क्या है और कितना जरूरी है फैशन का सस्टेनेबल होना
३ जुलाई २०२३भारत में लगभग 70,000 कपड़ों के फैशन ब्रांड हैं. लेकिन पर्यावरण के अनुकूल कपड़े बनाने वाले ब्रांड की गिनती उंगलियों पर हो सकती है.
फैशन और सस्टेनेबिलिटी. क्या यह दोनों साथ चल सकते हैं? आजकल सस्टेनेबल फैशन चर्चा में है. तेजी से बदलते फैशन की दुनिया में क्या हमारे लिए कितना आसान है सस्टेनेबल कपड़ों को अपनाना?
आखिर सस्टेनेबल फैशन है क्या?
सस्टेनेबल फैशन को समझने से पहले यह समझना जरूरी है कि फास्ट फैशन क्या है और इससे क्या नुकसान है? फास्ट फैशन का व्यवसाय ऐसे कपड़ों के उत्पादन पर फोकस करता है जो नए ट्रेंड के हों, जल्दी बन जाएं और सस्ते हों. जाहिर है बदलते ट्रेंड की मांगें पूरी करने की होड़ में पर्यावरण पर इसके दुष्प्रभावों को अक्सर नजरअंदाज किया जाता है.
ऐसे कपड़े अक्सर सस्ते होते हैं और इनकी क्वालिटी भी ज्यादातर बहुत अच्छी नहीं होती, ताकि बदलते ट्रेंड के साथ ही इन्हें भी बदल दिया जाए. भारत में फैशन डिजाइनिंग स्कूल निफ्ट की छात्रा रह चुकी श्वेता जांगिड का कहना है,"ये कपड़े हमें तो कम दामों पर मिल जाते हैं लेकिन पर्यावरण, और वे मजदूर जो हमारे लिए कपड़े बनाते हैं, उनको इसका खामियाजा भुगतना पड़ता है." श्वेता ने सस्टेनेबल फैशन पर काम किया है और ऐसे ही एक प्रोजेक्ट के लिए उन्हें उनके कॉलेज ने पुरस्कार भी दिया है.
अब आते हैं सस्टेनेबल फैशन की परिभाषा पर. यह ऐसा तरीका है जिसमें कंपनियां ऐसे कपड़े बनाती हैं जो प्रदूषण को घटाने के साथ-साथ उन लोगों के प्रति भी सचेत रहते हैं जो यह कपड़े बनाते हैं. सरल शब्दों में कहें तो यह ऐसा फैशन है जो पर्यावरण के अनुकूल है और कपड़ा मजदूरों के प्रति अपनी नैतिक जिम्मेदारी का पालन करता है.
इसके आलावा सस्टेनेबल फैशन में प्राकृतिक और जैविक मटीरियल का इस्तेमाल किया जाता है. रीसाइक्लिंग, अपसाइक्लिंग और कचरे को कम करना भी सस्टेनेबल फैशन के ही हिस्से हैं.
क्यों जरूरी है सस्टेनेबल फैशन?
दुनिया भर के जलवायु परिवर्तन में फैशन उद्योग का 10 प्रतिशत हिस्सा है. इस उद्योग से भूजल पर खतरा एक बड़ी समस्या है. कपड़ा बनाने में फैक्ट्रियां बहुत सारा पानी इस्तेमाल करती हैं जिसके कारण भूजल का स्तर लगातार गिर रहा है. बांग्लादेश का कपड़ा उद्योग, जो दुनिया में कपड़े का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है, हर साल 1,500 अरब लीटर पानी का इस्तेमाल करता है.
मात्र एक किलो डेनिम को धोने के लिए तकरीबन 250 लीटर पानी लगता है, जो काफी ज्यादा है. एक किलो सूती कपड़े को धोने और रंगने में 200 लीटर पानी की जरूरत पड़ती है.
क्या अब फिर से साइज जीरो का दौर लौट आया है?
आकड़ों बताते हैं कि बांग्लादेश में जहां 2008 में पानी केवल 15 मीटर की गहराई में मौजूद था, वहीं हाल में कई जगहों पर पानी के लिए 27 मीटर तक खुदाई करनी पड़ी. जितना पानी बांग्लादेश की कपड़ा फैक्ट्रियां साल भर में इस्तेमाल करती है, उससे ढाका में रहने वाले 2 करोड़ लोगों की करीब 10 महीने तक पानी की जरूरतें पूरी हो सकती हैं.
सस्टेनेबल फैशन के तहत कपड़े बनाने के लिए जिन प्राकृतिक या रीसाइकल्ड फाइबर का इस्तेमाल होता है, वे बायोडिग्रेडेबल होते हैं. इनके उत्पादन में ना ही कीटनाशक का इस्तेमाल होता है और ना उर्वरक का. पानी और ऊर्जा की खपत भी कम होती है. चूंकि इस प्रक्रिया में रासायनिक उपचार का प्रयोग भी नहीं है, यह इन ब्रांड के समग्र कार्बन फुटप्रिंट को कम करने में मदद करता है.
कम कपड़ों के साथ सस्टेनेबल फैशन
अगर आप मेरी तरह मिलेनियल हैं तो अपने माता पिता से शायद यह कहानी जरूर सुनी होगी कि हम तो साल में केवल दो से चार बार कपड़े सिलवाते थे. बस बड़े त्योहारों पर जैसे कि होली, दिवाली, या जन्मदिन. कपड़ों को तब तक पहनना जब तक वह खराब ना हो जाएं या सेकंड हैंड कपड़े लेना भी सस्टेनेबल फैशन का ही एक पहलू है. पहले घरों में अक्सर ऐसा होता था कि बड़े भाई बहनों ने छोटों को अपने कपड़े दे दिए.
श्वेता कहती हैं,"जैविक मटेरियल जैसे की कपास, रेशम और ऊन हम सदियों से इस्तेमाल करते आ रहे हैं. अपसाइक्लिंग यानी पुराने कपड़ों को नया रूप देना भी सस्टेनेबल फैशन की तरफ एक कदम है. इसके उदहारण के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं - मां की पुरानी साड़ी से लहंगा बनवा लिया या उस कपड़े का सूट सिलवा लिया, बस यही है अपसाइक्लिंग."
लेकिन अब बात और है...
मैंने अपनी ऑनलाइन खरीदारी का ब्यौरा निकला तो सिर्फ 2023 में ही अब तक छह महीनों में मैंने कुछ 10 कपड़े खरीद लिए हैं. लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो हर हफ्ते नए कपड़े अपने वार्डरोब में शामिल करते हैं.
33 साल की संगीता पेशे से डिजिटल मार्केटिंग में है. वह बताती हैं, "मैं हर महीने चार से पांच नए नए कपड़े तो खरीद ही लेती हूं ... शायद इसलिए क्योंकि मुझे शॉपिंग पसंद है. मैं छुट्टियों पर जाती हूं तब भी हमेशा जगह और वहां के मौसम के अनुसार नए कपड़े खरीदती हूं. सोशल मीडिया पर विज्ञापन देखकर, मैं उन वेबसाइटों पर जाती हूं और कुछ पसंद आता है तो आर्डर कर देती हूं."
पुराने कपड़ों के बदले बर्तन का बदलता कारोबार
डॉ प्रीती शॉ, जो एक साइकोलॅाजिस्ट हैं, हमने उनसे कपड़ों की खरीदारी से जुड़े मानसिक पहलू पर बात की. वो बताती हैं, "खरीदारी लोगों को तत्काल संतुष्टि जैसी भावना देती है, एक तरह के रिवॉर्ड जैसी. एक अच्छा डोपामाइन बूस्ट किसे नहीं पसंद?"
भारत में कितना सफल है सस्टेनेबल फैशन?
गौर करने वाली बात है कि दुनिया भर के फैशन उद्योग में अगर सस्टेनेबिलिटी की बात की जाए तो यह अभी भी एक सपने के जैसा लगता है. ऐसा इसलिए क्योंकि सस्टेनेबल कपड़ों के बाजार का हिस्सा 2021 में 3.9 प्रतिशत से बढ़कर 2026 में केवल 6.1 प्रतिशत होने की उम्मीद है, जो काफी कम है.
भारत में लगभग 70,000 कपड़ों के फैशन ब्रांड हैं. लेकिन ऐसे ब्रांड जो पूरी तरह से पर्यावरण के अनुकूल कपड़े बनाते हैं, उनकी गिनती उंगलियों पर की जा सकती है. श्वेता का मानना है कि ज्यादातर ब्रांड पूरी जानकारी नहीं देते, यानी कपड़ा कैसी परिस्थितियों में बना है, पर्यावरण पर इसका क्या असर होगा, इसके बारे में पारदर्शिता की कमी है.
पर्यावरण की दुहाई और ताबड़तोड़ बिकते कपड़े
डॉ प्रीती का मानना है, "भारत बिल्कुल तैयार है सस्टेनेबल फैशन के लिए, लेकिन बस अवेयरनेस की कमी है." उनका कहना है कि युवा सस्टेनेबल फैशन के आईडिया को लेकर ज्यादा ओपन है और पर्यावरण से जुड़े मसलों के बारे में ज्यादा सजग भी. वह कहती हैं, "सस्टेनेबिलिटी को अपनाने के लिए सजगता के साथ-साथ एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी की भावना भी जरूरी है."
पूजा यादव भारत से आकर स्वीडन में मीडिया से जुड़ी पढ़ाई कर रही हैं. वो सस्टेनेबिलिटी को ध्यान में रखते हुए सोच समझ कर कपड़ों की खरीददारी करती हैं.
पूजा ने बताया, "मैं अपने वार्डरोब में ऐसे कपड़े शामिल करने की कोशिश करती हूं जो प्रैक्टिकल होने के साथ साथ वर्सटाइल हों. मैं थोड़े कपड़े खरीद कर उन्हें ही मिक्स और मैच करके पहनती हूं. इससे जो कपड़े मेरे पास पहले से हैं, उनका मैं पूरी तरह उपयोग कर पाती हूं."
इसके साथ ही पूजा सस्टेनेबल फैशन के बारे में सजग हैं और खरीददारी करते समय सस्टेनेबल फैशन ब्रांड को प्राथमिकता देती हैं. वे यह भी कोशिश करती हैं कि जब हो सके सेकंड हैंड कपड़े खरीदें या कपड़े अदला बदली करें, ताकि वे ज्यादा दिनों तक इस्तेमाल हो पाएं. ऐसी कोशिशें ज्यादा से ज्यादा लोग कर सकें तो बदलाव आ सकता है.