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विवाद

अलग थलग पड़ रहा है पाकिस्तान

शामिल शम्स
२२ फ़रवरी २०१९

बेनजीर भुट्टो के बेटे और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष बिलावल भुट्टो जरदारी का कहना है कि वह पुलवामा हमले के बाद भारत के लोगों को नाराजगी समझते हैं. उन्होंने माना कि पाकिस्तान अलग थलग पड़ रहा है.

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Munich Security Conference 2019 Bilawal Bhutto
तस्वीर: DW/Shamil Shams

पाकिस्तान की सबसे पुरानी और लोकप्रिय पार्टियों में से एक, पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की कमान 30 साल के बिलावल भुट्टो जरदारी के हाथ में है. वह पार्टी के अध्यक्ष हैं और पाकिस्तान की सियासत पर अपनी मुहर लगाना चाहते हैं. 27 दिसंबर 2007 को बिलावल की मां और पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो की रावलपिंडी में हत्या कर दी गई थी. भारत के साथ संबंध सुधारने और कश्मीर मुद्दे को सुलझाने की वकालत करने वाली बेनजीर को पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सक्रिय इस्लामी ताकतों ने निशाना बनाया था. 2008 में पीपीपी ने बहुमत से चुनाव जीता. बेनजीर के पति और बिलावल के पिता आसिफ अली जरदारी 2013 तक राष्ट्रपति भी रहे. लेकिन अगले दो चुनावों में पार्टी की हार हुई. अब बेनजीर भुट्टो की तरह ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़े बिलावल पार्टी में जान फूंकने की कोशिश कर रहे हैं.

अल्पसंख्यकों और महिला अधिकारों पर खुलकर बोलने वाले बिलावल भुट्टो ने डॉयचे वेले से के संवाददाता शामिल शम्स से पाकिस्तान की राजनीति से जुड़े सभी मुद्दों पर खुलकर चर्चा की. पेश है इस बातचीत के अहम हिस्से.

डीडब्ल्यू: 14 फरवरी को कश्मीर में हुए घातक हमले के बाद भारत और पाकिस्तान एक बार फिर युद्ध जैसे माहौल में उलझ रहे हैं. आपकी नजर में इस तनाव को कैसे कम किया जा सकता है?

बिलावल भुट्टो जरदारी: मैं शुरुआत इस हमले की निंदा से करूंगा. हमारी पार्टी हिंसा पर यकीन नहीं रखती है और हम किसी भी तरह की हिंसा को निंदा करते हैं. इस वक्त भारत के लोगों की भावनाएं समझी जा सकती हैं. वे व्यथित, परेशान और गुस्से में हैं. लेकिन नेताओं के लिए यह जरूरी है कि वे गैर सरकारी तत्वों और आतंकवादियों के खेल में न फंसे. वे भारत और पाकिस्तान के लोगों को बांटना चाहते हैं. वे नहीं चाहते हैं कि भारत और पाकिस्तान के लोगों में शांतिपूर्ण संबंध हों.

लेकिन इसके साथ ही हम यह भी यकीन रखते हैं कि कश्मीर में जनमत संग्रह होना चाहिए, ताकि वहां के लोगों के पास एक लोकतांत्रिक अवसर हो. अगर ऐसा होगा, तो मुझे लगता है कि वहां आतंकवाद खत्म हो जाएगा.

भारत और पाकिस्तान को ज्यादा वचनबद्ध होना चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य से पिछले कुछ सालों से ऐसा नहीं हो रहा है, खासतौर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार के दौर में. इसीलिए पाकिस्तान और भारत के शांति प्रेमियों के लिए यह और भी ज्यादा जरूरी है कि वे शांति पर जोर दें और हर तरह के आतंकवाद की निंदा करें.

भारत और पाकिस्तान के बीच शांति में सबसे बड़ी बाधा क्या है? बीते सालों में कई कोशिशें हुईं लेकिन कुछ भी काम करता नहीं दिख रहा है.

कई मुद्दे हैं, आतंकवाद उनमें से एक है. कश्मीर विवाद भी है. मुझे लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी, भारत को धर्मनिरपेक्षता की जड़ से दूर कर राष्ट्रवादी सरकार की ओर ले जा रहे हैं. पाकिस्तान के साथ शांति का कोई संजीदा प्रयास किया ही नहीं गया. शायद, ज्यादा ध्यान अपने घरेलू दर्शकों पर दिया गया. भारत में इस साल चुनाव होने वाले है. हो सकता है कि पीएम मोदी की आक्रामक नीति की एक वजह यह भी हो.

पाकिस्तान में भी तो अभी कोई बहुत उदारवादी सरकार नहीं है.

यह सच है. लेकिन भारत को उसकी धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता के लिए जाना जाता है. भारत बड़ा और अमीर देश है. वह बड़ा लोकतंत्र है और उसके बड़े भाई की तरह व्यवहार करते हुए दोस्ती का हाथ आगे बढ़ाना चाहिए. पाकिस्तान आगे बढ़ने को तैयार है.

वॉशिंगटन और तालिबान के बीच चल रही बातचीत पर आपकी क्या राय है? इस्लामाबाद दोनों पार्टियों के बीच समझौता कराने की कोशिश कर रहा है, लेकिन ऐसा लगता है कि अफगान सरकार को किनारे कर दिया गया है. क्या आपको लगता है कि काबुल को इस बातचीत से अलग करने से भविष्य में समस्याएं होंगी?

बिल्कुल. अफगान विवाद को हल करने के लिए यह बहुत जरूरी है कि ऐसी कोशिशों की कमान अफगान नेतृत्व और अफगानिस्तान संभाले. उसके बिना सकारात्मक और टिकाऊ नतीजे हासिल करना मुश्किल होगा. तालिबान से अकेले बात करने का अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप का फैसला, अफगानिस्तान और पाकिस्तान के लिए ही नहीं बल्कि खुद ट्रंप की कैबिनेट के लिए भी चौंकाने वाला रहा. लेकिन मुझे लगता है कि यह भी अपने घरेलू दर्शकों पर केंद्रित है. ट्रंप अपनी ऐसी छवि ऐसे राष्ट्रपति के रूप में बनाना चाहते हैं जो अफगानिस्तान से बाहर निकलने की कोशिश कर रहा है.

लेकिन इस तरह विवाद नहीं सुलझाए जाते. अफगानिस्तान को शांति भरे मेल मिलाप के लिए एक प्लान की जरूरत है. लेकिन यह शर्तों की तरह नहीं होना चाहिए. आप किसी चीज को यूं ही काटकर भाग नहीं सकते. अमेरिका के पूर्व विदेश मंत्री कॉलिन पॉवेल ने इस बहुत अच्छी तरह व्यक्त करते हुए कहा था: "आपने तोड़ा है, आप ही इसे ठीक करेंगे." वॉशिंगटन को इलाके में आर्थिक सहयोग के मौके बढ़ाने चाहिए और इलाके के पुनर्निर्माण की योजनाएं भी देखनी चाहिए. अमेरिका को इस इलाके को बर्बादी में नहीं छोड़ना चाहिए- जैसा कि हमने इराक में देखा, जहां इस्लामिक स्टेट का जन्म हुआ.

लंबे अफगान संघर्ष की थकान महसूस की जा सकती है. यह अफगान सरकार, तालिबान, पाकिस्तान, नाटो और अमेरिका भी महसूस कर रहे हैं. हम इन संकेतों को इस उम्मीद से देख रहे हैं कि वहां से बाहर निकलने के लिए एक रणनीति भी होगी.

आप काफी उदार किस्म के नेता है और शायद आप इस सवाल का दूसरों के मुकाबले बेहतर तरीके से जवाब दे पाएंगे, पश्चिम में पाकिस्तान को लेकर भरोसे की कमी है. कट्टरपंथ को लेकर पाकिस्तान जो नजरिया पेश करता है, अंतरराष्ट्रीय समुदाय उसे स्वीकार नहीं करता है. आतंकवाद को कैसे परिभाषित किया जाए, इस मुद्दे पर समझ का अभाव क्यों है?

मुझे लगता है कि एबटाबाद में ओसामा बिन लादेन की हत्या के बाद से ही खासतौर पर हमारा जनसंपर्क खराब हुआ है. भरोसे का अभाव तक आ गया है. निश्चित रूप से हम आरोपों से पल्ला नहीं झाड़ सकते. लेकिन मेरी मां कहा करती थी कि वक्त सबका बदलता है और ये बदलने में किसी के साथ पक्षपात नहीं करता. दुर्भाग्य से पुराने तानाशाहों ने पाकिस्तान की छवि को नुकसान पहुंचाया है और अब जाहिर तौर पर हम जो दावा करते हैं, दुनिया उसका सबूत मांगती है.

हमें पश्चिम को खुश करने के लिए ही नहीं बल्कि पाकिस्तान की खातिर साथ चलना होगा. अगर सारे पाकिस्तानियों को आपस में लड़ने के बजाए साथ लाना है तो हमें कट्टरपंथी हिस्सा का मुकाबला करना होगा. यह हमारे अपने मुद्दे हैं, अपने भविष्य के लिए हमें इन्हें हल करना होगा. मुझे लगता है कि हम ईमानदारी से इन मुद्दों से निपटना शुरू करें तो पाकिस्तान में तरक्की दिखने लगेगी और दुनिया भी बदलाव देखेगी. तब जाकर हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय से आंखें मिला सकेंगे.

लेकिन इसके लिए पूरी दुनिया के साथ मजबूती से कंधा मिलाना होगा. दुर्भाग्य से पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के कार्यकाल में बाकी दुनिया के साथ रिश्ते कमजोर पड़े. मिस्टर खान (इमरान खान) को सत्ता में सिर्फ छह महीने ही हुए हैं लेकिन विदेश नीति के मामले में उनकी करवट पक्षपाती सी है, वह संसद को भी साथ लेकर नहीं चलते हैं. दुनिया के सामने पाकिस्तान का नजरिया रखने के लिए उन्होंने संयुक्त राष्ट्र का दौरा नहीं किया. उन्होंने सिर्फ उन्हीं देशों का दौरा किया जहां वित्तीय मदद की आस थी. विदेश नीति और रिश्ते इस तरह नहीं बनाए जाते हैं.

इंटरव्यू: शामिल शम्स