ब्रिटेन के आम चुनावों में क्या हैं सबसे बड़े मुद्दे
२ जुलाई २०२४अक्टूबर 2022 से प्रधानमंत्री रहे ऋषि सुनक का मुख्य मुकाबला विपक्षी लेबर पार्टी के नेता केर स्टार्मर से है. स्टार्मर अप्रैल 2020 से लेबर पार्टी के लीडर हैं. चुनावी सर्वेक्षणों के मुताबिक, करीब डेढ़ दशक से सत्ता में रही कंजरवेटिव पार्टी को कई मोर्चों पर लोगों की नाराजगी का सामना करना पड़ सकता है. धीमी अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक सेवाओं, खासतौर पर हाउसिंग और स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली जैसे मुद्दों पर कंजरवेटिव पार्टी की काफी आलोचना हो रही है.
लेफ्ट राइट, हर तरफ से मिल रही है चुनौती
सिर्फ लेफ्ट ही नहीं, राइट से भी ऋषि सुनक को चुनौती मिल रही है. दक्षिणपंथी विचारधारा से जुड़ी रिफॉर्म पार्टी तो इस चुनाव को "दी इमिग्रेशन इलेक्शन" कह रही है.
शरणार्थियों के लिए बंद होते ब्रिटेन के दरवाजे
पार्टी का नारा है, "लेट्स सेव ब्रिटेन" या, चलो ब्रिटेन को बचाएं. रिफॉर्म पार्टी, लेबर और कंजरवेटिव दोनों पर पिछले तीन दशकों के दौरान जनता से किए गए वादे तोड़ने का आरोप लगा रही है.
वेतन ना बढ़ना, आवास का संकट, बढ़ता अपराध, महंगी बिजली, स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली और गैरकानूनी तरीके से होने वाले इमिग्रेशन को रिफॉर्म पार्टी ने अपनी राजनीति के प्रमुख मुद्दों में गिनाया है. कई जानकारों का मानना है कि रिफॉर्म पार्टी, कंजरवेटिव्स को मिलने वाले दक्षिणपंथी रुझान के वोटों में सेंध लगा सकती है.
स्पष्ट बहुमत ना आने पर गठबंधन की संभावनाएं
बदलाव के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही वाम रुझान की लेबर पार्टी तकरीबन सभी ओपिनियन पोल्स में काफी आगे चल रही है. हालांकि, किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत ना मिलने पर गठबंधन सरकार के गठन में क्षेत्रीय दलों की भूमिका अहम साबित हो सकती है.
कंजरवेटिव और लेबर पार्टी के बाद संसद में तीन सबसे बड़े दल हैं स्कॉटिश नेशनल पार्टी, द लिबरल डेमोक्रैट्स और डेमोक्रैटिक यूनियनिस्ट पार्टी. स्कॉटिश नेशनल पार्टी, स्कॉटलैंड की आजादी की समर्थक है. डेमोक्रैटिक यूनियनिस्ट पार्टी ब्रिटेन और आयरलैंड के बीच संबंध बनाए रखने की पक्षधर है.
संसद के निचले सदन के लिए होगा चुनाव
4 जुलाई को हो रहे मतदान में ब्रिटेन के मतदाता 'हाउस ऑफ कॉमन्स' के 650 सदस्यों को चुनेंगे. यह ब्रिटिश संसद का निचला सदन है. संसद के ऊपरी सदन को 'हाउस ऑफ लॉर्ड्स' कहते हैं.
ब्रिटेन में "फर्स्ट पास्ट द पोस्ट" की चुनावी व्यवस्था है. यानी, एक निर्वाचन क्षेत्र में सबसे ज्यादा मत पाने वाला उम्मीदवार जीतेगा, भले ही वह एक वोट से क्यों ना आगे हो. विजेता उम्मीदवार निर्वाचित प्रतिनिधि बनकर हाउस ऑफ कॉमन्स में पहुंचेगा. भारत में भी चुनाव की यही व्यवस्था है.
ब्रिटिश चुनावों में अब तक कंजरवेटिव या लेबर, इन्हीं दोनों दलों का दबदबा रहा है. हाउस ऑफ कॉमन्स में सबसे बड़ी पार्टी बहुमत मिलने पर अकेले सरकार बना सकती है या अन्य दलों के साथ मिलकर गठबंधन सरकार बना सकती है.
किन मुद्दों के कारण दबाव में हैं कंजरवेटिव्स?
साल 2010 में सत्ता में आने के बाद से ही कंजरवेटिव पार्टी के सामने कई चुनौतियां आती रही हैं. वैश्विक आर्थिक संकट उनकी शुरुआती चुनौती थी, जिसने ब्रिटेन का कर्ज बढ़ा दिया. बजट में संतुलन लाने के लिए कंजरवेटिव्स को कई साल तक मितव्ययिता अपनानी पड़ी. इसके बाद ब्रेक्जिट, कोविड-19 महामारी, यूक्रेन पर रूस के हमले के साथ शुरू हुए युद्ध के कारण बढ़ी महंगाई सरकार के लिए बड़ी चुनौतियां रहीं.
समाचार एजेंसी एपी के मुताबिक, कई मतदाता ब्रिटेन के सामने मौजूद चुनौतियों के लिए कंजरवेटिव पार्टी को दोषी मानते हैं. फिर चाहे वह रेलवे सेवा की खराब हालत हो, या अपराध, या फिर इंग्लिश चैनल पार कर आने वाले माइग्रेंट्स की बड़ी संख्या.
इनके अलावा कई नैतिक मुद्दे भी हैं, जिनमें पार्टी के नेता और मंत्री शामिल रहे. इनमें कोविड लॉकडाउन के दौरान सरकारी दफ्तरों में पार्टी करना शामिल है. पूर्व प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन सांसदों से झूठ बोलने के दोषी पाए गए. उनके बाद आईं लिज ट्रस तो केवल 45 दिन तक पद पर रहीं.
नई सरकार के लिए बड़ी चुनौतियां
आने वाली सरकार के लिए अर्थव्यवस्था एक बड़ी चुनौती होगी. ब्रिटेन महंगाई और आर्थिक विकास की धीमी रफ्तार का सामना कर रहा है. इसके कारण गरीबी बढ़ी है. मौजूदा कंजरवेटिव सरकार को महंगाई पर काबू पाने में कुछ सफलता तो मिली, लेकिन आर्थिक विकास धीमा रहा है. इसके कारण सरकार की आर्थिक नीतियों पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं.
ब्रिटेन के चुनाव में आप्रवासन क्यों है इतना गर्म मुद्दा?
आप्रवासन भी एक बड़ा विस्फोटक मुद्दा बना हुआ है. हालिया सालों में बड़ी संख्या में आर्थिक प्रवासियों और शरण मांगने वालों ने नाव से इंग्लिश चैनल पार किया. आलोचकों का कहना है कि सरकार का अपनी ही सीमाओं पर नियंत्रण नहीं रहा है. इसे रोकने के लिए ऋषि सुनक की सरकार कई माइग्रेंट्स को रवांडा भेजना चाहती थी. आलोचक इसे अमानवीय और अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन बताते हैं. कई जानकारों का यह भी कहना है कि युद्ध, हिंसक संघर्ष और अकाल जैसी घटनाओं से भागकर आ रहे लोगों को रोकने में यह रवांडा पॉलिसी कारगर साबित नहीं होगी.
ब्रिटेन के शरणार्थियों को रवांडा भेजने की योजना पर पानी फिरा
स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करना भी नई सरकार के लिए बड़ी चुनौती होगी. ब्रिटेन की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा (एनएचएस) मुफ्त स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराती है. यहां कैंसर का इलाज हो या दांत की देखभाल, मरीजों को बहुत इंतजार करना पड़ता है. मीडिया में ऐसी खबरों की भरमार है, जिसमें बताया गया कि कैसे गंभीर रूप से बीमार मरीजों को कई घंटे तक एम्बुलेंस में इंतजार करना पड़ा. अस्पताल में बिस्तर पाने का इंतजार तो और लंबा साबित होता है.
एसएम/सीके (एपी, एएफपी, रॉयटर्स)