का काम करने वालीं बेगम ने कहा ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के यौन शोषण के खिलाफ सख्त कानूनों के अभाव से अपराधियों को खुली छूट मिलेगी. बेगम पूर्वोत्तर भारत के एक छोटे से गांव से हैं, जहां उन्हें अपने ही परिवार के सदस्यों द्वारा प्रताड़ित किया जाता था. इन हालात से बचने के लिए वह दो साल पहले अपना गांव छोड़कर दिल्ली आ गईं.
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ट्रांसजेंडर के साथ यौन हिंसा की सजा
इस साल भारत सरकार ने पुरानी आपराधिक न्याय प्रणाली को एक नए कोड से बदल दिया, जिसमें ट्रांसजेंडर समुदाय को यौन हिंसा से बचाने के लिए कानूनी सुरक्षा उपायों को हटा दिया गया. बेगम अब चिंता में पड़ गई हैं और पहले की तरह वह ब्यूटी पार्लर से देर घर नहीं लौटतीं. उन्होंने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन से कहा, "अब मैं अंधेरा होने से पहले घर वापस आने की पूरी कोशिश करती हूं. मुझे अपनी सुरक्षा की चिंता रहती है."
सरकार ने पुरानी धारा 377 को पूरी तरह से खत्म कर दिया, जिसके तहत समलैंगिक संबंधों को अपराध माना जाता था. साल 2018 में भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को रद्द कर दिया था. लेकिन इसके बावजूद कानूनों में यौन हिंसा के खिलाफ सुरक्षा का प्रावधान बना रहा, जिसके तहत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और पुरुष पीड़ितों को भी कानूनी सुरक्षा प्रदान की गई.
जुलाई में लागू हुई नई दंड संहिता में बलात्कार के मामलों को पुरुष अपराधी और महिला को पीड़ित तक सीमित कर दिया गया है. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि धारा 377 ट्रांस समुदाय के लिए आवश्यक थी, जो अक्सर सामाजिक बहिष्कार, भेदभाव और परिवार द्वारा त्याग दिए जाने की पीड़ा झेलते हैं.
कानूनी पहचान की लड़ाई
भारत ने 2014 में "तीसरे लिंग" को कानूनी रूप से मान्यता दी और 2019 में ट्रांसजेंडर व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम भी पारित किया गया. इस कानून के तहत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ किसी भी प्रकार के दुर्व्यवहार पर दो साल तक की कैद की सजा हो सकती है. हालांकि, महिलाओं के खिलाफ इसी तरह के अपराधों के मामले में ऐसी सजा की अवधि लंबी होती है.
ट्रांस समुदाय के खिलाफ अपराधों पर सीमित डेटा उपलब्ध होने के बावजूद, बलात्कार पीड़ितों की सुरक्षा के लिए धारा 377 पर भरोसा किया गया था, जिसमें 10 साल तक की सजा का प्रावधान है. लेकिन नए कानून के तहत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के खिलाफ यौन हिंसा को इसकी गंभीरता में कम अपराध घोषित किया गया है और इसलिए ऐसे मामले में अपराधियों के लिए सजा बहुत गंभीर नहीं होगी.
दिल्ली की 47 वर्षीय नाज जोशी का कहना है कि अब चूंकि ट्रांसजेंडर लोगों के खिलाफ यौन हिंसा को रोकने के लिए कोई कानून नहीं है, इसलिए अपराधी उन्हें किसी भी समय निशाना बना सकते हैं. उन्होंने कहा, "किसी कानूनी परिणाम का डर न होने के कारण, अपराधी बिना किसी सजा के अपराध को अंजाम दे सकते हैं."
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कैसे आगे आएंगे पीड़ित
मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का आरोप है कि पुलिस भी ट्रांसजेंडर लोगों के मुद्दों को गंभीरता से नहीं लेती है, बल्कि पुलिसकर्मी उनका मजाक उड़ाते हैं या उनकी शिकायत दर्ज करने से मना कर देते हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक 2020 में विभिन्न अपराधों के सभी पीड़ितों में से 236 ट्रांसजेंडर थे, जो पीड़ितों की कुल संख्या का 0.006 प्रतिशत है. हालांकि, एनआरसीबी के आंकड़ों के मुताबिक उस साल ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के साथ बलात्कार की कोई घटना दर्ज नहीं की गई थी.
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एलजीबीटीक्यू+ अधिकार समूह 'यस, वी एक्जिस्ट' के संस्थापक जीत ने कहा कि धारा 377 के खत्म होने से अपराध के पीड़ित आगे आने से हतोत्साहित होंगे. जीत ने कहा, "ट्रांस समुदाय को अपने मामले दर्ज कराने में चुनौतियों का सामना करने के बावजूद, धारा 377 न्याय पाने के लिए एक महत्वपूर्ण कानूनी सुरक्षा थी."
एक ऑनलाइन याचिका में गृह मंत्रालय से ट्रांसजेंडर लोगों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करने और यौन हिंसा के खिलाफ प्रभावी कानून बनाने की मांग की गई है. इस याचिका पर अब तक 47 हजार लोग हस्ताक्षर कर चुके हैं.
इसी साल अगस्त में दिल्ली हाई कोर्ट ने सरकार को प्राथमिकता के आधार पर छह महीने के भीतर ट्रांसजेंडर पीड़ितों को प्रभावी कानूनी सुरक्षा बहाल करने का निर्देश दिया था.
एए/वीके (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)