अनवरत गूंजती बांसुरी
२० जुलाई २०१३चाहे लकड़ी की हो, बांस, धातु या फिर हड्डी से बनी बांसुरी. यह दुनिया का इकलौता ऐसा साज है जो अफ्रीका से लेकर एशिया तक दुनिया के हर देश में पसंद किया जाता है. जर्मनी में बच्चे सामने से बजाने वाली बांसुरी (पहाड़ी बांसुरी जैसी) बजाना सीखते हैं तो तुर्की में बच्चे ने बजाते हैं, आयरलैंड में टिन की बांसुरी बजाई जाती है. भारत में बांसुरी को कृष्ण की मुरली कहा जाता है. कहते हैं कि वह इतनी मीठी बांसुरी बजाते थे कि ग्वाल बाल, गायें सब कुछ भूल उसकी धुन में मगन हो जाते. बौद्ध भिक्षु बांसुरी का उपयोग धार्मिक समारोहों और गाय बैल चराने के लिए करते थे. वह चर्च से लेकर डांस तक इस्तेमाल होती है. शायद ही कोई और साज ऐसा है जिसका इतने अलग अलग तरह से इस्तेमाल होता है.
तरह तरह की बांसुरी
संगीतकार वोल्फगांग मेयेरिंग कहते हैं कि बांसुरी सिर्फ एक बांसुरी नहीं है. कई तरह की बांसुरियां होती हैं. लंबी जर्मन बांसुरी, ऊंची टोन वाली बांसुरी. कुछ होती हैं जिन्हें होठों के बीच में रख कर बजाया जा सकता है कुछ होंठों पर रख कर फूंक से बजाई जाती हैं. बाल्कन देशों में कावेल नाम की, दक्षिण अमेरिका में क्वेना, अफ्रीका की पेउल है या फिर चौड़े सिरे वाली जापानी बांसुरी शाकुहाची.
मेयेरिंग ने शानदार काम किया है, उन्होंने 15 देशों के बांसुरी वादकों को मैजिक फ्लूट प्रयोग के लिए बुलाया. चार दिन इन सब बांसुरी वादकों ने साथ मिल कर तैयारी की और इसके बाद 2013 में रुडोलश्टाड के विश्व संगीत समारोह में एक साथ एक कार्यक्रम दिया.
जर्मनी में सामने से बजाई जाने वाली ब्लॉकफ्लूट मशहूर है. वहीं आयरलैंड में टिन व्हिसल नाम की बांसुरी है. यह हर जगह मिलती है और इसे सीखना एकदम आसान है. इसके मास्टर हैं एलेन डोहेर्टी. उन्होंने लॉर्ड ऑफ द रिंग के साउंडट्रैक में बांसुरी बजाई थी. वह कहते हैं, "मेरा साज बहुत मजबूत आवाज वाला है." डोहेर्टी के मुताबिक यह जरूरी भी था क्योंकि यह साज पहले पब में बजाया जाता जहां काफी शोर होता था,"आयरिश संगीत का चरित्र सामाजिक है. आयरिश लोग पार्टी के शौकीन होते हैं और नाच गाना इन्हें काफी पसंद होता है."
ने की दीवानगी
तुर्की में सूफी संगीत पर लंबे समय तक पाबंदी थी. इसका मुख्य साज ने बांसुरी है. ऑटोमन साम्राज्य जब सुल्तान अताकतुर्क ने खत्म किया. तब पुरानी सारी परंपराएं मिटा दी गईं. इनमें सूफी, दरवेशियों का संगीत भी शामिल था. ने बजाने वाले कुदिस एर्गुनर बताते हैं, "80 के दशक में जब पर्यटन विभाग सैलानियों के सामने संस्कृति परोसना चाहता था तब सूफी संगीत लौटा."
उनका साज उत्तरी अफ्रीका से लेकर ईरान तक फैला हुआ है. ने सीखना इतना आसान नहीं है. उसे होठों के बीच रख कर नहीं बजाया जा सकता इसलिए इसे सीखने के लिए सांस पर नियंत्रण और ताकतवर फूंक जरूरी है. ठीक भारतीय बांसुरी की तरह. (तबला सीखने बर्लिन भी आइए)
चरवाहों और भिक्षुओं तक
अफ्रीकी बांसुरी पेउल भी मुश्किल है. पेउल बांसुरी का नाम इन निवासियों से आया है. पेउल लोग सेनेगल से कैमरून तक फैले हुए हैं. उनका साज भेड़ बकरियों के लिए हैं ताकि दूर गए जानवरों को बुलाया जा सके. यह बांसुरी उत्सवों में भी खूब बजाई जाती है. नाइजीरिया के याकूबा मोऊमोऊनी बताते हैं, "बहुत कम लोग पेउल बांसुरी बजाते हैं. सीधी सादी मेलोडी बजाने में भी कई साल लग जाते हैं."
बांसुरीवादक कोशी त्सुकुदा ककहते हैं कि जापानी बांसुरू शाकुहाची सीखने की तकनीक थोड़ी आसान है. त्सुकुदा के देश में 17वीं सदी से यह साज बौद्ध भिक्षुओं का बाजा है. हालांकि इसकी शुरूआत हजार साल पहले चिनी शियाओ से हुई बताई जाती है. इसकी मुलायम आवाज से भिक्षु शिष्यों को ध्यान के लिए बुलाते थे.
भारत में हर तरह की बांसुरी बजाई जाती है. बिलकुल सादी सामने से बजाई जा सकने वाली बांसुरी भी होती है जिस पर कोई धुन सीखना मुश्किल नहीं. लेकिन शास्त्रीय संगीत का साज बांसुरी काफी मुश्किल है और इसे सीखने में काफी समय और मेहनत लगती है. 35 हजार साल पहले हड्डी से बनी बांसुरी किस काम आती थी ये तो कोई संगीतज्ञ नहीं बता सकता लेकिन ये तय है कि इतने सालों में बांसुरी का जादू कहीं कम नहीं हुआ है.
रिपोर्टः सुजाने कॉर्ड्स/आभा मोंढे
संपादनः निखिल रंजन